मंगलवार, 6 जनवरी 2015

कविता : तुम्हारे प्रेम के बिना

चित्र : चुम्बन (पाब्लो पिकासो)

हमारे होंठ हमारा प्यार हैं
खाते समय कभी न कभी होंठ कट ही जाते हैं
शुक्र है कि लार में जीवित नहीं रह पाते सड़न पैदा करने वाले विषाणु
इसलिए होंठों पर लगे घाव जल्दी भर जाते हैं
क्रमिक विकास में हमने
होंठों को बचा कर रखना सीख लिया है

कितनी सारी ग़ज़लें जबरन कहे गए मत्ले के साथ जीती हैं
कितने सारे मत्ले भर्ती के अश’आर संग निबाहते हैं
मुकम्मल ग़ज़लें दुनियाँ में होती ही कितनी हैं

हमारा प्यार मुकम्मल ग़ज़ल हो
मैंने इतनी बड़ी ख़्वाहिश कभी नहीं की
बस एक शे’र ऐसा हो
जिसे दुनिया अपने दिल--दिमाग से निकाल न सके
जिसका मिसरा--ऊला मैं होऊँ और मिसरा--सानी तुम

तुम्हारा जिस्म एक भूलभुलैया है
हर बार तुम्हारी आत्मा तक पहुँचते पहुँचते मैं राह भटक जाता हूँ

तुम्हारे हाथों पर किसी और की लगाई मेरे नाम की मेंहदी नहीं हूँ मैं
जिसे चार कपड़े और चार बर्तन, चार दिन में हमेशा के लिए मिटा देंगे

मैं तुम्हारी आत्मा की तलाश में निकला वो मुसाफिर हूँ
जो कभी अपनी मंजिल तक नहीं पहुँच पाएगा
लेकिन ये जानते हुए भी तुम्हारी आत्मा हमेशा जिसका इंतजार करेगी

तुमको छू कर आता हुआ प्रकाश
मेरी आँख का पानी है

बादल आँसू बहाते हैं और रेगिस्तान रोता है
रोने वालों की आँखें अक्सर सूखी रहती हैं
आँसू बहाने वाले अक्सर रोते नहीं

तुमको सोते हुए देखना
तुममें घुलना है

कपड़े तुम्हारे जिस्म से उतरते ही मर जाते हैं
साँस तुम्हारे जिस्म से निकलते ही भभक उठती है
चूड़ियाँ तुम्हारे हाथों से निकलकर गूँगी हो जाती हैं
तुम गहने पहनना छोड़ दो तो क्या इस्तेमाल रह जाएगा अनमोल पत्थरों का
तुम न होती तो पुरुष अपने झूठे अहंकार के लिए लड़ भिड़ कर कब का खत्म हो गए होते

तुम्हारे छूने भर से बेजुबान चीजें गुनगुनाने लगती हैं
जीवन तुम्हारी छुवन में है

ईश्वर तक पहुँचने के रास्ते का एकमात्र द्वार तुम्हारे दिल में है

तुम्हारे दिल तक पहुँचने के रास्ते में ढेर सारे मंदिर, मस्जिद, धर्मग्रंथ, धर्मगुरु
ईश्वर ले लो, ईश्वर ले लो, सस्ता सुंदर और टिकाऊ ईश्वर ले लो” की आवाज लगाते रहते हैं

नारी नरक का द्वार है” मानव इतिहास का सबसे भयानक झूठ है

हर शिव ये जानता है कि कामदेव के बिना सृष्टि का चलना असंभव है
किंतु हर शिव कामदेव को भस्म करने का नाटक रचता है
परिणाम?
कामदेव अदृश्य और अजेय हो कर वापस आता है

एक गाँव में किसी घर के पिछवाड़े एक कुआँ था। न जाने कौन घर की चीजें जैसे कपड़े, खाना इत्यादि ले जाकर कुएँ में डाल देता था। सब खोज खोजकर हार गए लेकिन कारण का पता नहीं चला। अंत में सबने मान लिया कि उस कुएँ में कोई भूत रहता है। कई भूत भगाने वाले बुलाये गये पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा। कुछ सालों बाद घरवालों ने वो कुआँ ही बंद करवा दिया। ये प्रेत कथा उस गाँव के लोग तरह तरह से सुनते सुनाते थे और बच्चों को डराते थे। पर उस गाँव की एक औरत ऐसी थी जो इस कहानी का सच जानती थी। दर’असल जिस घर के पिछवाड़े वो कुआँ था उस घर की एक लड़की गाँव के ही एक लड़के से प्रेम करती थी। जब घर वालों को पता चला तो उन्होंने लड़की का घर से निकलना बंद करवा दिया और लड़के को बहुत मारा पीटा। लेकिन प्रेम फिर भी बढ़ता गया और उसके साथ ही बढ़ते गए घर वालों के अत्याचार। तंग आकर लड़की ने उसी कुएँ में कूदकर अपनी जान दे दी। लड़की की माँ को लगता था कि अकाल मृत्यु मरने के कारण उसकी बेटी की आत्मा कुएँ में भटकती रहती है इसलिए वो सबसे छुपाकर उसके लिए जब तब कपड़े, खाना और अन्य जरूरत के सामान उस कुएँ में डाल आती थी।

प्रेत कथाएँ दर’असल विकृत प्रेम कथाएँ है। प्रेत कथाओं पर यकीन मत करना।

जैसे नाभिक का सारा आकर्षण अर्थहीन है इलेक्ट्रान के बिना
जैसे सूर्य का सारा प्रकाश बेमतलब है धरती के बिना
जैसे ये ब्रह्मांड निरर्थक है इंसान के बिना
वैसे ही मेरे होने का कोई मतलब नहीं है

तुम्हारे प्रेम के बिना

शुक्रवार, 2 जनवरी 2015

ग़ज़ल : दूर जाना चाहता तो ले के मेला चल

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २

तेज़ चलना चाहता है तो अकेला चल
दूर जाना चाहता तो ले के मेला चल

खा के मीठा हर जगह से आ गया है तू
स्वस्थ रहना है तुझे तो खा करेला चल

सूर्य चढ़ने दे जरा, इस काँच के घर में
साँप ख़ुद मर जाएँगें, तू फेंक ढेला, चल

जिन्दगी अनजान राहों से गुजरती है
एक भटकेगा यकीनन हो दुकेला चल

चल रही आकाशगंगा चल रहे तारे
चल रहा जग तू भी अपना ले झमेला चल

सोमवार, 15 दिसंबर 2014

ग़ज़ल : सूखी यादें जब झड़ती हैं

सूखी यादें जब झड़ती हैं
जाकर आँखों में गड़ती हैं

अच्छा है थोड़ा खट्टापन
खट्टी चीजें कम सड़ती हैं

फ्रिज में जिनको हम रख देते
बातें वो और बिगड़ती हैं

हैं जाल सरीखी सब यादें
तड़पो तो और जकड़ती हैं

जब प्यार जताना हो ‘सज्जन’
नज़रें आपस में लड़ती हैं

सोमवार, 1 दिसंबर 2014

कविता : आग

प्रकाश केवल त्वचा ही दिखा सकता है
आग त्वचा को जलाकर दिखा सकती है भीतर का मांस
मांस को जलाकर दिखा सकती है भीतर की हड्डियाँ
और हड्डियों को भस्म कर दिखा सकती है
शरीर की नश्वरता

आग सारे भ्रम दूर कर देती है
आग परवाह नहीं करती कि जो सच वो सामने ला रही है
वो नंगा है, कड़वा है, बदसूरत है या घिनौना है
इसलिए चेतना सदा आग से डरती रही है

आग को छूट दे दी जाय
तो ये कुछ ही समय में मिटा सकती है
अमीर और गरीब के बीच का अंतर

आग के विरुद्ध सब पहले इकट्ठा होते हैं
घरवाले
फिर मुहल्लेवाले
और कोशिश करते हैं कि पानी डालकर कम कर दें आग का तापमान
या काट दें प्राणवायु से इसका संबंध

आग यदि सही तापमान पर पहुँच जाय
तो सृष्टि को रचने वाले चार स्वतंत्र बलों की तरह
लोकतंत्र के चारों खम्भे भी इसके विरुद्ध इकट्ठे हो जाते हैं

गरीब आग से डरते हैं
पूँजीपति और राजनेता आग का इस्तेमाल करते हैं

सबसे पुराने वेद की सबसे पहली ऋचा ने
आग की वंदना की
ताकि वो शांत रहे
जिससे धर्म, संस्कृति, सभ्यता और समाज पनप सकें
और इस तरह बाँटा जा सके मनुष्य को मनुष्य से

सूरज की आग ने करोड़ों वर्षों में गढ़ा है मनुष्य को
जब तक आग रहेगी मनुष्य रहेगा
आग बुझ गई तो धर्म, संस्कृति, सभ्यता और समाज
मिलकर भी बचा नहीं पाएँगें मनुष्य को

धर्म, संस्कृति, सभ्यता और समाज को
सबसे ज्यादा डर बच्चों से लगता है
क्योंकि बच्चे आग से नहीं डरते

बच्चे ही बचा सकते हैं इंसानियत को
धर्म, संस्कृति, सभ्यता और समाज से
मनुष्य को मशीन हो जाने से
क्योंकि ब्रह्मांड में केवल बच्चे ही हैं
जो आग से खेल सकते हैं

शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

कविता : ईश्वर और शैतान

महाखलनायक
महानायक के साथ ही पैदा होता है

जैसे ईश्वर के साथ ही पैदा हुआ है
शैतान

शैतान और ईश्वर
दोनों एक दूसरे के पूरक हैं

शैतान तब तक जियेगा
जब तक ईश्वर जिन्दा है

ईश्वर को खत्म कर दो
शैतान अर्थहीन होकर
ख़ुद-ब-ख़ुद खत्म हो जाएगा

मगर इससे पहले तुम्हें सीखना होगा
ईश्वर के बगैर जीना

गुरुवार, 13 नवंबर 2014

ग़ज़ल : मैं खड़ा हूँ शक्ति, पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २१२
 -------
राजमहलों को बचाती इस व्यवस्था के ख़िलाफ़
मैं खड़ा हूँ शक्ति, पूँजी और सत्ता के ख़िलाफ़

राम, ईसा, बुद्ध, पैगम्बर हों या अंबेडकर
मैं सदा लड़ता रहूँगा व्यक्ति-पूजा के ख़िलाफ़

काट लो इसका अँगूठा माँ तलक कहने लगीं
सीखने जब लग पड़ा गुरुओं की इच्छा के ख़िलाफ़

आदमी के साथ गर हैं आप तो फिर आज से
साथ उनका दीजिए लिखते जो राजा के ख़िलाफ़

पाँव छूते ही सभी दुष्कर्म करते माफ़, यूँ,
वृद्ध चाचा चौधरी लड़ते हैं राका के ख़िलाफ़

बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

कविता : शहरी साँप

शहर में पैदा हुआ और पला बढ़ा साँप
इस दुनिया का सबसे खतरनाक प्राणी है

इसे बचपन से ही आसानी से मिलने लगते हैं
झुग्गियों में ठुँसे हुए चूहे
फुटपाथ पर सोये हुए परिन्दे
छोटे छोटे घरों में बसे खरगोश
और खुद से कमजोर साँप

इन सबको जी भरकर खाते खाते
इसका पेट और इस इसकी ख़ुराक
दोनों दिन--दिन बढ़ते चलते जाते हैं

खा खाकर ये लगातार लम्बा और मोटा होता चला जाता है
इसकी त्वचा दिन--दिन चमकदार होती जाती है
और दिल--दिमाग लगातार ठंडे होते जाते हैं

लेकिन शहर जैसी भीड़भाड़ वाली जगह
इसके बढ़ते आकार और बढ़ती भूख के कारण
इसके लिए धीरे धीरे असुरक्षित होने लगती है

शहर के तेज तर्रार नेवलों और बाजों से बचने के लिए
ये भागता है जंगलों, नदियों और पहाड़ों की तरफ
जहाँ इसका जहर
हरे भरे जंगलों को झुलसा देता है
नदियों का पानी जहरीला बना देता है
बड़ी बड़ी चट्टानों को भी गला देता है

इस तरह सीधे सादे जंगलों, नदियों और पहाड़ों का शोषण करके
उन्हें दिन--दिन नष्ट करता जाता है

गाँवों में भी साँप कम नहीं होते
पर उन्हें आसानी से कभी नहीं मिलता अपना भोजन
उनका आकार और उनकी ख़ुराक
दोनों घटते बढ़ते रहते हैं
इसलिए उनमें इतना जहर कभी नहीं बनता
कि वो जंगलों, नदियों और पहाड़ों को ज्यादा नुकसान पहुँचा सकें
शहर का साँप उन्हें या तो खा जाता है
या अपने शरीर का हिस्सा बना लेता है

अंत में शहरी साँप अपने कुल देवता का विशाल मंदिर बनवाता है
और हर साल उनपर सोने का छत्र चढ़ाता है
इस तरह शहरी साँप ये निश्चित करता है
कि चूहे, परिन्दे, खरगोश, छोटे साँपजंगल, नदी और पहाड़
स्वर्ग में भी आसानी से मिल सकें

अब जबकि इस लोकतंत्र में
सर्पयज्ञ पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है
शहरी साँप अजेय है

रविवार, 19 अक्तूबर 2014

ग़ज़ल : हर दिन गोरी को नहलाता है साबुन

बह्र : 22 22 22 22 22 2
-------------
चुप रहकर सब सहता जाता है साबुन
इसीलिये गोरी को भाता है साबुन

आशिक, शौहर दोनों खूब तरसते हैं
हर दिन गोरी को नहलाता है साबुन

बनी रहे सुन्दरता इसीलिए खुद को
थोड़ा थोड़ा रोज मिटाता है साबुन

सब कहते आशिक पर ख़ुद की नज़रों में
केवल अपना फ़र्ज़ निभाता है साबुन

इश्क़ अगर करना है सीखो साबुन से
मिट जाने तक साथ निभाता है साबुन

बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

कविता : तितली और रेशम का कीड़ा

रेशमी परों वाली तितलियाँ हँसती हैं
और आवाज़ के रंग बिरंगे फूलों से
बगीचा महक उठता है

रेशम को दबाकर रखोगे
तो केवल उसकी कोमलता के बारे में जान पाओगे
कभी खींच कर देखना
रेशम स्टील से ज्यादा मज़बूत होता है

कोठियों की तो घास भी रेशम जैसी होती है

रेशम पहनने वाले नहीं जानते
कि इसे रेशम के कीड़ों ने अपनी सुरक्षा के लिए बुना था
और इसी को पाने के लिए
हज़ारों मेहनतकश कीड़ों को उबाल कर मार डाला गया

रेशम उतना ही पुराना है जितना सबसे पुराना धर्मग्रन्थ
इसीलिए ईश्वर रेशमी कपड़े पहनता है
और धर्मग्रन्थों में रेशम पहनने को पाप नहीं माना जाता

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

ग़ज़ल : ले गया इश्क़ मुआँ आज बयाना मुझसे

बह्र : 2 1 2 2 -1 1 2 2- 1 1 2 2 – 2 2

ले गया इश्क़ मुआँ आज बयाना मुझसे
अब ये माँगेगा शब-ओ-रोज़ बकाया मुझसे

दफ़्न कर दूँगा मैं दिल में सभी अरमाँ लेकिन
पहले उट्ठे तो इन अश्क़ों का जनाज़ा मुझसे

दर-ओ-दीवार पे चलने लगीं लाखों फ़िल्में
खुल गया क्यूँ तेरी यादों का पिटारा मुझसे

जी किया और वो उड़ के गया महबूब के पास
लाख बेहतर है इक आज़ाद परिंदा मुझसे

आतिश-ए-इश्क़ में जल जल के नया हो तू भी
कह गया रात यही बात पतंगा मुझसे