बुधवार, 18 मार्च 2015

ग़ज़ल : सदा पर्वत से ऊँचा हौसला रखना

बह्र : १२२२ १२२२ १२२२

पड़े चंदन के तरु पर घोसला रखना
तो जड़ के पास भूरा नेवला रखना

न जिससे प्रेम हो तुमको, सदा उससे
जरा सा ही सही पर फासला रखना

बचा लाया वतन को रंगभेदों से
ख़ुदा अपना हमेशा साँवला रखना

नचाना विश्व हो गर ताल पर इनकी
विचारों को हमेशा खोखला रखना

अगर पर्वत पे चढ़ना चाहते हो तुम
सदा पर्वत से ऊँचा हौसला रखना

सोमवार, 16 मार्च 2015

ग़ज़ल : वक़्त क़साई के हाथों मैं इतनी बार कटा हूँ

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२

वक़्त क़साई के हाथों मैं इतनी बार कटा हूँ
जाने कितने टुकड़ों में किस किस के साथ गया हूँ

हल्के आघातों से भी मैं टूट बिखर जाता हूँ
इतनी बार हुआ हूँ ठंडा इतनी बार तपा हूँ

जाने क्या आकर्षण, क्या जादू होता है इनमें
झूठे वादों की कीमत पर मैं हर बार बिका हूँ

अब दोनों में कोई अन्तर समझ नहीं आता है
सुख में दुख में आँसू बनकर इतनी बार बहा हूँ

मुझमें ही शैतान कहीं है और कहीं है इन्साँ
माने या मत माने दुनिया मैं ही कहीं ख़ुदा हूँ

गुरुवार, 12 मार्च 2015

ग़ज़ल : कब तुमने इंसान पढ़ा

बह्र : २२ २२ २२ २

शास्त्र  पढ़े विज्ञान पढ़ा
कब तुमने इंसान पढ़ा

बस उसका गुणगान पढ़ा
कब तुमने भगवान पढ़ा

गीता पढ़ी कुरान पढ़ा
कब तुमने ईमान पढ़ा

कब संतान पढ़ा तुमने
बस झूठा सम्मान पढ़ा

जिनके थे विश्वास अलग
उन सबको शैतान पढ़ा

जिसने सच बोला तुमसे
उसको ही हैवान पढ़ा

सूरज निगला जिस जिस ने
उस उस को हनुमान पढ़ा

मंगलवार, 3 मार्च 2015

ग़ज़ल : गाँव कम हैं प्रधान ज्यादा हैं

बह्र : २१२२ १२१२ २२

फ़स्ल कम है किसान ज्यादा हैं
ये ज़मीनें मसान ज्यादा हैं

टूट जाएँगे मठ पुराने सब
देश में नौजवान ज़्यादा हैं

हर महल की यही कहानी है
द्वार कम नाबदान ज़्यादा हैं

आ गई राजनीति जंगल में
जानवर कम, मचान ज़्यादा हैं

हाल मत पूछ देश का ‘सज्जन’
गाँव कम हैं प्रधान ज्यादा हैं

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

ग़ज़ल : ख़ुदा मिटा करते हैं अक़्सर कलम नहीं मिटती

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

माना मिट जाते हैं अक्षर कलम नहीं मिटती
मारो बम गोली या पत्थर कलम नहीं मिटती

जितने रोड़े आते उतना ज़्यादा चलती है
लुटकर, पिटकर, दबकर, घुटकर कलम नहीं मिटती

इसे मिटाने की कोशिश करते करते इक दिन
मिट जाते हैं सारे ख़ंजर कलम नहीं मिटती

पंडित, मुल्ला और पादरी सब मिट जाते हैं
मिट जाते मज़हब के दफ़्तर कलम नहीं मिटती

जब से कलम हुई पैदा सबने ये देखा है
ख़ुदा मिटा करते हैं अक़्सर कलम नहीं मिटती

शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

ग़ज़ल : ख़ुद को दुहराने से है अच्छा रुक जाना

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२

फिर मिल जाये तुम्हें वही रस्ता रुक जाना
ख़ुद को दुहराने से है अच्छा रुक जाना

उनके दो ही काम दिलों पर भारी पड़ते
एक तो उनका चलना औ’ दूजा रुक जाना

दिल बंजर हो जाएगा आँसू मत रोको
ख़तरनाक है खारे पानी का रुक जाना

तोड़ रहे तो सारे मंदिर मस्जिद तोड़ो
नफ़रत फैलाएगा एक ढाँचा रुक जाना

पंडित, मुल्ला पहुँच गये हैं लोकसभा में
अब तो मुश्किल है ‘सज्जन’ दंगा रुक जाना

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015

ग़ज़ल : कैसे कैसे ख़ुशी ढूँढ़ते हैं

बह्र : २१२२ १२२१ २२

दूसरों में कमी ढूँढ़ते हैं
कैसे कैसे ख़ुशी ढूँढ़ते हैं

प्रेमिका उर्वशी ढूँढ़ते हैं
पर वधू जानकी ढूँढ़ते हैं

हर जगह गुदगुदी ढूँढ़ते हैं
घास भी मखमली ढूँढ़ते हैं

वोदका पीजिए आप, हम तो
दो नयन शर्बती ढूँढ़ते हैं

वो तो शैतान है जिसके बंदे
क़त्ल में बंदगी ढूँढ़ते हैं

आज भी हम समय की नदी में
बह गई ज़िन्दगी ढूँढ़ते हैं

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

ग़ज़ल : भाव मिले जीवन-कविता में तो तुक जाता है

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

रोज़ बदलती इस दुनिया में जो रुक जाता है
तन से मन से रिसते रिसते वो चुक जाता है

आँधी आती है तो जान बचाने की ख़ातिर
जो जितना ऊँचा उतनी जल्दी झुक जाता है

दो के झगड़े में होता नुकसान तीसरे का
आँखें लड़ती हैं आपस में दिल ठुक जाता है

अपने ही देते हैं सबसे ज़्यादा दर्द हमें
चमड़ी के दिल तक चमड़े का चाबुक जाता है

माँ, पत्नी अब साथ नहीं रह सकती हैं ‘सज्जन’
भाव मिले जीवन-कविता में तो तुक जाता है

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015

गीत : पैसा, ख़तरा, ख़ून हमारा सारा लाभ तुम्हारा

पैसा, ख़तरा, ख़ून हमारा
सारा लाभ तुम्हारा

तिल तिल कर वो मरा सदा
जो रहा अछूता तुमसे
चारों खम्भे लोकतंत्र के
चरण वन्दना करते

सारी ख़बरों में बजता है
तुम्हरा ही इकतारा

नायक खलनायक अधिनायक
खेल खिलाड़ी सारे
देव, दैव, इंसान, दरिन्दे
सब हैं दास तुम्हारे

मन्दिर मस्जिद गिरिजाघर में
गूँज रहा जयकारा

ऐसा क्या है इस दुनिया में
जिसे न तुमने जीता
साम, दाम, औ’ दंड, भेद से
फल पाया मनचीता

पूँजी तुम्हरे रामबाण से
सारा भारत हारा

शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

ग़ज़ल : हम हों न हों दिक्काल में, इंसानियत लेकिन रहे

सूरज मिटे, चंदा मिटे, धरती बनी जोगिन रहे
हम हों न हों दिक्काल में, इंसानियत लेकिन रहे

सूरत अगर बद हो तो हो सीरत मगर कमसिन रहे
फिर चार दिन की जिन्दगी दो दिन रहे इक दिन रहे

रोबोट हो या जानवर तब तो न कोई बात है
इंसान को संभव कहाँ इंसानियत के बिन रहे

हों पक्ष में सब या ख़िलाफ़त हो मिरी मंजूर है
हो फ़ैसला जो भी मगर हर पल बहस मुमकिन रहे

गर एक भाषा हो सभी की जीत लाएँ स्वर्ग हम
क्या फ़र्क़ पड़ता है कि वो हिन्दी रहे लैटिन रहे