बुधवार, 6 मई 2015

ग़ज़ल : गरीबी ख़ून देकर भी अमीरी को बचाती है

बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२

अमीरी बेवफ़ा मौका मिले तो छोड़ जाती है
गरीबी बावफ़ा आकर कलेजे से लगाती है

भरा हो पेट जिसका ठूँस कर उसको खिलाती, पर
जो भूखा हो अमीरी भी उसे भूखा सुलाती है

अमीरी का दिवाला भर निकलता है यहाँ लेकिन
गरीबी ऋण न चुकता कर सके तो जाँ गँवाती है

अमीरी छू के इंसाँ को बना देती है पत्थर सा
गरीबी पत्थरों को गढ़ उन्हें रब सा बनाती है

ये दोनों एक माँ की बेटियाँ हैं इसलिए ‘सज्जन’
गरीबी ख़ून देकर भी अमीरी को बचाती है

बुधवार, 29 अप्रैल 2015

ग़ज़ल : बीज मुहब्बत के गर हम तुम बो जाएँगे

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२

जीवन से लड़कर लौटेंगे सो जाएँगे
लपटों की नाज़ुक बाँहों में खो जाएँगे

द्वार किसी के बिना बुलाए क्यूँ जाएँ हम
ईश्वर का न्योता आएगा तो जाएँगे

कई पीढ़ियाँ इसके मीठे फल खाएँगी
बीज मुहब्बत के गर हम तुम बो जाएँगे

चमक दिखाने की ज़ल्दी है अंगारों को
अब ये तेज़ी से जलकर गुम हो जाएँगे

काम हमारा है गति के ख़तरे बतलाना
जिनको जल्दी जाना ही है, वो जाएँगे

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

ग़ज़ल : हम इतने चालाक न थे

बह्र : २२ २२ २२ २
         
जीवन में कुछ बन पाते
हम इतने चालाक न थे

सच तो इक सा रहता है
मैं बोलूँ या तू बोले

हारेंगे मज़लूम सदा
ये जीते या वो जीते

पेट भरा था हम सबका
भूख समझ पाते कैसे

देख तुझे जीता हूँ मैं
मर जाता हूँ देख तुझे

मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

ग़ज़ल : इक दिन बिकने लग जाएँगे बादल-वादल सब

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

इक दिन बिकने लग जाएँगे बादल-वादल सब
दरिया-वरिया, पर्वत-सर्वत, जंगल-वंगल सब

पूँजी के नौकर भर हैं ये होटल-वोटल सब
फ़ैशन-वैशन, फ़िल्में-विल्में, चैनल-वैनल सब

महलों की चमचागीरी में जुटे रहें हरदम
डीयम-वीयम, यसपी-वसपी, जनरल-वनरल सब

समय हमारा खाकर मोटे होते जाएँगे
ब्लॉगर-व्लॉगर, याहू-वाहू, गूगल-वूगल सब

कंकरीट का राक्षस धीरे धीरे खाएगा
बंजर-वंजर, पोखर-वोखर, दलदल-वलदल सब

जो न बिकेंगे पूँजी के हाथों मिट जाएँगे
पाकड़-वाकड़, बरगद-वरगद, पीपल-वीपल सब

आज अगर धरती दे दोगे कल वो माँगेंगे
अम्बर-वम्बर, सूरज-वूरज, मंगल-वंगल सब

शनिवार, 18 अप्रैल 2015

ग़ज़ल : इसकी लहू से ख़ूब सिंचाई हुई तो है

बह्र : 221 2121 1221 212

रोटी की रेडियस, जो तिहाई हुई, तो है
पूँजी की ग्रोथ रेट सवाई हुई तो है

ख़ुद का भी घर जला है तो अब चीखने लगे
ये आग आप ही की लगाई हुई तो है

बारिश के इंतजार में सदियाँ गुज़र गईं
महलों की नींव तक ये खुदाई हुई तो है

खाली भले है पेट मगर ये भी देखिए
छाती हवा से हम ने फुलाई हुई तो है

क्यूँ दर्द बढ़ रहा है मेरा, न्याय ने दवा
ज़ख़्मों के आस पास लगाई हुई तो है

वर्षों से इस ज़मीन में कुछ भी नहीं उगा
इसकी लहू से ख़ूब सिंचाई हुई तो है

गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

नवगीत : चंचल नदी बाँध के आगे

चंचल नदी
बाँध के आगे
फिर से हार गई
बोला बाँध
यहाँ चलना है
मन को मार, गई

टेढ़े चाल चलन के
उस पर थे
इल्ज़ाम लगे
उसकी गति में
थी जो बिजली
उसके दाम लगे

पत्थर के आगे
मिन्नत सब
हो बेकार गई

टूटी लहरें
छूटी कल कल
झील हरी निकली
शांत सतह पर
लेकिन भीतर
पर्तों में बदली

सदा स्वस्थ
रहने वाली
होकर बीमार गई

अपनी राहें
ख़ुद चुनती थी
बँधने से पहले
अब तो सब से
पूछ रही है
रुक जाए, बह ले

आजीवन फिर
उसी राह से
हो लाचार, गई

सोमवार, 6 अप्रैल 2015

ग़ज़ल : जैसे मछली की हड्डी खाने वाले को काँटा है

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

जैसे मछली की हड्डी खाने वाले को काँटा है
वैसे मज़लूमों का साहस पूँजीपथ का रोड़ा है

सारे झूट्ठे जान गए हैं धीरे धीरे ये मंतर
जिसकी नौटंकी अच्छी हो अब तो वो ही सच्चा है

चुँधियाई आँखों को पहले जैसा तो हो जाने दो
देखोगे ख़ुद लाखों के कपड़ों में राजा नंगा है

खून हमारा कैसे खौलेगा पूँजी के आगे जब
इसमें घुला नमक है जो उसका उत्पादक टाटा है

छोड़ रवायत भेद सभी का खोल रहे हैं ‘सज्जन’ जी
जल्दी ही अब इनका भी कारागृह जाना पक्का है

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015

ग़ज़ल : नीली लौ सी तेरी आँखों में शायद पकता है मन

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

यूँ तो जो जी में आए वो करता है, राजा है मन
पर उनके आगे झटपट बन जाता भिखमंगा है मन

उनसे मिलने के पहले यूँ लगता था घोंघा है मन
अब तो ऐसा लगता है जैसे अरबी घोड़ा है मन

उनके बिन खाली रहता है, कानों में बजता है मन
जिसमें भरकर उनको पीता हूँ वो पैमाना है मन

पहले अक़्सर मुझको लगता था शायद काला है मन
पर उनसे लिपटा जबसे तबसे गोरा गोरा है मन

मुझको इनसे अक्सर भीनी भीनी ख़ुशबू आती है
नीली लौ सी तेरी आँखों में शायद पकता है मन

शनिवार, 28 मार्च 2015

ग़ज़ल : ज़ुल्फ़ का घन घुमड़ता रहा रात भर

बह्र : २१२ २१२ २१२ २१२

ज़ुल्फ़ का घन घुमड़ता रहा रात भर
बिजलियों से मैं लड़ता रहा रात भर

घाव ठंडी हवाओं से दिनभर मिले
जिस्म तेरा चुपड़ता रहा रात भर

जिस्म पर तेरे हीरे चमकते रहे
मैं भी जुगनू पकड़ता रहा रात भर

पी लबों से, गिरा तेरे आगोश में
मुझ पे संयम बिगड़ता रहा रात भर

जिस भी दिन तुझसे अनबन हुई जान-ए-जाँ
आ के ख़ुद से झगड़ता रहा रात भर

शनिवार, 21 मार्च 2015

ग़ज़ल : और क्या कहने को रहता है इस अफ़साने के बाद

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २१२

रूह को सब चाहते हैं जिस्म दफ़नाने के बाद
दास्तान-ए-इश्क़ बिकती खूब दीवाने के बाद

शर्बत-ए-आतिश पिला दे कोई जल जाने के बाद
यूँ कयामत ढा रहे वो गर्मियाँ आने के बाद

कुछ दिनों से है बड़ा नाराज़ मेरा हमसफ़र
अब कोई गुलशन यकीनन होगा वीराने के बाद

जब वो जूड़ा खोलते हैं वक्त जाता है ठहर
फिर से चलता जुल्फ़ के साये में सुस्ताने के बाद

एक वो थी एक मैं था एक दुनिया जादुई
और क्या कहने को रहता है इस अफ़साने के बाद