शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

ग़ज़ल : हम हों न हों दिक्काल में, इंसानियत लेकिन रहे

सूरज मिटे, चंदा मिटे, धरती बनी जोगिन रहे
हम हों न हों दिक्काल में, इंसानियत लेकिन रहे

सूरत अगर बद हो तो हो सीरत मगर कमसिन रहे
फिर चार दिन की जिन्दगी दो दिन रहे इक दिन रहे

रोबोट हो या जानवर तब तो न कोई बात है
इंसान को संभव कहाँ इंसानियत के बिन रहे

हों पक्ष में सब या ख़िलाफ़त हो मिरी मंजूर है
हो फ़ैसला जो भी मगर हर पल बहस मुमकिन रहे

गर एक भाषा हो सभी की जीत लाएँ स्वर्ग हम
क्या फ़र्क़ पड़ता है कि वो हिन्दी रहे लैटिन रहे

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