बह्र : २२१२ १२११ २२१२ १२
अपनी मिठास पे उसे बेहद गुरूर था
समझा था जिसको आम वो बंदा खजूर था
मृगया में लिप्त शेर को देखा जरूर था
बकरी के खानदान का इतना कुसूर था
दिल्ली से दिल मिला न ही दिल्ली में दिल मिला
दिल्ली में रह के भी मैं यूँ दिल्ली से दूर था
शब्दों से विश्व जीत के शब्दों में छुप गया
लगता था जग को वीर जो, शब्दों का शूर था
हीरे बिके थे कल भी बहुत, आज भी बिकें
लेकिन नहीं बिका जो कभी, कोहिनूर था
शब भर मैं गहरी नींद में कहता रहा ग़ज़ल
दिन में पिये जो अश्क़ ये उनका सुरूर था
हीरे बिके थे कल भी बहुत, आज भी बिकें
जवाब देंहटाएंलेकिन नहीं बिका जो कभी, कोहिनूर था ..
बहुत ही लाजवाब ... हर शेर कमाल कर रहा है धर्मेंद्र जी ...
बहुत बहुत शुक्रिया नास्वा जी
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