गुरुवार, 24 सितंबर 2015

ग़ज़ल : जो नकली सामान सजाकर बैठे हैं

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २

चेहरे पर मुस्कान लगाकर बैठे हैं
जो नकली सामान सजाकर बैठे हैं

कहते हैं वो हर बेघर को घर देंगे
जो कितने संसार जलाकर बैठे हैं

उनकी तो हर बात सियासी होगी ही
यूँ ही सब के साथ बनाकर बैठे हैं?

दम घुटने से रूह मर चुकी है अपनी
मुँह उसका इस कदर दबाकर बैठे हैं

रब क्यूँकर ख़ुश होगा इंसाँ से, उसपर
हम फूलों की लाश चढ़ाकर बैठे हैं

शनिवार, 12 सितंबर 2015

कविता : राजधानी में ब्लैक होल

देशों की चमचमाती हुई राजधानियाँ
हर आकाशगंगा के केन्द्र में
बैठा हुआ एक ब्लैक होल

किसी गाँव के सूरज से करोड़ों गुना बड़ा
अपने आसपास मौजूद तारों को
अपने इशारों पर नचाता हुआ

उसके पास खुद का कोई प्रकाश नहीं है
फिर भी वो अपने चारों तरफ रचता है चमचमाता हुआ प्रभामंडल
उन तारों के प्रकाश को विकृत करके
जो उससे दूर, बहुत दूर होते हैं

ऊष्मागतिकी का तीसरा नियम मुझे सबसे ज़्यादा कष्ट देता है
जिसके अनुसार किसी बंद व्यवस्था की सम्पूर्ण अराजकता
हमेशा बढ़ती है

ब्लैक होल
दुनिया की सबसे अराजक व्यवस्था है
फिर भी ये बाहर से देखने पर
ब्रह्मांड की सबसे शालीन व्यवस्था लगती है
क्योंकि इसे अपना बाहरी तापमान नियंत्रित रखना आता है

ये सूचनाएँ नष्ट तो नहीं कर सकता
लेकिन सूचना के अधिकार से प्राप्त सूचनाओं से
इसके भीतर की कोई भी जानकारी
बाहर नहीं आ सकती

लेकिन मैं निराश नहीं हूँ
मुझे पूरा भरोसा है कि एक न एक दिन
हम दिक्काल में सुरंगें बनाकर
इसके भीतर भरी जानकारियाँ
बाहर ले ही आएँगें
भले ही ऐसा होने पर
व्यवस्था से आम आदमी का भरोसा जड़ से उखड़ जाय

अँधेरे में किया गया विश्वास भी
आख़िर अंधविश्वास ही होता है

शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

ग़ज़ल : इंसाँ दुत्कारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

इंसाँ दुत्कारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में
पर पत्थर पूजे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

शब्दों से नारी की पूजा होती है लेकिन उस पर
ज़ुल्म सभी ढाये जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

नफ़रत फैलाने वाले बन जाते हैं नेता, मंत्री
पर प्रेमी मारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

दिन भर मेहनत करने वाले मुश्किल से खाना पाते
ढोंगी सब खाये जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

आँख मूँद जो करें भरोसा सच्चे भक्त कहे जाते
ज्ञानार्थी कोसे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

गली गली अंधेर मचा है फिर भी जन्नत की ख़ातिर
सारे के सारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

गुरुवार, 3 सितंबर 2015

ग़ज़ल : मिल-जुलकर रहती है सो चींटी भी ज़िन्दा है

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

अपनी ताक़त के बलबूते हाथी ज़िन्दा है
मिल-जुलकर रहती है सो चींटी भी ज़िन्दा है

कैसे मानूँ रूठ गया है मेरा रब मुझसे
मैं ज़िन्दा हूँ, पैमाना है, साकी ज़िन्दा है

सारे साँचे देख रहे हैं मुझको अचरज से
कैसे अब तक मेरे भीतर बागी ज़िन्दा है

लड़ते हैं मौसम से, सिस्टम से मरते दम तक
इसीलिए ज़िन्दा हैं खेत, किसानी ज़िन्दा है

सबकुछ बेच रही, मानव से लेकर ईश्वर तक
ऐसे थोड़े ही दुनिया में पूँजी ज़िन्दा है

आग बहुत है तुझमें ये माना ‘सज्जन’ लेकिन
ढूँढ़ जरा ख़ुद में क्या तुझमें पानी ज़िन्दा है

मंगलवार, 25 अगस्त 2015

ग़ज़ल : उनकी आँखों में झील सा कुछ है

बह्र : २१२२ १२१२ २२

उनकी आँखों में झील सा कुछ है
बाकी आँखों में चील सा कुछ है

सुन्न पड़ता है अंग अंग मेरा
उनके होंठों में ईल सा कुछ है

फैसले ख़ुद-ब-ख़ुद बदलते हैं
उनका चेहरा अपील सा कुछ है

हार जाते हैं लोग दिल अकसर
हुस्न उनका दलील सा कुछ है

ज्यूँ अँधेरा हुआ, हुईं रोशन
उनकी यादों में रील सा कुछ है

रविवार, 23 अगस्त 2015

ग़ज़ल : हम जिन्दा भी हैं मुर्दा भी

बह्र : २२ २२ २२ २२
----------------
श्रोडिंगर ने सच बात कही
हम जिन्दा भी हैं मुर्दा भी

इक दिन मिट जाएगी धरती
क्या अमर यहाँ? क्या कालजयी?

उस मछली ने दुनिया रच दी
जो ख़ुद जल से बाहर निकली

कुछ शब्द पवित्र हुए ज्यों ही
अपवित्र हो गए शब्द कई

जिस दिन रोबोट हुए चेतन
बन जाएँगें हम ईश्वर भी

मस्तिष्क मिला बहुतों को पर
उनमें कुछ को ही रीढ़ मिली

मैं रब होता, दुनिया रचता
इस से अच्छी, इस से जल्दी

रविवार, 16 अगस्त 2015

कविता : बाज़ और कबूतर

संभव नहीं है ऐसी दुनिया
जिसमें ढेर सारे बाज़ हों और चंद कबूतर

बाज़ों को जिन्दा रहने के लिए
ज़रूरत पड़ती है ढेर सारे कबूतरों की

बाज ख़ुद बचे रहें
इसलिए वो कबूतरों को जिन्दा रखते हैं
उतने ही कबूतरों को
जितनों का विद्रोह कुचलने की क्षमता उनके पास हो

कभी कोई बाज़ किसी कबूतर को दाना पानी देता मिले
तो ये मत समझिएगा कि उस बाज़ का हृदय परिवर्तन हो गया है

क्षेपक:

यहाँ यह बता देना भी जरूरी है
कि कबूतरों को जिन्दा रहने के लिए बाज़ों की कोई ज़रूरत नहीं होती

शनिवार, 8 अगस्त 2015

ग़ज़ल : दुश्मनी हो जाएगी यदि सच कहूँगा मैं

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २

दुश्मनी हो जाएगी यदि सच कहूँगा मैं
झूठ बोलूँगा नहीं सो चुप रहूँगा मैं

आप चाहें या न चाहें आप के दिल में
जब तलक मरज़ी मेरी तब तक रहूँगा मैं

बात वो करते बहुत कहते नहीं कुछ भी
इस तरह की बेरुख़ी कब तक सहूँगा मैं

तेज़ बहती धार के विपरीत तैरूँगा
प्यार से बहने लगी तो सँग बहूँगा मैं

सिर्फ़ सुनते जाइये तारीफ़ मत कीजै
कीजिएगा इस जहाँ में जब न हूँगा मैं

शनिवार, 1 अगस्त 2015

लघुकथा : देशद्रोह

खुद को देशभक्त समझने वाले राम ने रहीम से कहा, “तुमने देशद्रोह किया है।”

रहीम ने पूछा, “देशद्रोह का मतलब?”

राम ने शब्दकोश खोला, देशद्रोह का अर्थ देखा और बोला, “देश या देशवासियों को क्षति पहुँचाने वाला कोई भी कार्य।”

बोलने के साथ ही राम के चेहरे का आक्रोश गायब हो गया और उसके चेहरे पर ऐसे भाव आए जैसे किसी ने उसे बहुत बड़ा धोखा दिया हो। न चाहते हुए भी उसके मुँह से निकल गया, “हे भगवान! इसके अनुसार तो हम सब....।”

रहीम के होंठों पर मुस्कान तैर गई।

शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

लघुकथा : पुरानी इमारत

ऊँची इमारतों की मरम्मत एवं पुनर्निर्माण की कक्षा में प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार बता रहे थे कि हर इमारत का एक जीवनकाल होता है। पुरानी और जर्जर इमारतों को समय पर गिरा कर उनकी जगह पर नई इमारतें खड़ी कर देनी चाहिए। अगर ऐसा न किया जाय तो पुरानी इमारतों के कमजोर हिस्से जब तब गिरकर उसमें रहने वाले लोगों की जान लेते रहते हैं। ऐसी इमारतों को गिराने का सबसे सुरक्षित, सरल और सबसे कम समय लेने वाला तरीका है कि उसकी बुनियाद से जुड़े खम्भों को विस्फोटक लगाकर उड़ा दिया जाय।

प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार प्रौद्योगिकी के अलावा दर्शन में भी रुचि रखते थे और छात्रों से मित्रवत व्यवहार करते थे। जब उन्होंने छात्रों से प्रश्न पूछने के लिए कहा तो एक छात्र ने उठकर थोड़ा मुस्कुराते हुए प्रश्न पूछा, “सर, जाति की ऊँची इमारत भी तो बहुत पुरानी हो चुकी है। अब ये केवल यदा कदा गिरकर लोगों की जान ही लेती है। इसे कैसे गिराया जाय।”

प्रोफ़ेसर हँसे और बोले, “इसे गिराने के प्रयास तो सैकड़ों वर्षों से होते रहे हैं मगर इसके खम्भे धर्म की बुनियाद पर खड़े हैं जिसमें विस्फोट सहने की अद्भुत क्षमता है। परमाणु बम का प्रयोग हम कर नहीं सकते क्योंकि वो एक पल में इतना विनाश कर देगा जितना जाति हजारों वर्षों में नहीं कर पाएगी।”

छात्र बोला, “तो सर क्या ये इमारत यूँ ही मासूमों की जान लेती रहेगी। इसे गिराने का कहीं कोई उपाय नहीं है।”

प्रोफ़ेसर बोले, “हम तो सदियों से विस्फोटक लगा लगा कर हार गए। अब तो एकमात्र उपाय मुझे तुम जैसे नौजवानों में ही नज़र आता है। भले ही इस इमारत की बुनियाद को विस्फोटक लगाकर उड़ाया नहीं जा सकता मगर इसमें प्रेम-रसायन डालकर इसे गलाया जा सकता है।”