शनिवार, 3 सितंबर 2022

ग़ज़ल: कब तक झुट्टे को पूजोगे

22 22 22 22 22 22

जब तक पैसे को पूजोगे
चोर लुटेरे को पूजोगे

जल्दी सोकर सुबह उठोगे
तभी सवेरे को पूजोगे

खोलो अपनी आँखें वरना
सदा अँधेरे को पूजोगे

नहीं पढ़ोगे वीर भगत को
तुम बस पुतले को पूजोगे

ईश्वर जाने कब से मृत है
कब तक मुर्दे को पूजोगे

अब तो जान चुके हो सच तुम
कब तक झुट्टे को पूजोगे

मंगलवार, 19 जुलाई 2022

ग़ज़ल: एक दिन आ‍ँसू पीने पर भी टैक्स लगेगा


22 22 22 22 22 22

घुटकर मरने जीने पर भी टैक्स लगेगा
एक दिन आ‍ँसू पीने पर भी टैक्स लगेगा

नदी साफ तो कभी न होगी लेकिन एक दिन
दर्या, घाट, सफ़ीने पर भी टैक्स लगेगा

दंगा, नफ़रत, हत्या कर से मुक्त रहेंगे
लेकिन इश्क़ कमीने पर भी टैक्स लगेगा

पानी, धूप, हवा, मिट्टी, अम्बर तो छोड़ो
एक दिन चौड़े सीने पर भी टैक्स लगेगा

भारी हो जायेगा खाना रोटी-चटनी
धनिया और पुदीने पर भी टैक्स लगेगा

छोड़ो खाद, बीज की बातें एक दिन ‘सज्जन’
बहते लहू, पसीने पर भी टैक्स लगेगा

रविवार, 17 अप्रैल 2022

गीत चतुर्वेदी का उपन्यास ‘उस पार’ : एक गद्यात्मक महाकाव्य

 गीत चतुर्वेदी का उपन्यास ‘उस पार’ असल में मिथकों और प्रतीकों के माध्यम से कही गयी इस देश की कहानी है। उपन्यास में वजाल और सिमर्गल नाम के दो साधू दरअसल दो विचारधाराओंं के रूपक हैं। समझने के लिये इन्हें सरदार पटेल और जवाहर लाल नेहरू की विचारधारा भी समझ सकते हैं। यह सिमर्गल और वजाल के चरित्र चित्रण से भी स्पष्ट है। ये दो प्रकार की विचारधाराएँ इस देश में हजारों वर्षों से संघर्षरत किन्तु सहजीवी हैं। इनका जन्म एक ही विचारधारा से हुआ है। ये दो आत्माएँ एक ही मूल आत्मा के दो टुकड़े हैं जिसे हम भारत की संस्कृति कह सकते हैं। 


इस देश के हजारों वर्षों के इतिहास में वजाल हमेशा सिमर्गल पर भारी रहा है इसलिये अंतिम प्रतियोगिता (जिसे हम आजादी के संघर्ष का रूपक मानें) में सभी को यकीन था कि वजाल ही विजयी होकर अंततः वज्रगुरु का उत्तराधिकारी बनेगा। यहाँ वज्रगुरू को सत्य एवं अहिंसा की विचारधारा का रूपक माना जा सकता है। यहाँ लेखक ने शिवरस का जिक्र किया है। शिवरस देवों और दैत्यों की रस्साकसी से निकले हलाहल को सहन करने के बाद शिवकंठ से निकला अमृत है। विचारधारा भी तो यही होती है। अपने अंदर मौजूद देव और दानव के बीच हुई रस्साकसी से निकले विष को सहन कर लेने के बाद निकली अमृत धारा ही तो विचारधारा होती है। वज्रगुरु ने शिवरस पिया हुआ था जिसके कारण वो परमसिद्ध और दीर्घजीवी थे। उनकी आत्मा हजारों हजार वर्ष तक अपनी स्मृतियाँ अक्षुण्ण रख सकती थी। शरीर खत्म हो जाता है पर विचारधारा खत्म होने में हजारों हजार वर्ष लगते हैं। इस बात से भी स्पष्ट हो जाता है कि वजाल, सिमर्गल और वज्रगुरु व्यक्ति न होकर प्रतीक मात्र हैं।


पर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था। अंतिम प्रतियोगिता के बाद वज्रगुरु ने सिमर्गल को विजेता घोषित कर दिया। वो अपने ज्ञान और विद्या के बावजूद वजाल के साथ हुई बेईमानी को नहीं भाँप सके या फिर शायद सिमर्गल के स्वभाव के कारण भीतर ही भीतर वो सिमर्गल को अपना उत्तराधिकारी चुनना चाहते थे इसलिये उनके अवचेतन ने उन्हें सच देखने से रोक दिया।


इसके बाद वज्रगुरु की हत्या और उसके बाद वजाल और सिमर्गल के संघर्ष से तो सभी परिचित ही हैं। न वजाल सिमर्गल को समाप्त कर सकता है न सिमर्गल वजाल को क्योंकि दोनों एक ही आत्मा के दो टुकड़े हैं। पर उनके संघर्ष में वजाल की आत्मा का एक टुकड़ा कटकर अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम कर लेता है। ये टुकड़ा अर्थात मंदिरा इस देश की गंगा-जमुनी तहजीब यानी प्रेम सहिष्णुता और भाईचारे का प्रतीक है। इस कथा का नायक अर्थात मंदिरा का प्रेमी मनोहर इस देश के आम आदमी का प्रतीक है। वजाल और सिमर्गल के संघर्ष में पिस रही मंदिरा की आत्मा को मनोहर का प्रेम और मनोहर की स्मृतियाँ ही बचा सकती हैं। 


वर्तमान में वजाल ने मंदिरा की आत्मा का अपहरण कर लिया है और उसे एक केसरिया झंडे में कैद कर दिया है।  यहाँ आकर रूपक बहुत स्पष्ट हो जाता है। वजाल या सिमर्गल जिसके साथ भी मंदिरा की आत्मा जायेगी वही विजयी होगा परन्तु मंदिरा की आत्मा मनोहर के साथ अर्थात इस देश के आम आदमी के साथ ही रहना चाहती है। उपन्यास में मंदिरा की आत्मा को छुड़ाने के लिये मनोहर आधुनिक तकनीक, संगीत, कला, ज्योतिषि, योग, तंत्र इन सबके विशेषज्ञों के की सहायता से एक तोड़ू दस्ता बनाता है। 


मनोहर को रोकने के लिए वजाल तरह-तरह के भ्रम फैलाता है। भाँति-भाँति के झूठ बोलकर मनोहर को मंदिरा के विरुद्ध कर देता है। अब देखना ये है कि आम आदमी अपने तोड़ू दस्ते की मदद से इस देश की गंगा-जमुनी तहजीब यानी प्रेम, सहिष्णुता और भाईचारे को वजाल की कैद से मुक्त करा पायेगा या नहीं और मंदिरा की आत्मा के साथ रहने के लिए अपना शरीर अर्थात झूठा अभिमान और श्रेष्ठताबोध त्याग पायेगा या नहीं। बाकी वजाल और सिमर्गल का संघर्ष तो संभवतः सृष्टि के अंत तक जारी रहेगा।


इस तरह देखा जाय तो ‘उस पार’ प्रतीकों के माध्यम से कही गई एक ख़ूबसूरत कहानी है जिसमें मिथकों और प्रतीकों के माध्यम से कविता के तत्वों का भी समावेश है इसलिये इसे एक गद्यात्मक महाकाव्य भी कहा जा सकता है। 


इस उपन्यास के अंत तक आते-आते मुझे मार्केज याद आ गये। जादुई यथार्थ, मिथक और विज्ञान इन सबके संगम से रचा उनका उपन्यास ‘एकांत के सौ वर्ष’ याद आ गया। मार्केज ने अपने उपन्यास में जादुई यथार्थ, मिथक और विज्ञान के संगम से लैटिन अमेरिका के उपनिवेशीकरण, विनिवेशीकरण और नव-उपनिवेशीकरण के चक्रों पर एक समानांतर इतिहास लिखा है। गीत चतुर्वेदी का उपन्यास ‘उस पार’ लगभग उसी शैली में स्वतंत्रता पूर्व के भारत और स्वातंत्र्योत्तर भारत का समानांतर इतिहास प्रस्तुत करता है।


आप इस कहानी के प्रतीकों का कोई दूसरा अर्थ निकालने के लिए भी स्वतंत्र हैं। मेरे पास केवल अपनी समझ के पक्ष में तर्क हैं। आपकी समझ के प्रतिपक्ष में मैं कोई तर्क नहीं दे पाऊँगा क्योंकि गीत चतुर्वेदी के ही शब्दों में कहूँ तो।


“मेरे पास प्रेम से बड़ा कोई तर्क नहीं।”  


सोमवार, 4 अप्रैल 2022

नवगीत : जिन्दगी जलेबी सी

जिन्दगी जलेबी सी
उलझी है
मीठी है

दुनिया की चक्की में
मैदे सा पिसना है
प्यार की नमी से
मन का खमीर उठना है

गोल-गोल घुमा रही
सूरज की
मुट्ठी है

तेल खौलता दुख का
तैर कर निकलना है
वक़्त की कड़ाही में
लाल-लाल पकना है

चाशनी सुखों की
पलकें बिछाये
बैठी है

कुरकुरा बने रहना
ज़्यादा मत डूबना
उलझन है अर्थहीन
इससे मत ऊबना

मानव के हाथ लगी
ईश्वर की
चिट्ठी है

शनिवार, 1 जनवरी 2022

ग़ज़ल: हुये जिस्म उरियाँ तो ठंडक हुई कम

बड़ा जादुई है तेरा साथ हमदम
हुये जिस्म उरियाँ तो ठंडक हुई कम

समंदर कभी भर सका है न जैसे
मिले प्यार कितना भी लगता सदा कम

ये सूरत, ये मेधा, ये बातें, अदाएँ
कहीं बुद्ध से बन न जाऊँ मैं गौतम

कुहासे को क्या छू दिया तूने लब से
यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम

मुबाइल मुहब्बत का इसको थमा दे
मेरे दिल का बच्चा मचाता है ऊधम

गुरुवार, 23 दिसंबर 2021

नवगीत : पानी और पारा


पूछा मैंने पानी से
क्यूँ सबको गीला कर देता है

पानी बोला
प्यार किया है
ख़ुद से भी ज़्यादा औरों से
इसीलिये चिपका रह जाता हूँ
मैं अपनों से
गैरों से

हो जाता है गीला-गीला
जो भी मुझको छू लेता है

अगर ठान लेता
मैं दिल में
पारे जैसा बन सकता था
ख़ुद में ही खोया रहता तो
किसको गीला कर सकता था?

पारा बाहर से चमचम पर
विष अन्दर-अन्दर सेता है

वो तो अच्छा है
धरती पर
नाममात्र को ही पारा है
बंद पड़ा है बोतल में वो
अपना तो ये जग सारा है

मेरा गीलापन ही है जो
जीवन की नैय्या खेता है

सोमवार, 20 दिसंबर 2021

नवगीत : रजनीगंधा

रजनीगंधा
तुम्हें विदेशी
कहे सियासत

माना पितर तुम्हारे जन्मे
सात समंदर पार
पर तुम जन्मे इस मिट्टी में
यहीं मिला घर-बार

देख रही सब
फिर क्यों करती
हवा शरारत

रंग तुम्हारा रूप तुम्हारा
लगे मोगरे सा
फिर भी तुम्हें स्वदेशी कहती
नहीं कभी पुरवा

साफ हवा में
किसने घोली
इतनी नफ़रत

बन किसान का साथी यूँ ही
खेतों में उगना
गाँव, गली, घर, नगर, डगर सब
महकाते रहना

मिट जाएगी
कर्म इत्र से
बू-ए-तोहमत

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2021

नवगीत : रखें सावधानी कुहरे में


सूरज दूर गया धरती से
तापमान लुढ़का
बड़ा पारदर्शी था पानी
बना सघन कुहरा

लोभ हवा में उड़ने का
कुछ ऐसा उसे लगा
पानी जैसा परमसंत भी
संयम खो बैठा

फँसा हवा के अलख जाल में
हो त्रिशंकु लटका

आता है सबके जीवन में
एक समय ऐसा
आदर्शों से समझौता
करवा देता पैसा

किन्तु कुहासा कुछ दिन का
स्थायी साफ हवा

जैसे-जैसे सूरज ऊपर
चढ़ता जायेगा
बूँद-बूँद कर कुहरे का मन
गलता जायेगा

रखें सावधानी कुहरे में
घटे न दुर्घटना

शनिवार, 6 नवंबर 2021

ग़ज़ल: उजाला पढ़ रहे थे देर तक अब थक गये दीपक

1222 1222 1222 1222

उजाला पढ़ रहे थे देर तक अब थक गये दीपक
दुबारा स्नेह भर दें हम बस इतना चाहते दीपक

हैं जिनके कर्म काले, वो अँधेरे के मुहाफ़िज़ हैं
सब उजले कर्म वाले जल रहे बन शाम से दीपक

दिये का कर्म है जलना दिये का धर्म है जलना
तुफानी रात में ये सोचकर हैं जागते दीपक

अगर बढ़ता रहा यूँ ही अँधेरा जीत जाएगा
उजाले के मुहाफिज हैं, तिमिर से लड़ रहे दीपक

इन्हें समझाइये इनसे बनी सरहद उजाले की
बुझे कल दीप इतने हो गये हैं अनमने दीपक

अँधेरे से तो लड़ लेंगे मगर प्रभु जी सदा हमको
बचाना ब्लैक होलों से यही वर माँगते दीपक

जलाने में पराये दीप तुम तो बुझ गये ‘सज्जन’
तुम्हारी लौ लिये दिल में जले सौ-सौ नये दीपक

गुरुवार, 4 नवंबर 2021

नवगीत : चमक रही कंदील

नन्हा दीपक
तम से लड़ता
चमक रही कंदील

तेज हवा से
रक्षा करतीं
ममता की दीवारें
रंग बिरंगे
इस मंजर पर
लक्ष्मी खुद को वारें

श्वेत रश्मि को
सौ रंगों में
करती है तब्दील

धीरे-धीरे
नभ तक जाकर
तारा बन जायेगा
भूली भटकी
दुनिया को ये
रस्ता दिखलायेगा

टँगा हुआ है
सुंदर सपना
पकड़े सच की कील

अखिल सृष्टि यदि
राम कृष्ण से
ले लें सीता राधा
कभी न कोई
युद्ध कहीं हो
कभी न रोए ममता

अहंकार में
मतवाला जग
फौरन बने सुशील

शुक्रवार, 17 सितंबर 2021

नवगीत : ऐसी ही रहना तुम

जैसी हो
अच्छी हो
ऐसी ही रहना तुम

कांटो की बगिया में
तितली सी उड़ जाना
रस्ते में पत्थर हो
नदिया सी मुड़ जाना

भँवरों की मनमानी
गुप-चुप मत सहना तुम

सांपों का डर हो तो
चिड़िया सी चिल्लाना
बाजों के पंजों में
मत आना, मत आना

जो दिल को भा जाए
उससे सब कहना तुम

सूरज की किरणों से
मत खुद को चमकाना
जुगनू ही रहना पर
अपनी किरणें पाना

बन कर मत रह जाना
सोने का गहना तुम

रविवार, 27 जून 2021

नवगीत : बूढ़ा ट्रैक्टर

गड़गड़ाकर
खाँसता है
एक बूढ़ा ट्रैक्टर
डगडगाता
जा रहा है
ईंट ओवरलोड कर

सरसराती कार निकली
घरघराती बस
धड़धड़ाती बाइकों ने
गालियाँ दीं दस

कह रही है
साइकिल तक
हो गया बुड्ढा अमर

न्यूनतम का भी तिहाई
पा रहा वेतन
पर चढ़ी चर्बी कहें सब
ख़ूब इसके तन

थरथराकर
कांपता है
रुख हवा का देखकर

ठीक होता सब अगर तो
इस कदर खटता?
छाँव घर की छोड़कर ये
धूप में मरता?

स्वाभिमानी
खा न पाया
आज तक ये माँगकर

गुरुवार, 27 मई 2021

घनाक्षरी : जाते-जाते सारा हिन्दुस्तान बेच डालूँगा

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रेल बेच डाली मैंने तेल बेच डाला मैंने,
न्याय बेच डालूँगा ईमान बेच डालूँगा।

धान बेच डाला खलिहान बेच डाला मैंने,
बोलेगा अदानी तो किसान बेच डालूँगा।

बनिया हूँ भाई सही कीमत मिली जो मुझे,
राष्ट्रगान क्या है संविधान बेच डालूँगा।

बहुमत न मिला तो झोला ले के चल दूँगा,
जाते-जाते सारा हिन्दुस्तान बेच डालूँगा।

सोमवार, 17 मई 2021

ग़ज़ल: किसी रात आ मेरे पास आ मेरे साथ रह मेरे हमसफ़र

बह्र : ११२१२ ११२१२ ११२१२ ११२१२

किसी रात आ मेरे पास आ मेरे साथ रह मेरे हमसफ़र
तुझे दिल के रथ पे बिठा के मैं कभी ले चलूँ कहीं चाँद पर

तुझे छू सकूँ तो मिले सुकूँ तुझे चूम लूँ तो ख़ुदा मिले
तू जो साथ दे जग जीत लूँ तूझे पी सकूँ तो बनूँ अमर

मेरे हमनशीं मेरे हमनवा मेरे हमक़दम मेरे हमजबाँ
तुझे तुझ से लूँगा उधार, फिर, भरूँ किस्त चाहे मैं उम्र भर

कहीं धूप है कहीं छाँव है कहीं शहर है कहीं गाँव है
है कहाँ चली मेरी रहगुज़र तू जो साथ है तो किसे ख़बर

मेरी भूख तू मेरी प्यास तू मेरा जिस्म तू मेरी जान तू
तेरा नाम ख़ुद का बता रहा तू बसी है मुझमें कुछ इस क़दर