सोमवार, 16 नवंबर 2009

ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!

ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!

 

लाल-लाल फीतों में लिपटी, नई नवेली नगर वधू सी,

बाहर-भीतर चम-चम करती, देख हँसा, खुश हो, चपरासी,

बाबू ने फ़ाइल देखी, ज्यों देखे गुंडा अबला नारी;

ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!

 

गाँधीजी के फोटो वाला कागज़ बाबू ने खोजा, पर,

नहीं मिला, तो बोला बाबू, फ़ाइल इक कोने में रखकर,

कौन बचायेगा अब तुझको, बम भोले या कृष्ण मुरारी?

ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!

 

उसके बाद बताऊँ क्या मैं, बाबू, चपरासी, साहब ने,

मिलकर उसको यों लूटा, ज्यों खाया हो मुर्दा गिद्धों ने,

फ़ाइल का मुँह काला, नीला, लाल किया फिर बारी-बारी;

ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!

 

साहब, बाबू बदले जब-जब, फिर-फिर वह चीखी-चिल्लाई,

वर्षों बीत गये यूँ ही पर, कभी किसी को दया न आई,

जल कर ख़ाक हुई, इक दिन जब लगी आग दफ्तर में भारी;

ठुमक चली दफ्तर सरकारी, शर्मीली फ़ाइल, बेचारी!

1 टिप्पणी:

  1. सरकारी फ़ाइलो मे जब तक लाल धाग लग है वह सुहागिन है लेकिन कई हाथो से मसली जाती है जब लाल धागा खत्म हो जाता है तो वह अछूत विध्वा की भान्ति हो जाती है यही दुख भरी कहानी है

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