रविवार, 20 दिसंबर 2009

एक नाव

एक नाव....
डगमगाती रही, डूबती रही,
नदी शान्त खड़ी थी,
चाँद चुपचाप देख रहा था,
किनारों ने मुँह फेर लिया था,
हवायें पेड़ों के पीछे छुप गयीं थीं,
थोड़ी ही देर में,
पानी नाव में पूरी तरह भर गया,
और निश्चल हो गये नाव के हाथ-पाँव,
बेचारी नाव....

फिर सबकुछ पहले जैसा हो गया,
हवा फिर बहने लगी,
चाँद गुनगुनाने लगा,
नदी हँसने लगी,
किनारे नदी को बाँहों में भरने की कोशिश करने लगे,
जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो,
और नाव बेचारी कराहती हुई,
गहरे और गहरे डूबती चली गई,
पानी अपनी शक्ति पर इतराता रहा।

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