बुधवार, 31 जुलाई 2013

ग़ज़ल : ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर कारखानों पर

ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर कारखानों पर
ये फन वरना मिलेगा जल्द रद्दी की दुकानों पर

कलन कहता रहा संभावना सब पर बराबर है
हमेशा बिजलियाँ गिरती रहीं कच्चे मकानों पर

लड़ाकू जेट उड़ाये खूब हमने रातदिन लेकिन
कभी पहरा लगा पाये न गिद्धों की उड़ानों पर

सभी का हक है जंगल पे कहा खरगोश ने जबसे
तभी से शेर, चीते, लोमड़ी बैठे मचानों पर

कहा सबने बनेगा एक दिन ये देश नंबर वन
नतीजा देखकर मुझको हँसी आई रुझानों पर

शनिवार, 20 जुलाई 2013

शृंगार रस के दोहे

साँसें जब करने लगीं, साँसों से संवाद
जुबाँ समझ पाई तभी, गर्म हवा का स्वाद

हँसी तुम्हारी, क्रीम सी, मलता हूँ दिन रात
अब क्या कर लेंगे भला, धूप, ठंढ, बरसात

आशिक सारे नीर से, कुछ पल देते साथ
पति साबुन जैसा, गले, किंतु न छोड़े हाथ

सिहरें, तपें, पसीजकर, मिल जाएँ जब गात
त्वचा त्वचा से तब कहे, अपने दिल की बात

छिटकी गोरे गाल से, जब गर्मी की धूप
सारा अम्बर जल उठा, सूरज ढूँढे कूप

प्रिंटर तेरे रूप का, मन का पृष्ठ सुधार
छाप रहा है रात दिन, प्यार, प्यार, बस प्यार

तपता तन छूकर उड़ीं, वर्षा बूँद अनेक
अजरज से सब देखते, भीगा सूरज एक

भीतर है कड़वा नशा, बाहर चमचम रूप
बोतल दारू की लगे, तेरा ही प्रारूप


मंगलवार, 9 जुलाई 2013

ग़ज़ल : जो सरल हो गये

बहर : २१२ २१२
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जो सरल हो गये
वो सफल हो गये

जिंदगी द्यूत थी
हम रमल हो गये

टालते टालते
वो अटल हो गये

देख कमजोर को
सब सबल हो गये

भैंस गुस्से में थी
हम अकल हो गये

जो गिरे कीच में
वो कमल हो गये

अपने दिल से हमीं
बेदखल हो गये

देखकर आइना
वो बगल हो गये

रविवार, 7 जुलाई 2013

कविता : परिभाषाएँ

बिंदु में लंबाई, चौड़ाई और मोटाई नहीं होती
बना दो इससे गदा को गंदा, चपत को चंपत
जग को जंग, दगा को दंगा मद को मंद
मदिर को मंदिर, रज को रंज, वश को वंश
बजर को बंजर
कोई सवाल करे तो कह देना
ये बिंदु नहीं हैं
ये तो डॉट हैं जो हाथ हिलने से गलत जगह लग गए

केवल लंबाई होती है रेखा में
चौड़ाई और मोटाई नहीं होती
खींच दो गरीबी रेखा जहाँ तुम्हारी मर्जी हो
कोई उँगली उठाये तो कह देना ये गरीबी रेखा नहीं है
ये तो डैश है जो थोड़ा लंबा हो गया है

शब्दों और परिभाषाओं से
अच्छी तरह खेलना आता है तुम्हें
तभी तो पहुँच पाये हो तुम देश के सर्वोच्च पदों पर

मगर कब तक छुपाओगे
अपने कुकर्म परिभाषाओं के पीछे
एक न एक दिन तो जनता समझ ही जाएगी
कि कुछ भी बदलने के लिए सबसे पहले जरूरी है परिभाषाएँ बदलना

तब जब ये आयातित डाट और डैश जैसे चिह्न
हम निकाल फेंकेंगे अपनी भाषा से
तब जब बिंदु होगा लेखनी से न्यूनतम संभव
लंबाई, चौड़ाई और मोटाई वाला
रेखा होगी न्यूनतम संभव चौड़ाई और मोटाई वाली
तब कहाँ छुपोगे
ओ परिभाषाओं के पीछे छुपकर बैठने वालों

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

ग़ज़ल : और निधन गुनगुना हो गया

बहर : २१२ २१२ २१२
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जब श्वसन गुनगुना हो गया
तो मिलन गुनगुना हो गया

रूप की धूप में बैठकर
ये बदन गुनगुना हो गया

तेरी यादों की भट्ठी जली
मेरा मन गुनगुना हो गया

उसने डुबकी लगाई कहीं
आचमन गुनगुना हो गया

नर्म होंठों पे जुंबिश हुई
हरिभजन गुनगुना हो गया

थामकर हाथ हम चल पड़े
पर्यटन गुनगुना हो गया

उनके आने की आहट हुई
अंजुमन गुनगुना हो गया

उसके हाथों से पलकें मुँदीं
और निधन गुनगुना हो गया




मंगलवार, 2 जुलाई 2013

ग़ज़ल : जीतने तक उड़ान जिंदा रख

बहर : २१२२ १२१२ २२
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बाजुओं की थकान जिंदा रख
जीतने तक उड़ान जिंदा रख

आँधियाँ डर के लौट जाएँगीं
है जो खुद पे गुमान जिंदा रख

तेरा बचपन ही मर न जाय कहीं
वो पुराना मकान जिंदा रख

बेज़बानों से कुछ तो सीख मियाँ
तू भी अपनी ज़बान जिंदा रख

नोट चलता हो प्यार का भी जहाँ
एक ऐसी दुकान जिंदा रख

जान तुझमें ये डाल देंगे कभी
नाक, आँखें व कान जिंदा रख