शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

कविता : नोएडा

चिड़िया के दो बच्चों को
पंजों में दबाकर उड़ रहा है एक बाज

उबलने लगी हैं सड़कें
वातानुकूलित बहुमंजिली इमारतें सो रही हैं

छोटी छोटी अधबनी इमारतें
गरीबी रेखा को मिटाने का स्वप्न देख रही हैं
पच्चीस मंजिल की एक अधबनी इमारत हँस रही है

कीचड़ भरी सड़क पर
कभी साइकिल हाथी को ओवरटेक करती है
कभी हाथी साइकिल को

साइकिल के टायर पर खून का निशान है
जनता और प्रशासन ये मानने को तैयार नहीं हैं
कि साइकिल के नीचे दब कर कोई मर सकता है

अपने ही खून में लथपथ एक कटा हुआ पंजा
और मासूमों के खून से सना एक कमल
दोनों कीचड़ में पड़े-पड़े, आहिस्ता-आहिस्ता सड़ रहे हैं

कच्ची सड़क पर एक काली कार
सौ किलोमीटर प्रति घंटा की गति से भाग रही है
धूल ने छुपा रखी हैं उसकी नंबर प्लेटें

कंक्रीट की क्यारियाँ सींचने के लिए
उबलती हुई सड़क पर
ठंढे पानी से भरा हुआ टैंकर खींचते हुये
डगमगाता चला जा रहा है एक बूढ़ा ट्रैक्टर

शीशे की वातानुकूलित इमारत में
सबसे ऊपरी मंजिल पर बैठा महाप्रबंधक
अर्द्धपारदर्शी पर्दे के पीछे से झाँक रहा है
उसे सफेद चींटी जैसे नजर आ रहे हैं
सर पर कफ़न बाँधे
सड़क पर चलते दो इंसान

हरे रंग की टोपी और टी-शर्ट पहने
स्वच्छ पारदर्शक पानी से भरी
एक लीटर और आधा लीटर की
दो खूबसूरत पानी की बोतलें
महाप्रबंधक की मेज पर बैठी हैं
उनकी टी शर्ट पर लिखा है
पूरी तरह शुद्ध, बोतल बंद पीने का पानी
अतिरिक्त खनिजों के साथ

उनकी टी शर्ट पर पीछे की तरफ कुछ बेहूदे वाक्य लिखे हैं
जैसे
सूर्य के प्रकाश से दूर ठंढे स्थान पर रखें
छः महीने के भीतर ही प्रयोग में लायें
प्रयोग के बाद बोतल को कुचल दें

केंद्र में बैठा सूरज चुपचाप सब देख रहा है
पर सूरज या तो प्रलय कर सकता है
या कुछ नहीं कर सकता

सूरज छिपने का इंतजार कर रही है
रंग बिरंगी ठंढी रोशनी

सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

ग़ज़ल : सच वो थोड़ा सा कहता है

सच वो थोड़ा सा कहता है
बाकी सब अच्छा कहता है

दंगे ऐसे करवाता वो
काशी को मक्का कहता है

दौरे में जलते घर देखे
दफ़्तर में हुक्का कहता है

कर्मों को माया कहता वो
विधियों को पूजा कहता है

जबसे खून चखा है उसने
इंसाँ को मुर्गा कहता है

खेल रहा वो कीचड़ कीचड़
उसको ही चर्चा कहता है

चलता है जो खुद सर के बल
वो सबको उल्टा कहता है

तेरा क्या होगा रे ‘सज्जन’
अंधे को अंधा कहता है

बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

ग़ज़ल : जब से तू निकली दिल से हम सरकारी आवास हो गये

बह्र : मुस्तफ़्फैलुन मुस्तफ़्फैलुन मुस्तफ़्फैलुन मुस्तफ़्फैलुन
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जुड़ो जमीं से कहते थे जो वो खुद नभ के दास हो गये
आम आदमी की झूठी चिन्ता थी जिनको, खास हो गये

सबसे ऊँचे पेड़ों से भी ऊँचे होकर बाँस महोदय
आरक्षण पाने की खातिर सबसे लम्बी घास हो गये

तन में मन में पड़ीं दरारें, टपक रहा आँखों से पानी
जब से तू निकली दिल से हम सरकारी आवास हो गये

बात शुरू की थी अच्छे से सबने खूब सराहा भी था
लेकिन सबकुछ कह देने के चक्कर में बकवास हो गये

ऐसे डूबे आभासी दुनिया में हम सब कुछ मत पूछो
नाते, रिश्ते और दोस्ती सबके सब आभास हो गये

शब्द पुराने, भाव पुराने रहे ठूँसते हर मिसरे में
कायम रहे रवायत इस चक्कर में हम इतिहास हो गये

गुरुवार, 19 सितंबर 2013

ग़ज़ल : मिलजुल के जब कतार में चलती हैं चींटियाँ

बह्र : २२१ २१२१ १२२१ २१२

मिलजुल के जब कतार में चलती हैं चींटियाँ
महलों को जोर शोर से खलती हैं चींटियाँ

मौका मिले तो लाँघ ये जाएँ पहाड़ भी
तीखी ढलान पर न फिसलती हैं चींटियाँ

आँचल न माँ का सर पे न साया है बाप का
जीवन की तेज धूप में पलती हैं चींटियाँ

चलना सँभल के, राह में जाएँ न ये कुचल
खाने कमाने रोज निकलती हैं चींटियाँ

शायद कहीं मिठास है मुझमें बची हुई
अक्सर मेरे बदन पे टहलती हैं चींटियाँ

रविवार, 15 सितंबर 2013

ग़ज़ल : बनना हो बादशाह तो दंगा कराइये

बह्र : २२१ २१२१ १२२१ २१२
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सत्ता की गर हो चाह तो दंगा कराइये
बनना हो बादशाह तो दंगा कराइये

करवा के कत्ल-ए-आम बुझा कर लहू से प्यास
रहना हो बेगुनाह तो दंगा कराइये

कितना चलेगा धर्म का मुद्दा चुनाव में
पानी हो इसकी थाह तो दंगा कराइये

चलते हैं सर झुका के जो उनकी जरा भी गर
उठने लगे निगाह तो दंगा कराइये

प्रियदर्शिनी करें तो उन्हें राजपाट दें
रधिया करे निकाह तो दंगा कराइये

मज़हब की रौशनी में व शासन की छाँव में
करना हो कुछ सियाह तो दंगा कराइये

रविवार, 8 सितंबर 2013

ग़ज़ल : ध्यान रहे सबसे अच्छा अभिनेता है बाजार

छोटे छोटे घर जब हमसे लेता है बाजार
बनता बड़े मकानों का विक्रेता है बाजार

इसका रोना इसका गाना सब कुछ नकली है
ध्यान रहे सबसे अच्छा अभिनेता है बाजार

मुर्गी को देता कुछ दाने जिनके बदले में
सारे के सारे अंडे ले लेता है बाजार

कैसे भी हो इसको सिर्फ़ लाभ से मतलब है
जिसको चुनते पूँजीपति वो नेता है बाजार

खून पसीने से अर्जित पैसो के बदले में
सुविधाओं का जहर हमें दे देता है बाजार

बुधवार, 4 सितंबर 2013

ग़ज़ल : सिर्फ़ कचरा है यहाँ आग लगा देते हैं

बह्र : २१२२ ११२२ ११२२ २२
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धर्म की है ये दुकाँ आग लगा देते हैं
सिर्फ़ कचरा है यहाँ आग लगा देते हैं

कौम उनकी ही जहाँ में है सभी से बेहतर
जिन्हें होता है गुमाँ आग लगा देते हैं

एक दूजे से उलझते हैं शजर जब वन में
हो भले खुद का मकाँ आग लगा देते हैं

नाम नेता है मगर काम है माचिस वाला
खोलते जब भी जुबाँ आग लगा देते हैं
 
हुस्न वालों की न पूछो ये समंदर में भी
तैरते हैं तो वहाँ आग लगा देते हैं

आप ‘सज्जन’ हैं मियाँ या कोई चकमक पत्थर
जब भी होते हैं रवाँ आग लगा देते हैं

गुरुवार, 29 अगस्त 2013

ग़ज़ल : कोई चले न जोर तो जूता निकालिये

बह्र : मफऊलु फायलातु मफाईलु फायलुन
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चंदा स्वयं हो चोर तो जूता निकालिये
सूरज करे न भोर तो जूता निकालिये

वेतन है ठीक  साब का भत्ते भी ठीक हैं
फिर भी हों घूसखोर तो जूता निकालिये

देने में ढील कोई बुराई नहीं मगर
कर काटती हो डोर तो जूता निकालिये 

जिनको चुना है आपने करने के लिए काम
करते हों सिर्फ़ शोर तो जूता निकालिये

हड़ताल, शांतिपूर्ण प्रदर्शन, जूलूस तक
कोई चले न जोर तो जूता निकालिये

रविवार, 25 अगस्त 2013

ग़ज़ल : थका तो हूँ मगर हारा नहीं हूँ

बह्र : मुफाईलुन मुफाईलुन फऊलुन (1222 1222 122)
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न ऐसे देख बेचारा नहीं हूँ
थका तो हूँ मगर हारा नहीं हूँ

चमक मुझमें है पर गर्मी नहीं है
मैं इक जुगनू हूँ अंगारा नहीं हूँ

यकीनन संगदिल भी काट दूँगा
तो क्या जो बूँद हूँ धारा नहीं हूँ

सभी को साथ लेकर क्यूँ मिटूँगा?
मैं शबनम हूँ कोई तारा नहीं हूँ

हवा भरना तुम्हारा बेअसर है
मैं इक रोटी हूँ गुब्बारा नहीं हूँ

मेरी हर बात को अंतिम न मानो
मैं पूरा हूँ मगर सारा नहीं हूँ

कभी मैं रह न पाऊँगा महल में
मैं इक झरना हूँ फव्वारा नहीं हूँ

कभी मुझमें उतरकर देख लेना
समंदर हूँ मगर खारा नहीं हूँ


सोमवार, 5 अगस्त 2013

कविता : बादल, सागर और पहाड़ बनाम पूँजीपति

बादल

बादल अंधे और बहरे होते हैं
बादल नहीं देख पाते रेगिस्तान का तड़पना
बादलों को नहीं सुनाई पड़ती बाढ़ में बहते इंसानों की चीख
बादल नहीं बोल पाते सांत्वना के दो शब्द
बादल सिर्फ़ गरजना जानते हैं
और ये बरसते तभी हैं जब मजबूर हो जाते हैं

सागर

गागर, घड़ा, ताल, झील
नहर, नदी, दरिया
यहाँ तक कि नाले भी
लुटाने लगते हैं पानी जब वो भर जाते हैं
पर समुद्र भरने के बाद भी चुपचाप पीता रहता है
इतना ही नहीं वो पानी को खारा भी करता जाता है
ताकि उसे कोई और न पी सके

पहाड़

पहाड़ सिर्फ़ ऊपर उठना जानते हैं
खाइयाँ कितनी गहरी होती जा रही हैं
इसकी परवाह वो नहीं करते
ज्यादा खड़ी चढ़ाई होने पर सबसे कमजोर हिस्सा
अपने आप उनका साथ छोड़ देता है
और इस तरह उनकी मदद करता है ऊँचा उठने में
एक दिन पहाड़ उस उँचाई से भी अधिक ऊँचे हो जाते हैं
जहाँ तक पहुँचने के बाद
विज्ञान के अनुसार उनका ऊपर उठना बंद हो जाना चाहिए

पूँजीपति

एक दिन अनजाने में
ईश्वर बादल, सागर और पहाड़ को मिला बैठा
उस दिन जन्म हुआ पहले पूँजीपति का
जिसने पैदा होते ही ईश्वर को कत्ल कर दिया
और बनवा दिये शानदार मकबरे
रच डालीं मकबरों की उपासना विधियाँ

तब से पूँजीपति ही
ईश्वर के नाम पर मजलूमों का भाग्य लिखता है
और उस पर अपने हस्ताक्षर कर ईश्वर की मोहर लगता है