मंगलवार, 6 सितंबर 2011

ग़ज़ल : दे दी अपनी जान किसी ने धान उगाने में

दे दी अपनी जान किसी ने धान उगाने में
मजा नहीं आया तुमको बिरयानी खाने में

पल भर के गुस्से से सारी बात बिगड़ जाती
सदियाँ लग जाती हैं बिगड़ी बात बनाने में

खाओ जी भर लेकिन इसको मत बर्बाद करो
एक लहू की बूँद जली है हर इक दाने में

उनसे नज़रें टकराईं तो जो नुकसान हुआ
आँसू भरता रहता हूँ उसके हरजाने में

अपने हाथों वो देते हैं सुबहो शाम दवा
क्या रक्खा है ‘सज्जन’ अब अच्छा हो जाने में

9 टिप्‍पणियां:

  1. लहू की बूँद जली है हर इक दाने में ||

    खूबसूरत अंदाज |
    बधाई ||

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  2. बहुत खूबसूरत और सार्थक अभिव्यक्ति...

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  3. उनसे नज़रें टकराईं तो जो नुकसान हुआ
    आँसू भरता रहता हूँ उसके हरजाने में
    क्या बात है बहुत सुंदर ........

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  4. धर्मेन्द्र भाई आप की तरफ से एक और अच्छी ग़ज़ल के लिए दिली दाद कुबुलें| धान विषय पर तकरीबन मुसलसल ग़ज़ल है ये, और मकते में आपने बरबस ही हंसा दिया भाई|

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  5. खाओ जी भर लेकिन इसको मत बर्बाद करो
    एक लहू की बूँद जली है हर इक दाने में


    बहुत संवेदनशील ..

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  6. "दे दी अपनी जान किसी ने धान उगाने में
    मजा नहीं आया तुमको बिरयानी खाने में "
    बहुत खूब लिखा है
    आशा

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  7. पल भर के गुस्से से सारी बात बिगड़ जाती
    सदियाँ लग जाती हैं बिगड़ी बात बनाने में

    खाओ जी भर लेकिन इसको मत बर्बाद करो
    एक लहू की बूँद जली है हर इक दाने में..यह दो शेर खास तौर से पसंद आये...

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  8. बहुत ही सुन्दर रचना है
    मेरा आभार स्वीकार करें

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