रविवार, 1 जनवरी 2012

नए साल में एक नई कविता

आज एक चक्कर और पूरा हुआ
ऐसा कहकर धरती ने दूर तक फैली आकाशगंगा को देखा
उसके मुँह से आह निकल पड़ी
सूरज से दूर
कितनी खूबसूरत दिखती है आकाशगंगा
काश! मैं मुक्त हो पाती सूरज के चिर बंधन से
केवल एक साल के लिए

पड़ोसी मंगल भी बोल पड़ा
हाँ भाभी, चलिए चलते हैं
मैं भी ऊब गया हूँ इस नीरस जिंदगी से

एक बारगी धरती के बदन में खुशी की लहर दौड़ गई
कि मंगल भी उसकी तरह सोचता है

पर अगले ही पल उसे याद आया
अरे! मैं तो खरबों खरब बच्चों की माँ हूँ
मैं सूरज से दूर गई
तो कहाँ से आएगी इनको जीवित रखने के लिए ऊर्जा

न न मंगल भैया!
मेरे बच्चों से बढ़कर मेरे लिए और कुछ नहीं है
इतना कहकर
धरती चल पड़ी
सूरज का चक्कर लगाने
और उसके बच्चे इस सब से बेखबर
चल पड़े नया साल मनाने

7 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन लाजवाब अभिव्यक्ति……………एक माँ ऐसी ही होती है अपने बच्चो के इर्द गिर्द ही घूमता है उसका जहान्।

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  2. बहुत खूब ! आप को सपरिवार नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें !

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  3. सुन्दर रचना... मंगल द्वारा धरती को “भाभी” संबोधन के पीछे कोई तथ्य है क्या...? (मगल को तो संभवतः भूमी सूत कहा जाता है!) सादर बधाई और नूतन वर्ष की सादर शुभकामनाएं

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  4. सुन्दर कल्पना और अभिव्यक्ति ! त्याग माँ का पर्याय है ।
    आपको सपरिवार नूतन वर्ष की शुभकामनाएँ !

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  5. नव वर्ष पर सार्थक रचना
    आप को भी सपरिवार नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें !

    शुभकामनओं के साथ
    संजय भास्कर

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  6. speechless......kya kahoo.....ap jaise rachnakaaron se hame bahut kuch sikhne ko milta hai.....utkrisht rachana....hny

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  7. तभी तो हम अपनी धरती को मात्र एक ग्रह न मान कर माँ कह कर संबोधित करते है...!

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