सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

कविता : मत छापो मुझे

मत छापो मुझे
पेड़ों की लाश पर

महलों में सजी जानवरों की खालों की तरह
मत सजाओ मुझे
पुस्तकालयों के रैक पर

मैं नहीं बनना चाहती
समोसों का आधार
कुत्तों का शिकार
कूड़े का भंडार

मुझे छोड़ दो
अंतर्जाल की भूल भुलैया में
डूबने दो मुझे
शब्दों और सूचनाओं के अथाह सागर में
मुझे स्वयं तलाशने दो अपना रास्ता
अगर मैं जिंदा बाहर निकल पाई
तो मैं इस युग की कविता हूँ
वरना.........

6 टिप्‍पणियां:

  1. कविता के अस्तिव का सुंदर चित्रण ,बधाई

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  2. शब्दों की तड़पन से सिहरी,
    चीत्कार कविता की सुन लो ।

    शब्दा-डंबर शब्द-भेदता,
    भावों के गुण से अब चुन लो ।

    पहले भी कविता मरती पर,
    मरने की दर आज बढ़ी है --

    भीड़-कुम्भ में घुटता है दम,
    ताना-बाना निर्गुन बुन लो ।।



    दिनेश की टिप्पणी - आपका लिंक

    http://dineshkidillagi.blogspot.in

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  3. वाह, कविता के मन की थाह पा ली आपने ।

    जवाब देंहटाएं
  4. अगर मैं जिंदा बाहर निकल पाई
    तो मैं इस युग की कविता हूँ

    विचारणीय है

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जो मन में आ रहा है कह डालिए।