मेरी नजर से भी देखो खुद को कभी।
मेरे लिए तो तुम्हीं इस अनन्त ब्रह्मांड का केन्द्र हो,
तुमसे ही मेरे ब्रह्मांड ने जन्म लिया है,
और तुम्हीं इसको हर पल विस्तृत कर रही हो,
एक दिन ये समाप्त हो जाएगा,
तुम्हारे साथ ही।
कितनी सारी खुशियाँ दी हैं तुमने मुझे,
तारों की तरह टिमटिमाती हुई,
और वो अपना नन्हा सूर्य,
जो हमारे इस ब्रह्मांड को रोशनी से भर रहा है,
काश! तुम मेरी कल्पनाओं को देख सकतीं।
मैं कितना भी तेज भागूँ,
तुम्हारे चारों ओर ही घूमता रहूँगा,
मैं तुमसे दूर कैसे जा सकता हूँ,
तुम्हारे प्रेम के गुरुत्वाकर्षण ने मुझे बाँध रक्खा है,
मैं अपनी सारी ऊर्जा प्राप्त करता हूँ तुमसे ही।
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
रविवार, 5 सितंबर 2010
बुधवार, 1 सितंबर 2010
भूख
न जाने भूख क्यों बनाई ईश्वर ने?
और पेट क्यों दिया इंसान को?
क्या चला जाता ईश्वर का,
अगर उसने हमें ऐसी त्वचा दी होती,
जो सूर्य की रोशनी से,
सीधे ऊर्जा प्राप्त कर सके,
मुफ़्त की ऊर्जा;
अगर ऐसा होता,
तो लोगों को भूख ना लगती,
लोग दाल रोटी की फ़िकर ना करते,
तब लोग काम करते,
केवल अहंकार की तुष्टि के लिए,
एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए,
और जीवन का सारा संघर्ष,
अमीरों के बीच सिमट कर रह जाता;
क्योंकि गरीब बेचारे,
आराम से दिन भर,
धूप लिया करते,
ना कोई चिन्ता ना कोई फ़िकर,
कितना सुखी हो जाता गरीबों का जीवन;
मगर,
ईश्वर ने पेट देकर,
भूख देकर,
गरीबों के साथ छल किया है,
और अमीरों की तरफ़दारी की है,
ताकि गरीब अपने लिए,
जीवन भर,
रोटी दाल का इन्तजाम करते रह जाएँ,
और अमीर,
दिन ब दिन अमीर होते जाएँ,
गरीबों का खून चूसकर;
गरीबों के इस खून को बेचकर,
अमीर,
ईश्वर के लिए नए नए घर बनवाते जाएँ,
और गरीब,
अपने खून से बने उन घरों में,
मत्था टेककर,
अपने को धन्य समझते रहें,
ईश्वर की जयजयकार करते रहें,
और चलती रहे,
ईश्वर की दाल रोटी।
और पेट क्यों दिया इंसान को?
क्या चला जाता ईश्वर का,
अगर उसने हमें ऐसी त्वचा दी होती,
जो सूर्य की रोशनी से,
सीधे ऊर्जा प्राप्त कर सके,
मुफ़्त की ऊर्जा;
अगर ऐसा होता,
तो लोगों को भूख ना लगती,
लोग दाल रोटी की फ़िकर ना करते,
तब लोग काम करते,
केवल अहंकार की तुष्टि के लिए,
एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए,
और जीवन का सारा संघर्ष,
अमीरों के बीच सिमट कर रह जाता;
क्योंकि गरीब बेचारे,
आराम से दिन भर,
धूप लिया करते,
ना कोई चिन्ता ना कोई फ़िकर,
कितना सुखी हो जाता गरीबों का जीवन;
मगर,
ईश्वर ने पेट देकर,
भूख देकर,
गरीबों के साथ छल किया है,
और अमीरों की तरफ़दारी की है,
ताकि गरीब अपने लिए,
जीवन भर,
रोटी दाल का इन्तजाम करते रह जाएँ,
और अमीर,
दिन ब दिन अमीर होते जाएँ,
गरीबों का खून चूसकर;
गरीबों के इस खून को बेचकर,
अमीर,
ईश्वर के लिए नए नए घर बनवाते जाएँ,
और गरीब,
अपने खून से बने उन घरों में,
मत्था टेककर,
अपने को धन्य समझते रहें,
ईश्वर की जयजयकार करते रहें,
और चलती रहे,
ईश्वर की दाल रोटी।
शनिवार, 28 अगस्त 2010
गूलर की लकड़ी
गूलर की लकड़ी,
कुँआ खोदते वक्त सबसे पहले,
तली में लगाई जाती है,
जिसके ऊपर ईंटों की चिनाई की जाती है,
उस पर जैसे जैसे ईंटों की बोझ बढ़ता जाता है,
और बीच में से मिट्टी निकाली जाती है,
वह धँसती जाती है,
नीचे और नीचे;
गूलर की लकड़ी सैकडों सालों तक,
दबी रहती है मिट्टी के नीचे,
सबसे नीचे,
सारी ईंटों का बोझ थामे,
सब सहते हुए,
फिर भी गलती नहीं,
सड़ती नहीं;
इसके बदले उस लकड़ी को,
न कोई पुरस्कार मिलता है,
न कोई सम्मान,
पर उसको इस पुरस्कार,
या मान-सम्मान से क्या काम?
जब कोई थका हारा,
प्यास का मारा मुसाफिर,
उस राह से गुजरता है,
और एक लोटा पानी पीकर कहता है,
आज इस कुँए के पानी ने मेरी जान बचा ली,
वरना मैं प्यास से मर जाता,
तो उस लकड़ी को लगता है,
उसके सारे कष्ट,
उसका सारा श्रम,
सफल हो गया;
उसके लिए एक थके हुए पथिक की,
तृप्ति भरी साँस ही,
मान है,
सम्मान है,
पुरस्कार है,
संतुष्टि है,
स्वर्ग है।
कुँआ खोदते वक्त सबसे पहले,
तली में लगाई जाती है,
जिसके ऊपर ईंटों की चिनाई की जाती है,
उस पर जैसे जैसे ईंटों की बोझ बढ़ता जाता है,
और बीच में से मिट्टी निकाली जाती है,
वह धँसती जाती है,
नीचे और नीचे;
गूलर की लकड़ी सैकडों सालों तक,
दबी रहती है मिट्टी के नीचे,
सबसे नीचे,
सारी ईंटों का बोझ थामे,
सब सहते हुए,
फिर भी गलती नहीं,
सड़ती नहीं;
इसके बदले उस लकड़ी को,
न कोई पुरस्कार मिलता है,
न कोई सम्मान,
पर उसको इस पुरस्कार,
या मान-सम्मान से क्या काम?
जब कोई थका हारा,
प्यास का मारा मुसाफिर,
उस राह से गुजरता है,
और एक लोटा पानी पीकर कहता है,
आज इस कुँए के पानी ने मेरी जान बचा ली,
वरना मैं प्यास से मर जाता,
तो उस लकड़ी को लगता है,
उसके सारे कष्ट,
उसका सारा श्रम,
सफल हो गया;
उसके लिए एक थके हुए पथिक की,
तृप्ति भरी साँस ही,
मान है,
सम्मान है,
पुरस्कार है,
संतुष्टि है,
स्वर्ग है।
मंगलवार, 24 अगस्त 2010
कविता
सड़क पर वाहनों की खिड़की के बाहर,
मेरे साथ साथ चलती है,
कविता;
रेलगाड़ी की खिड़की के बाहर,
हरे भरे खेतों के ऊपर,
मेरे साथ भागती है,
कविता;
बोरियत भरी मीटिंगों में,
मेरे मन में गूँजती रहती है,
कविता;
अकेले में अक्सर,
मुझसे बातें करती है,
कविता;
मेरी आत्मा में,
धीरे धीरे घुल रही है,
कविता;
अब मुझे कोई चिन्ता नहीं,
धर्म-अधर्म,
पाप-पूण्य,
स्वर्ग-नर्क की,
क्योंकि मैं कहीं भी जाऊँ,
हमेशा मेरे साथ रहेगी,
कविता।
मेरे साथ साथ चलती है,
कविता;
रेलगाड़ी की खिड़की के बाहर,
हरे भरे खेतों के ऊपर,
मेरे साथ भागती है,
कविता;
बोरियत भरी मीटिंगों में,
मेरे मन में गूँजती रहती है,
कविता;
अकेले में अक्सर,
मुझसे बातें करती है,
कविता;
मेरी आत्मा में,
धीरे धीरे घुल रही है,
कविता;
अब मुझे कोई चिन्ता नहीं,
धर्म-अधर्म,
पाप-पूण्य,
स्वर्ग-नर्क की,
क्योंकि मैं कहीं भी जाऊँ,
हमेशा मेरे साथ रहेगी,
कविता।
शनिवार, 21 अगस्त 2010
पारदर्शी आत्मा
जब मैं समाज में आता हूँ,
तो अपनी आत्मा पर,
वह शरीर प्रक्षेपित कर लेता हूँ,
जिसमें तुम्हारा कोई अंश नहीं होता;
और लोग कहते हैं मैं इतना खुश कैसे रह लेता हूँ,
इस तनाव भरी जिन्दगी में;
क्या करूँ?
मैं लोगों को अपनी आत्मा नहीं दिखा सकता,
क्योंकि मेरी आत्मा,
तुम्हारी निश्छल आत्मा में घुलकर,
पारदर्शी हो गई है,
और समाज में अभी इतनी साहस नहीं आया है,
कि वह पारदर्शी आत्माओं के पार का सच सह सके।
तो अपनी आत्मा पर,
वह शरीर प्रक्षेपित कर लेता हूँ,
जिसमें तुम्हारा कोई अंश नहीं होता;
और लोग कहते हैं मैं इतना खुश कैसे रह लेता हूँ,
इस तनाव भरी जिन्दगी में;
क्या करूँ?
मैं लोगों को अपनी आत्मा नहीं दिखा सकता,
क्योंकि मेरी आत्मा,
तुम्हारी निश्छल आत्मा में घुलकर,
पारदर्शी हो गई है,
और समाज में अभी इतनी साहस नहीं आया है,
कि वह पारदर्शी आत्माओं के पार का सच सह सके।
गुरुवार, 19 अगस्त 2010
धरती माँ
धरती के अन्तर में हर क्षण,
दौड़ता रहता है,
पिघला हुआ लावा,
दहकता हुआ लोहा,
जो करता है,
एक चुम्बकीय क्षेत्र का निर्माण,
धरती के चारों ओर,
और यही चुम्बकीय क्षेत्र,
घातक सौर विस्फोटों से,
रक्षा करता है हमारी;
धरती माँ ने आदि काल से ही,
बड़े कष्ट झेले हैं हमारे लिए,
लगातार जलाती रही है,
अपना दिल हमारे लिए;
हम से तो माँ को ये उम्मीद थी,
कि हम अपनी रक्षा खुद करना सीख लेंगे,
अपने लिए सुरक्षा कवच खुद बना लेंगे,
और माँ बुझा सकेगी अपने दिल की आग;
मगर हमने तो आजतक,
केवल सुरक्षा कवचों को तोड़ा है,
और बढ़ाते ही गए हैं,
धरती के दिल में पिघला हुआ लावा,
न जाने कब तक सह पाएगा,
धरती का अन्तर,
इस लावे की गर्मी को;
न जाने कब तक....।
दौड़ता रहता है,
पिघला हुआ लावा,
दहकता हुआ लोहा,
जो करता है,
एक चुम्बकीय क्षेत्र का निर्माण,
धरती के चारों ओर,
और यही चुम्बकीय क्षेत्र,
घातक सौर विस्फोटों से,
रक्षा करता है हमारी;
धरती माँ ने आदि काल से ही,
बड़े कष्ट झेले हैं हमारे लिए,
लगातार जलाती रही है,
अपना दिल हमारे लिए;
हम से तो माँ को ये उम्मीद थी,
कि हम अपनी रक्षा खुद करना सीख लेंगे,
अपने लिए सुरक्षा कवच खुद बना लेंगे,
और माँ बुझा सकेगी अपने दिल की आग;
मगर हमने तो आजतक,
केवल सुरक्षा कवचों को तोड़ा है,
और बढ़ाते ही गए हैं,
धरती के दिल में पिघला हुआ लावा,
न जाने कब तक सह पाएगा,
धरती का अन्तर,
इस लावे की गर्मी को;
न जाने कब तक....।
मंगलवार, 17 अगस्त 2010
मेढ़क
मेढ़क को अगर,
उबलते हुए पानी में डाल दिया जाय,
तो वह उछल कर बाहर आ जाता है;
मगर यदि उसे डाला जाय,
धीरे धीरे गर्म हो रहे पानी में,
तो उसका दिमाग,
उस गर्मी को सह लेता है,
और मेढ़क उबल कर मर जाता है;
छात्रों को मेढ़क काटकर,
उसके अंगों की संचरना तो समझाई जाती है,
पर उसके खून का यह गुण,
पूरी तरह गुप्त रखा जाता है,
हमारी सरकार द्वारा;
तभी तो हमारा सरकारी तंत्र,
युवा आत्माओं को,
भ्रष्टाचार की धीमी आँच से,
उबालकर मारने में,
इतना सफल है;
कुछेक खुशकिस्मत आत्माएँ ही,
इस साजिश को समझ पाती हैं,
और इससे लड़ने की कोशिश करती हैं,
पर इस गर्म हो रहे पानी से,
लड़ने का कोई फ़ायदा नहीं होता,
इस पर लगे घाव,
पल भर में भर जाते हैं,
और लड़ने वाले आखिर में,
थक कर डूब जाते हैं,
और खत्म हो जाते हैं;
एकाध आत्मा ही,
छलाँग लगाकर,
इससे बाहर निकल पाती है;
नहीं तो आप ही बताइये,
इस देश में किरन बेदी जैसी,
और आत्माएँ क्यों नहीं हैं?
उबलते हुए पानी में डाल दिया जाय,
तो वह उछल कर बाहर आ जाता है;
मगर यदि उसे डाला जाय,
धीरे धीरे गर्म हो रहे पानी में,
तो उसका दिमाग,
उस गर्मी को सह लेता है,
और मेढ़क उबल कर मर जाता है;
छात्रों को मेढ़क काटकर,
उसके अंगों की संचरना तो समझाई जाती है,
पर उसके खून का यह गुण,
पूरी तरह गुप्त रखा जाता है,
हमारी सरकार द्वारा;
तभी तो हमारा सरकारी तंत्र,
युवा आत्माओं को,
भ्रष्टाचार की धीमी आँच से,
उबालकर मारने में,
इतना सफल है;
कुछेक खुशकिस्मत आत्माएँ ही,
इस साजिश को समझ पाती हैं,
और इससे लड़ने की कोशिश करती हैं,
पर इस गर्म हो रहे पानी से,
लड़ने का कोई फ़ायदा नहीं होता,
इस पर लगे घाव,
पल भर में भर जाते हैं,
और लड़ने वाले आखिर में,
थक कर डूब जाते हैं,
और खत्म हो जाते हैं;
एकाध आत्मा ही,
छलाँग लगाकर,
इससे बाहर निकल पाती है;
नहीं तो आप ही बताइये,
इस देश में किरन बेदी जैसी,
और आत्माएँ क्यों नहीं हैं?
सोमवार, 16 अगस्त 2010
पाप - पुण्य
गंगा नदी के किनारे खड़े होकर,
एक बुढ़िया ने एक रूपये का सिक्का,
नदी में उछाला,
उसके विश्वासों के अनुसार,
उसने गंगा की गोद में पैसे बोए,
इसका फल उसे आने वाले वक्त में मिलेगा,
एक रूपये के बदले ढेर सारे रूपये मिलेंगे।
वह सिक्का नदी में गिरते पाकर,
एक लड़का उसे निकालने नदी में कूदा,
लड़के के लिए यह रोजमर्रा का काम था,
ऐसे ही उसकी जीविका चलती थी,
सिक्के निकालकर,
पर इस बार उसने डुबकी लगाई,
तो वो बाहर नहीं आया।
बेचारी बुढ़िया,
अब यह समझ ही नहीं पा रही थी,
कि उसने पूण्य किया,
या लड़के की मौत का कारण बनकर,
पाप किया;
वह खुद को कोस रही थी,
कि उसने सिक्का इतनी जोर से क्यों फेंका,
किनारे ही फेंक देती;
अब न जाने भविष्य में उसे,
पूण्य का फल मिलेगा,
या पाप का दण्ड।
एक बुढ़िया ने एक रूपये का सिक्का,
नदी में उछाला,
उसके विश्वासों के अनुसार,
उसने गंगा की गोद में पैसे बोए,
इसका फल उसे आने वाले वक्त में मिलेगा,
एक रूपये के बदले ढेर सारे रूपये मिलेंगे।
वह सिक्का नदी में गिरते पाकर,
एक लड़का उसे निकालने नदी में कूदा,
लड़के के लिए यह रोजमर्रा का काम था,
ऐसे ही उसकी जीविका चलती थी,
सिक्के निकालकर,
पर इस बार उसने डुबकी लगाई,
तो वो बाहर नहीं आया।
बेचारी बुढ़िया,
अब यह समझ ही नहीं पा रही थी,
कि उसने पूण्य किया,
या लड़के की मौत का कारण बनकर,
पाप किया;
वह खुद को कोस रही थी,
कि उसने सिक्का इतनी जोर से क्यों फेंका,
किनारे ही फेंक देती;
अब न जाने भविष्य में उसे,
पूण्य का फल मिलेगा,
या पाप का दण्ड।
रविवार, 15 अगस्त 2010
अधूरी कविता
डायरी के पन्नों में पड़ी एक अधूरी कविता,
अक्सर पूछती है मुझसे,
मुझे कब पूरा करोगे?
कभी कभी कलम उठाता हूँ,
पर आसपास का माहौल देखकर डर जाता हूँ,
अगर मैं इस कविता को पूरी कर दूँगा,
तो लोग इसे फाँसी पर लटका देंगे;
ये अधूरी कविता,
मेरी डायरी में ही पड़ी रहे तो अच्छा है,
मेरी डायरी में घुट घुट कर ही सही,
कम से कम अपनी जिंदगी तो जी लेगी,
और मैं पूरी करने के बहाने,
कभी कभी इसे देख लिया करूँगा,
जी भर कर।
अक्सर पूछती है मुझसे,
मुझे कब पूरा करोगे?
कभी कभी कलम उठाता हूँ,
पर आसपास का माहौल देखकर डर जाता हूँ,
अगर मैं इस कविता को पूरी कर दूँगा,
तो लोग इसे फाँसी पर लटका देंगे;
ये अधूरी कविता,
मेरी डायरी में ही पड़ी रहे तो अच्छा है,
मेरी डायरी में घुट घुट कर ही सही,
कम से कम अपनी जिंदगी तो जी लेगी,
और मैं पूरी करने के बहाने,
कभी कभी इसे देख लिया करूँगा,
जी भर कर।
शनिवार, 14 अगस्त 2010
चिम्पांजी
चिम्पांजी जैसे जैसे विकसित होता गया,
उसने कपड़े पहनने शुरू किए,
वो झुण्डों में रहने लगा,
वो ईश्वर से डरने लगा,
मुक्त यौनसम्बन्धों को छोड़कर विवाह करने लगा,
उसके शरीर से बाल कम होते गए,
और चिम्पांजी मनुष्य बन गया।
आजकल के छोटे होते कपड़ों,
टूटते परिवार, बढ़ता अकेलापन,
ईश्वर का घटता हुआ डर,
लगातार बढ़ते हुए उन्मुक्त यौनसम्बन्ध,
और ब्यूटी पार्लरों में बढ़ती हुई भीड़ को देखकर,
कभी कभी मुझे डर लगने लगता है,
कहीं हम फिर से चिम्पांजी तो नहीं बनते जा रहे हैं?
उसने कपड़े पहनने शुरू किए,
वो झुण्डों में रहने लगा,
वो ईश्वर से डरने लगा,
मुक्त यौनसम्बन्धों को छोड़कर विवाह करने लगा,
उसके शरीर से बाल कम होते गए,
और चिम्पांजी मनुष्य बन गया।
आजकल के छोटे होते कपड़ों,
टूटते परिवार, बढ़ता अकेलापन,
ईश्वर का घटता हुआ डर,
लगातार बढ़ते हुए उन्मुक्त यौनसम्बन्ध,
और ब्यूटी पार्लरों में बढ़ती हुई भीड़ को देखकर,
कभी कभी मुझे डर लगने लगता है,
कहीं हम फिर से चिम्पांजी तो नहीं बनते जा रहे हैं?
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