इस मौसम में हरदम मेरा दिल जलता रहता है।
पाँव तुम्हारा चूम चूम कर
धान मुँआँ पकता है
छूकर तेरी कमर
बाजरा लहराता फिरता है
तेरे बालों से मक्का
रेशम चोरी करता है
तेरा अधर चूमने को,
गन्ना रस से भरता है;
सरपत पकड़ दुपट्टा तेरा खींचतान करता है।
बारिश ने जबरन तेरा
यह कोमल गात छुआ है
उस पर मेरा गुस्सा
अब तक ठंढा नहीं हुआ है
तिस पर जाड़ा मेरा
दुश्मन बन आने वाला है
तुझको कंबल से ढक
घर में बिठलाने वाला है;
इतने दिन बिन देखे मर जाऊँगा ये लगता है।
कबसे सोच रहा था अबके
क्वार तुझे मैं ब्याहूँ
तेरे तन के फूलों में निज
मन की महक मिलाऊँ
नन्हीं नन्हीं कलियों से
घर, आँगन, बाग सजाऊँ
पर पत्थर-दिल पागल
आदमखोरों से डर जाऊँ
गए दशहरे कई जाति का रावण ना मरता है।
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
शुक्रवार, 19 नवंबर 2010
बुधवार, 17 नवंबर 2010
बस इतना अधिकार मुझे दो
नहीं चाहता साथ तुम्हारे
नाचूँ, गाऊँ, झूमूँ, घूमूँ
नहीं चाहता तुमको देखूँ,
छूँलूँ, कसलूँ या फिर चूमूँ
नहीं चाहता तुम अपना जीवन
दो या फिर प्यार मुझे दो
अंत समय चंदन बन जाऊँ
बस इतना अधिकार मुझे दो
नाचूँ, गाऊँ, झूमूँ, घूमूँ
नहीं चाहता तुमको देखूँ,
छूँलूँ, कसलूँ या फिर चूमूँ
नहीं चाहता तुम अपना जीवन
दो या फिर प्यार मुझे दो
अंत समय चंदन बन जाऊँ
बस इतना अधिकार मुझे दो
मंगलवार, 16 नवंबर 2010
भारत माँ का घर जर्जर है सब मिल पुनः बनाएँ
भारत माँ का घर जर्जर है सब मिल पुनः बनाएँ
सेवा के कुछ फूलों में हम मन की महक मिलाएँ
बेघर करके बेचारों को
बीत रही बरसात
दबे पाँव जाड़ा आता है
करने उनपर घात
कम से कम हम एक ईंट इक वस्त्र उन्हें दे आएँ
हुए अधमरे अधनंगे जो उनके प्राण बचाएँ
मंदिर मस्जिद जो भी टूटा
टूटीं भारत माँ ही
चाहे जिसका सर फूटा हो
रोई तो ममता ही
मंदिर एक हाथ से दूजे से मस्जिद बनवाएँ
अब तक लहू बहाया हमने अब मिल स्वेद बहाएँ
सेवा के कुछ फूलों में हम मन की महक मिलाएँ
बेघर करके बेचारों को
बीत रही बरसात
दबे पाँव जाड़ा आता है
करने उनपर घात
कम से कम हम एक ईंट इक वस्त्र उन्हें दे आएँ
हुए अधमरे अधनंगे जो उनके प्राण बचाएँ
मंदिर मस्जिद जो भी टूटा
टूटीं भारत माँ ही
चाहे जिसका सर फूटा हो
रोई तो ममता ही
मंदिर एक हाथ से दूजे से मस्जिद बनवाएँ
अब तक लहू बहाया हमने अब मिल स्वेद बहाएँ
शनिवार, 6 नवंबर 2010
पाँच दोहे तेल पर
तन मन जलकर तेल का, आया सबके काम।
दीपक बाती का हुआ, सारे जग में नाम॥
तन जलकर काजल बना, मन जल बना प्रकाश।
ऐसा त्यागी तेल सा, मैं भी होता काश॥
बाती में ही समाकर, जलता जाए तेल।
करे प्रकाशित जगत को, दोनों का यह मेल॥
पीतल, चाँदी, स्वर्ण के दीप करें अभिमान।
तेल और बाती मगर, सबमें एक समान॥
देख तेल के त्याग को, बाती भी जल जाय।
दीपक धोखा देत है, तम को तले छुपाय॥
दीपक बाती का हुआ, सारे जग में नाम॥
तन जलकर काजल बना, मन जल बना प्रकाश।
ऐसा त्यागी तेल सा, मैं भी होता काश॥
बाती में ही समाकर, जलता जाए तेल।
करे प्रकाशित जगत को, दोनों का यह मेल॥
पीतल, चाँदी, स्वर्ण के दीप करें अभिमान।
तेल और बाती मगर, सबमें एक समान॥
देख तेल के त्याग को, बाती भी जल जाय।
दीपक धोखा देत है, तम को तले छुपाय॥
शुक्रवार, 5 नवंबर 2010
बूढ़ा घर और दीपावाली
गाँव का बूढ़ा घर
जर्जर
जीवन की कुछेक आखिरी साँसें
ले रहा है
रोज गिनता है
दीपावाली आने में
बचे हुए दिन
अब तो दीपावली में ही
आते हैं
उसके आँगन में खेलकर
बड़े हुए बच्चे
अपने पुश्तैनी घर में
दीपक जलाने
ताकि उस घर पर उनका हक
बना रहे
और बूढ़ा घर
किसी बेघर को आश्रय न दे दे।
जर्जर
जीवन की कुछेक आखिरी साँसें
ले रहा है
रोज गिनता है
दीपावाली आने में
बचे हुए दिन
अब तो दीपावली में ही
आते हैं
उसके आँगन में खेलकर
बड़े हुए बच्चे
अपने पुश्तैनी घर में
दीपक जलाने
ताकि उस घर पर उनका हक
बना रहे
और बूढ़ा घर
किसी बेघर को आश्रय न दे दे।
गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010
माँ
बच्चा जब माँ को रोते देखता है
तो बच्चा भी
उसके दुख से दुखी होकर रोता है,
बच्चे के लिए माँ का दुख ही सबसे बड़ा दुख है,
इसके आगे वो कुछ सोच समझ नहीं सकता।
बड़ा होने पर जब बच्चा
दुखी होकर रोता है,
तो माँ भी उसके दुख से दुखी होकर रोती है;
बच्चे के दुख के आगे
माँ भी कुछ सोच समझ नहीं पाती;
छोटे बच्चे की तरह।
तो बच्चा भी
उसके दुख से दुखी होकर रोता है,
बच्चे के लिए माँ का दुख ही सबसे बड़ा दुख है,
इसके आगे वो कुछ सोच समझ नहीं सकता।
बड़ा होने पर जब बच्चा
दुखी होकर रोता है,
तो माँ भी उसके दुख से दुखी होकर रोती है;
बच्चे के दुख के आगे
माँ भी कुछ सोच समझ नहीं पाती;
छोटे बच्चे की तरह।
सोमवार, 25 अक्तूबर 2010
जिंदगी की दौड़
जो पीते थे
वो पिलाकर
जो खाते थे
वो खिलाकर
जो चोर थे
वो चुराकर
जो तेल लगाते थे
वो तेल लगाकर
जो चालू थे
वो सबको बेवकूफ बनाकर
जिंदगी की दौड़ में आगे निकल गए
और धनवान बन गए
जिनको इनमें से कुछ भी नहीं आता था
वो जिंदगी की दौड़ में बहुत पीछे रह गए
और इंसान बन गए।
वो पिलाकर
जो खाते थे
वो खिलाकर
जो चोर थे
वो चुराकर
जो तेल लगाते थे
वो तेल लगाकर
जो चालू थे
वो सबको बेवकूफ बनाकर
जिंदगी की दौड़ में आगे निकल गए
और धनवान बन गए
जिनको इनमें से कुछ भी नहीं आता था
वो जिंदगी की दौड़ में बहुत पीछे रह गए
और इंसान बन गए।
रविवार, 24 अक्तूबर 2010
आँवले जैसी हो तुम
आँवले जैसी हो तुम
जब तक पास रहती हो
खटास बनी रहती है
पर जब चली जाती हो
और मै संग संग बिताए
पलों की याद का पानी पीता हूँ
तो धीरे धीरे मीठास घुलने लगती है
उन पलों की
मेरे मुँह में
मेरे तन में
मेरे मन में
मेरे जीवन में।
जब तक पास रहती हो
खटास बनी रहती है
पर जब चली जाती हो
और मै संग संग बिताए
पलों की याद का पानी पीता हूँ
तो धीरे धीरे मीठास घुलने लगती है
उन पलों की
मेरे मुँह में
मेरे तन में
मेरे मन में
मेरे जीवन में।
शनिवार, 23 अक्तूबर 2010
सूर्य और सुबह
जवान होता सूरज
जब अपना जादुई रंग रूप
नवयौवना
सुबह को दिखलाता है
तो सुबह शर्म से लाल होकर
उसके मोहपाश में बँधी
खिंचती चली जाती है
और दोनों के प्राण
एक दूसरे में मिल जाते हैं
इस मिलन से सृष्टि होती है दिन की
दिन के प्रकाश से ही धरती पर जीवन चलता है
और इस तरह
सृष्टि के कण कण में
सूर्य और सुबह के
अमर प्रेम की ऊर्जा से
जीवन पलता है।
जब अपना जादुई रंग रूप
नवयौवना
सुबह को दिखलाता है
तो सुबह शर्म से लाल होकर
उसके मोहपाश में बँधी
खिंचती चली जाती है
और दोनों के प्राण
एक दूसरे में मिल जाते हैं
इस मिलन से सृष्टि होती है दिन की
दिन के प्रकाश से ही धरती पर जीवन चलता है
और इस तरह
सृष्टि के कण कण में
सूर्य और सुबह के
अमर प्रेम की ऊर्जा से
जीवन पलता है।
गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010
सुहाग की निशानियाँ
सुहाग की निशानियाँ
याद दिलाती रहतीं हैं
नववधू को उसके पति की,
इन निशानियों को उसे हमेशा पहनना पड़ता है
धीरे धीरे वो इन निशानियों की आदी हो जाती है
और उसे ध्यान भी नहीं रहता
कि उसने ये निशानियाँ भी पहनी हुई हैं;
एक दिन अचानक जब उसका सुहाग
परलोक सिधार जाता है
तब उसे वो सारी निशानियाँ उतारनी पड़ती हैं
ताकि उनकी अनुपस्थिति उसे पति की याद दिलाती रहे
मरते दम तक;
पुरुषों के लिए ऐसा कुछ भी नहीं है,
वाह रे पुरुषों के बनाए रिवाज,
वाह!
याद दिलाती रहतीं हैं
नववधू को उसके पति की,
इन निशानियों को उसे हमेशा पहनना पड़ता है
धीरे धीरे वो इन निशानियों की आदी हो जाती है
और उसे ध्यान भी नहीं रहता
कि उसने ये निशानियाँ भी पहनी हुई हैं;
एक दिन अचानक जब उसका सुहाग
परलोक सिधार जाता है
तब उसे वो सारी निशानियाँ उतारनी पड़ती हैं
ताकि उनकी अनुपस्थिति उसे पति की याद दिलाती रहे
मरते दम तक;
पुरुषों के लिए ऐसा कुछ भी नहीं है,
वाह रे पुरुषों के बनाए रिवाज,
वाह!
सदस्यता लें
संदेश (Atom)