रविवार, 5 जून 2011

कविता : विद्रोह

विरोध कायम रहे
इसके लिए जरूरी है
कि कायम रहे
अणुओं का कंपन

अणुओं का कंपन कायम रहे
इसके लिए जरूरी है
विद्रोह का तापमान

वरना ठंढा होते होते
हर पदार्थ
अंततः विरोध करना बंद कर देता है
और बन जाता है अतिचालक

उसके बाद
मनमर्जी से बहती है बिजली
बिना कोई नुकसान झेले
अनंत काल तक

शुक्रवार, 3 जून 2011

कविता: इंद्रियाँ और दिमाग़

इंद्रियाँ तो कठपुतलियाँ हैं
सबसे ऊपर बैठे दिमाग़ की
उसी के इशारों पर नाचती हैं
इंद्रियों को तो पता भी नहीं होता
कि वो आखिर कर क्या रही हैं
आवश्यकता से अधिक सुख सुविधाएँ
जिन्हें वो गलत तरीके से इकट्ठा कर रही हैं
उन्हें या तो निकम्मा बना देंगी
या रोगी
और अगर पकड़ी गईं
तो सारी सजा मिलेगी इंद्रियों को
बलि की बकरियाँ हैं इंद्रियाँ।

इंद्रियाँ करें भी तो क्या करें
आदिकाल से
नियम ही ऐसे बनते आये हैं
जिससे सारी सजा इंद्रियों को ही मिले,
हर देवता, हर महात्मा ने
हमेशा यही कहा है
कि इंद्रियों पर नियंत्रण रखो
दिमाग़ की तरफ़ तो
कभी भूल कर भी उँगली नहीं उठाई गई
कैसे उठाई जाती
उँगली भी तो आखिरकार
दिमाग़ के नियंत्रण में थी।

मगर कलियुग आने का
पुराने नियमों से विश्वास उठने का
एक फायदा तो हुआ है
अब यदा कदा कोई कोई उँगली
दिमाग़ की तरफ भी उठने लगी है,
ज्यादातर तो तोड़ दी जाती हैं
या जहर फैल जाएगा कहकर काट दी जाती हैं
मगर क्या करे दिमाग़
अनिश्चितता का सिद्धांत तो वो भी नहीं बदल सकता
कि उठने वाली हर उँगली तोड़ी नहीं जा सकती,
कोई न कोई उँगली बची रह ही जाएगी
तथा उस उँगली की सफलता को देखकर
उसके साथ और भी उँगलियाँ उठ खड़ी होंगी,
अन्ततः दिमाग को
उँगलियों की सम्मिलित शक्ति के सामने
सर झुकाना ही पड़ेगा
अपनी असीमित शक्ति का दुरुपयोग
रोकना ही पड़ेगा।

सोमवार, 30 मई 2011

कविता : बड़ी अजीब हैं तुम्हारी यादें

बड़ी अजीब हैं तुम्हारी यादें

दिमाग के थोड़े से आयतन में
छुपकर बैठी रहती हैं
तुम्हारी ठोस यादें

बस अकेलेपन की गर्मी मिलने की देर है
बढ़ने लगता है इनके अणुओं का आयाम
और ये द्रव बनकर बाहर निकलने लग जाती हैं

धीरे धीरे
जैसे जैसे
बढ़ती है अकेलेपन की गर्मी
ये गैस का रूप धारण कर लेती हैं
और भर जाती हैं दिमाग के पूरे आयतन में
अपना दबाव धीरे धीरे बढ़ाते हुए

एक दिन ऐसा भी आएगा
जब अकेलेपन की गर्मी इतनी बढ़ जाएगी
कि दिमाग की दीवारें
इन गैसों का दबाव सह नहीं पाएँगी
और ये गैसें
दिमाग की दीवारों को फाड़कर बाहर निकल जाएँगी

उस दिन तुम्हारी यादों को
मुक्ति मिल जाएगी
और मुझे शांति
मगर ये दुनिया कहेगी
कि मैं तुम्हारे प्यार में पागल हो गया।

सोमवार, 23 मई 2011

ग़ज़ल : सूरज उगते ही सारी यादें सो जाती हैं

चंदा तारे बन रातों में नभ को जाती हैं।
सूरज उगते ही सारी यादें सो जाती हैं।

आँखों में जब तक बूँदें तब तक इनका हिस्सा,
निकलें तो खारा पानी बनकर खो जाती हैं।

सागर की करतूतें बादल तट पर लिख जाते,
लहरें आकर पल भर में सबकुछ धो जाती हैं।

भिन्न उजाले में लगती हैं यूँ तो सब शक्लें,
किंतु अँधेरे में जाकर इक सी हो जाती हैं।

हवा सुगंधित हो जाये कितना भी पर ‘सज्जन’,
मीन सभी मरतीं जल से बाहर जो जाती हैं।

मंगलवार, 17 मई 2011

कविता : हम-तुम

हम-तुम
जैसे सरिया और कंक्रीट
दिन भर मैं दफ़्तर का तनाव झेलता हूँ
और तुम घर चलाने का दबाव

इस तरह हम झेलते हैं
जीवन का बोझ
साझा करके

किसी का बोझ कम नहीं है
न मेरा न तुम्हारा

झेल लेंगें हम
आँधी, बारिश, धूप, भूकंप, तूफ़ान
अगर यूँ ही बने रहेंगे
इक दूजे का सहारा

शनिवार, 14 मई 2011

ग़ज़ल: मेरी किस्मत में है तेरा प्यार नहीं

मेरी किस्मत में है तेरा प्यार नहीं
तेरी नफ़रत किंतु मुझे स्वीकार नहीं

दिल में बनकर चोट बसी जो तू मेरे
निकली फिर क्यूँ बन आँसू की धार नहीं

तुझसे होकर दूर मरा तो कबका मैं
रूह मगर क्यूँ जाने को तैयार नहीं

तुझको नफ़रत के बदले में नफ़रत दूँ
मान यकीं मैं इतना भी खुद्दार नहीं

जान मिरी हाजिर है तेरी खिदमत में
आता मुझ पर तेरा क्यूँ एतबार नहीं

मंगलवार, 10 मई 2011

प्यार की वैज्ञानिक व्याख्या

क्या?
प्यार की वैज्ञानिक व्याख्या चाहिए
तो सुनो
ब्रह्मांड का हर कण
तरंग जैसा भी व्यवहार करता है
और उसकी तरंग का कुछ अंश
भले ही वह नगण्य हो
ब्रह्मांड के कोने कोने तक फैला होता है

आकर्षण और कुछ नहीं
इन्हीं तरंगों का व्यतिकरण है
और जब कभी इन तरंगों की आवृत्तियाँ
एक जैसी हो जाती हैं
तो तन और मन के कम्पनों का आयाम
इतना बढ़ जाता है
कि आत्मा तक झंकृत हो उठती है
इस क्रिया को विज्ञान अनुनाद कहता हैं
और आम इंसान
प्यार

इसलिए अगर सच्चा प्यार चाहिए
तो शरीर नहीं
आवृत्ति मिलाने की कोशिश करो
मगर यह काम
जितना आसान दिखता है
उतना है नहीं
क्योंकि हो सकता है
कि जिससे तुम्हारी तरंगों की आवृत्ति मिले
वो पत्थर हो, पेड़ हो
अथवा
वो इस धरती पर हो ही नहीं

सोमवार, 9 मई 2011

ग़ज़ल : चिड़िया की जाँ लेने में इक दाना लगता है

चिड़िया की जाँ लेने में इक दाना लगता है
पालन कर के देखो एक जमाना लगता है ॥१॥

अंधों की सरकार बनी तो उनका राजा भी
आँखों वाला होकर सबको काना लगता है ॥२॥

जय जय के नारों ने अब तक कर्म किए ऐसे
हर जयकारा अब ईश्वर पर ताना लगता है ॥३॥

कुछ भी पूछो इक सा बतलाते सब नाम पता
तेरा कूचा मुझको पागलखाना लगता है ॥४॥

दूर बजें जो ढोल सभी को लगते हैं अच्छे
गाँवों का रोना दिल्ली को गाना लगता है ॥५॥

कल तक झोपड़ियों के दीप बुझाने का मुजरिम
सत्ता पाने पर अब वो परवाना लगता है ॥६॥

टूटेंगें विश्वास कली से मत पूछो कैसा
यौवन देवों को देकर मुरझाना लगता है ॥७॥

जाँच समितियों से करवाकर कुछ ना पाओगे
उसके घर में शाम सबेरे थाना लगता है॥८॥

रविवार, 8 मई 2011

मातृ-दिवस पर एक ग़ज़ल

आज मातृ-दिवस है, तो इस अवसर पर प्रस्तुत है एक ग़ज़ल

ठंढे बादल सी ममता, कब बरसात नहीं होती?
माँ का दिल ऐसी धरती, जिस पर रात नहीं होती ॥१॥

छप्पन भोगों से लगते, सूखी रोटी, तेल, नमक
दूजा अमृत भी धर दे, माँ सी बात नहीं होती ॥२॥

दानव से जब जब हारे, इंसाँ बन ईश्वर जन्मे
पा ली माँ की पाक दुआ, जिससे मात नहीं होती ॥३॥

हम इंसानों ने माँ को, कितना कष्ट दिया लेकिन
शैताँ कोशिश कर हारा, माँ पर घात नहीं होती ॥४॥

नाम पिता दे, शौहर दे, लेकिन फूल, दुआ, बारिश,
शीतल झोंका, छाया, माँ, इनकी जात नहीं होती ॥५॥

रविवार, 1 मई 2011

ग़ज़ल :पर खुशी से फड़फड़ाते आज सारे गिद्ध देखो

पर खुशी से फड़फड़ाते आज सारे गिद्ध देखो
फिर से उड़के दिल्ली जाते आज सारे गिद्ध देखो ॥१॥

रोज रोज खा रहे हैं नोच नोच भारती को
हड्डियों से घी बनाते आज सारे गिद्ध देखो ॥२॥

श्वान को सियासती गली के द्वार पे बिठाके
गर्म गोश्त मिल के खाते आज सारे गिद्ध देखो ॥३॥

आसमान से अकाल-बाढ़ देखते हैं और
लाशों का कफ़न चुराते आज सारे गिद्ध देखो ॥४॥

जल रहा चमन हवा में उड़ रहे हैं खाल, खून
इनकी दावतें उड़ाते आज सारे गिद्ध देखो ॥५॥