बुधवार, 27 जुलाई 2011

कविता : हम तुम और ईश्वर

तब
जब सारे आयाम एक बिंदु मात्र थे
समय भी

तब
जब सृष्टि में केवल और केवल घनीभूत ऊर्जा थी

तब भी
जब इस बिंदु का विस्तार होना शुरू हुआ
और समय ने चलना सीखा

तब भी
जब इस अनंततम सूक्ष्म आयतन में
उपस्थित अनंत अनिश्चितताओं ने
ऊर्जा के गुच्छे बनाने शुरू किए

तब भी
जब इन गुच्छों ने घनीभूत होकर
मूलकण बनाने शुरू किए

तब भी
जब मूलकणों ने मिलकर विभिन्न परमाणु बनाए

तब भी
जब इन परमाणुओं ने गुरुत्वाकर्षण के कारण
इकट्ठा होकर प्रारम्भिक गैसों के बादल बनाने शुरू किए

तब भी
जब गुरुत्व से सिकुड़ने के कारण इन गैसों का तापमान बढ़ा
और तारे बने

तब भी
जब दो तारे पास से गुजरे
और उनके आकर्षण से
कुछ द्रव्य इधर उधर बिखरने से ग्रह बने

तब भी
जब एक ग्रह के ठंढ़े होने पर
हाइड्रोजन और आक्सीजन ने मिलकर पानी बनाया

तब भी
जब इस पानी में जीवन पनपा

तब भी
जब जीवन की जटिलता ने बढ़कर मानव बनाया

तब तक
जब तक तुम्हारे और मेरे माता-पिता धरती पर नहीं आए
हम एक थे
और खोए हुए थे इस महामिलन के महाआनंद में

पर ईश्वर कैसे यह बर्दाश्त करता
कि उसके अलावा किसी और को
परमानंद की प्राप्ति हो

बस हमारे तुम्हारे परमाणु
एक एक करके अलग होने लगे
और बनाने लगे दो अलग अलग मानव शरीर

क्या करूँ?
कैसे समझाऊँ लोगों को?
कि जिसे वो दो अलग अलग शरीर कहते हैं
वो केवल दो अलग अलग गुच्छे हैं परमाणुओं के
और उन गुच्छों का
हर परमाणु चाहता है अपने साथी से जुड़ जाना

सांसारिक संबंधों से
हमारे अरबवें हिस्से के परमाणु भी
शायद ही स्पर्श कर पाएँ
एक दूसरे को

बहुत बड़ी सजा है ये मानव होना
जिससे मरने के बाद भी मुक्ति नहीं मिलती
क्योंकि बच्चों के रूप में हमारे कुछ परमाणु
इंसानी रूप में बचे रह जाते हैं
और दुबारा मिलने के लिए करना पड़ता है
समय द्वारा
एक पूरे वंश को मिटाने का इंतजार

शायद इसीलिए हमारे धर्मग्रंथों में
ईश्वर को दंड देने के लिए
उसे मानव बनने का श्राप दिया गया है

शायद इसीलिए
बढ़ते उन्मुक्त संबंधों के
इस युग में अब तक
ईश्वर की हिम्मत नहीं हुई
मानव बनकर जन्म लेने की

शनिवार, 23 जुलाई 2011

ग़ज़ल : लाश तेरे वादों की मैं न छोड़ पाता हूँ

बह्र : २१२ १२२२ २१२ १२२२

लाश तेरे वादों की मैं न छोड़ पाता हूँ
रोज़ दफ़्न करता हूँ रोज़ खोद लाता हूँ

क्या कमी रहे तुझ बिन ईंट और गारे में
रोज़ घर बनाता हूँ रोज़ ही गिराता हूँ

है तू ही ख़ुदा मेरा तू ही मेरा कातिल है
रोज़ सर झुकाता हूँ रोज़ सर कटाता हूँ

इस नगर में तुझसे ज़्यादा हसीन हैं लाखों
रोज़ याद करता हूँ रोज़ भूल जाता हूँ

दर्द, रंज, तनहाई, अश्क, तंज, रुसवाई
रोज़ मैं कमाता हूँ रोज़ ही उड़ाता हूँ


सोमवार, 18 जुलाई 2011

कविता : खहर

मुझे लगा
वो क्या अहमियत रखता है मेरे लिए
मैं इतना विशाल
और वो
मात्र एक अदना सा शून्य
और मैंने स्वयं को उससे विभाजित कर लिया

परिणाम?
‘खहर’ हो गया हूँ मैं
मुझमें
कुछ भी जोड़ो
कुछ भी घटाओ
कितने से भी गुणा करो
कितने से भी भाग दो
कोई फर्क नहीं पड़ता

अब मैं एक अनिश्चित संख्या हूँ
भटक रहा हूँ
अनंत के आसपास कहीं

बुधवार, 6 जुलाई 2011

ग़ज़ल : मुहब्बत जो गंगा लहर हो गई

मुहब्बत जो गंगा-लहर हो गई
वो काशी की जैसे सहर हो गई

लगा वक्त इतना तुम्हें राह में
दवा आते आते जहर हो गई

लुटी एक चंचल नदी बाँध से
तो वो सीधी सादी नहर हो गई

चला सारा दिन दूसरों के लिए
जरा सा रुका दोपहर हो गई

समंदर के दिल ने सहा जलजला
तटों पर सुनामी कहर हो गई

जमीं एक अल्हड़ चली गाँव से
शहर ने छुआ तो शहर हो गई

तुझे देख जल भुन गई यूँ ग़ज़ल
हिले हर्फ़ सब, बेबहर हो गई

सोमवार, 4 जुलाई 2011

कविता : मुक्त इलेक्ट्रॉन

ज्यादातर पदार्थों के
ज्यादातर इलेक्ट्रान
पहले से ही नियत कक्षाओं में
नाभिक के इर्द गिर्द
घूमते घूमते
अपनी सारी जिंदगी बिता देते हैं

पर कुछ पदार्थों के
कुछ इलेक्ट्रान ऐसे भी होते हैं
जो नाभिक के आकर्षण से हारकर
लकीर का फकीर बनने के बजाय
खोज करते हैं नए रास्तों की
पसंद करते हैं संघर्ष करना
धारा के विरुद्ध बहना
इन्हें कहा जाता है ‘मुक्त इलेक्ट्रॉन’

ऐसे ही इलेक्ट्रान पैदा कर पाते हैं विद्युत ऊर्जा
जो अंधकार को करती है रौशन
जिससे फलती फूलती हैं
नई सभ्यताएँ
और प्रगति करती है मानवता

गुरुवार, 30 जून 2011

कविता : काश मैं जीत पाता

काश मैं गोड़ पाता
दिमाग के उन ऊपजाऊ कोनों को
जहाँ हमेशा खर-पतवार ही उगता है

काश मैं सींच पाता
दिमाग के उस रेगिस्तान को
जहाँ सिर्फ बबूल ही उगता है

काश मैं जीत पाता
दिमाग के अँधेरे कोने में बसे
उस राक्षस से
जो सामने आते ही
आधी ताकत ले लेता है
और मेरी ही ताकत से
मुझे हरा कर अपना गुलाम बना लेता है

काश मैं जीत पाता!
काश इंसान जीत पाता!

रविवार, 26 जून 2011

ग़ज़ल : जिंदा मुर्दों को जरा राह दिखाई जाए

जिंदा मुर्दों को जरा राह दिखाई जाए
आज कंधों पे कोई लाश उठाई जाए

चाँद के दिल में जरा आग लगाई जाए
आओ सूरज से कोई रात बचाई जाए

आज फिर नाज़ हो आया है ख़ुदी पे मुझको
आज खुद से भी जरा आँख मिलाई जाए

खोजते खोजते मिल जाए सुहाना बचपन
आज बहनों की कोई चीज छुपाई जाए

आज मस्जिद में न था रब मैं ढूँढ़कर हारा
आज मयखाने में फिर रात बिताई जाए

शुक्रवार, 24 जून 2011

कविता : माँ की गाली

कभी माँ थी मैं तुम्हारी
आज केवल
एक स्त्री देह रह गई
क्योंकि तुमने
गुस्से में ही सही
दूसरों को गाली देने के लिए ही सही
‘माँ’ शब्द को
अपशब्दों से जोड़कर
नए शब्दों को
पैदा करना सीख लिया है

शनिवार, 18 जून 2011

हास्य कविता: मैं यमलोक में

किसी जमाने में मैंने एक हास्य कविता लिखी थी। वही आज चिपका रहा हूँ। आनंद लीजिए।

एक रात मैं बिस्तर पर करवटें बदल रहा होता हूँ
तभी दो यमदूत आकर मुझे बतलाते हैं
‘चल उठ जा बेटे, तुझे यमराज बुलाते हैं’।
मैं तुरंत बोल पड़ता हूँ,
‘यारों मुझसे ऐसी क्या गलती हो गई है?
अभी तो मेरी उमर केवल तीस साल ही हुई है,
लोग कहते हैं मेरी किस्मत में दो शादियाँ लिखी गई हैं
और अभी तो पहली भी नई नई हुई है।
देखो अगर दस-बीस हजार में काम बनता हो तो बना लो,
और किसी को ले जाना इतना ही जरूरी हो,
तो शर्मा जी को उठा लो।’
वो बोले, ‘हमें पुलिस समझ रक्खा है क्या,
कि हम बेकसूरों को उठा ले जायेंगें,
और यमराज को,
अपने देश का अन्धा कानून मत समझ,
कि वो निर्दोष को भी फाँसी पे लटकायेंगें।”
मेरे बहुत गिड़गिड़ाने के बाद भी,
वो मुझे अपने साथ ले जाते हैं;
और थोड़ी देर बाद,
यमराज मुझे अपने सामने नजर आते हैं।
मुझे देखकर,
यमराज थोड़ा सा कसमसाते हैं और कहते हैं,
‘कोई एक पूण्य तो बता दे जो तूने किया है,
तेरे पापों की गणना करने में,
मेरे सुपर कम्यूटर को भी दस मिनट लगा है।’
मैं बोला, ‘क्या बात कर रहे हैं सर,
बिजली बनाना भी तो एक पूण्य का काम है
यमलोक के तैंतीस प्रतिशत बल्बों पर हमारा ही नाम है।’
यह सुनकर यमराज बोले, ‘हुम्म,
चल अच्छा तू ही बता दे
तू स्वर्ग जाएगा या नर्क जाएगा
मैं बोला प्रभो पहले ये बताइए कि ऐश, कैटरीना, बिपासा एटसेट्रा कहाँ जाएँगी
यमराज बोले, “बेटा, स्वर्ग में नारियों के लिए ५०% का आरक्षण है
उसका लाभ उठाते हुए वो स्वर्ग में जगह पाएँगीं।
अबे सुन,
सुना है तू कविताएँ भी लिखता है,
चल आज तो थोड़ा पूण्य कमा ले,
किसी ने आज तक मेरी स्तुति नहीं लिखी,
तू तो मेरी स्तुति रचकर मुझे सुना ले।”
फिर मैं शुरू करता हूँ यमराज को मक्खन लगाना,
और उनकी स्तुति में ये कविता सुनाना,
“इन्द्र जिमि जंभ पर, बाणव सुअंभ पर,
रावण सदंभ पर रघुकुलराज हैं,
तेज तम अंश पर, कान्ह जिमि कंश पर,
त्यों भैंसे की पीठ पर, देखो यमराज हैं।”
स्तुति सुनकर यमराज थोड़ा सा शर्माते हैं,
और मेरे पास आकर मुझे बतलाते हैं,
“यार ये तो मजाक चल रहा था,
अभी तेरी आयु पूरी नहीं हुई है,
तुझे हम यहाँ इसलिये लाए हैं, क्योंकि,
हमें एक यंग एण्ड डायनेमिक,
सिविल इंजीनियर की जरूरत आ पड़ी है।”
मैं बोला, “प्रभो मेरे डिपार्टमेन्ट में एक से एक,
यंग, डायनेमिक, इंटेलिजेंट, स्मार्ट, इक्सपीरिएंस्ड
सिविल इंजीनियर्स खड़े हैं।
आप हाथ मुँह धोकर मेरे ही पीछे क्यों पड़े हैं।”
वो बोले, “वत्स,
तेरा रेकमेण्डेसन लेटर बहुत ऊपर से आया है,
तुझे भगवान राम की स्पेशल रिक्वेस्ट पर बुलवाया है।”
मैं बोला, “अगर मैं हाइली रेकमेन्डेड हूँ,
तो मेरा और टाइम वेस्ट मत कीजिए,
औ मुझे यहाँ किसलिए बुलाया है फटाफट बता दीजिए।”
यह सुनकर यमराज बोले,
“क्या बताएँ वत्स,
कलियुग में पाप बहुत बढ़ते जा रहे हैं,
पिछले चालीस-पचास सालों से,
लोग नर्क में भीड़ बढ़ा रहे हैं,
दरअसल हम नर्क को,
थोड़ा एक्सपैंड करके उसकी कैपेसिटी बढ़ाना चाहते हैं,
इसलिए स्वर्ग का एक पार्ट,
डिमालिश करके वहाँ नर्क बनाना चाहते हैं।”
मैं बोला प्रभो
“इसमें सिविल इंजीनियर की क्या जरूरत है,
विश्व हिन्दू परिषद के कारसेवकों को बुला लीजिए,
या फिर लालू प्रसाद यादव को,
स्वर्ग का मुख्यमंत्री बना दीजिए,
मैं सिविल इंजीनियर हूँ,
मैं स्वर्ग को नर्क कैसे बना सकता हूँ,
हाँ अगर नर्क को स्वर्ग बनाना हो,
तो मैं अपनी सारी जिंदगी लगा सकता हूँ।”
मैं आगे बोला,
“प्रभो नर्क में सारे धर्मों के लोग आते होंगे,
क्या वो नर्क में,
पाकिस्तान बनाने की मांग नहीं उठाते होंगे।”
तो यमराज बोले, “वत्स पहले तो ऐसा नहीं था,
पर जब से आपके कुछ नेता नर्क में आए हैं,
अलग अलग धर्म बहुल क्षेत्रों को मिलाकर,
पाकनर्किस्तान बनाने की मांग लगातार उठाये हैं,
पर उनको ये पता नहीं है,
कि हम पाकनर्किस्तान कभी नहीं बनायेंगे,
नर्क तो पहले से ही इतना गन्दा है,
हम उसका स्टैण्डर्ड और नहीं गिराएँगे,
और ऐसा नर्क बनाने की जरूरत भी क्या है,
ऐसा नर्क तो हिन्दुस्तान की बगल में,
पहले से ही बना हुआ है।”
वो ये बता ही रहे थे कि तभी,
प्रभो श्री राम दौड़ते हुए आते हैं,
और आकर मेरे सामने खड़े हो जाते हैं,
मैं बोला, “प्रभो जब आपको ही आना था
तो धरती पर ही आ जाते,
मुझे यमलोक तो न बुलाते
और जब आ ही रहे थे, तो अकेले क्यों आये,
माता सीता को साथ क्यों नहीं लाए,
लव-कुश भी नहीं आये मैं गले किसे लगाऊँगा,
और लक्ष्मण जी व हनुमान जी को,
क्या मैं बुलाने जाऊँगा।”
यह सुनकर श्री राम बोले,
“मजाक अच्छा कर लेते हैं कविवर,
पर मेरी समस्या होती जा रही है बद से बदतर,
विश्व हिन्दू परिषद वाले मेरे पीछे पड़े हुए हैं,
मन्दिर वहीं बनायेंगे के सड़े हुए नारे पे अड़े हुए हैं,
पर वो ये नहीं समझते,
कि यदि हम मन्दिर वहाँ बनवायेंगे,
तो उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा,
मगर विश्व भर में लाखों बेकसूर मारे जाएँगे,
यार तुम तो कवि हो लगे हाथों कोई कल्पना कर ड़ालो,
और मेरी इस पर्वताकार समस्या को प्लीज हल कर डालो।”
मैं बोला, “प्रभो बस इतनी सी बात,
वहाँ एक सर्वधर्म पूजास्थल बनवा दीजिए,
और उसकी प्लानिंग मुझसे करा लीजिए,
एक बहुत बड़ी सफेद संगमरमर की,
मल्टीस्टोरी बिल्डिंग वहाँ बनवाइये,
और दुनिया में जितने भी धर्म हैं,
उतने कमरे उसमें लगवाइये,
और कमरों में क्या क्या हो ध्यान से सुन लीजिए,
किसी कमरे में बुद्ध मुस्कुराते हुए खड़े हों,
तो किसी कमरे में ईशा सूली पे चढ़े हों,
किसी में महावीर ध्यान लगा रहे हों,
तो किसी में खड़े नानक मुस्कुरा रहे हों,
किसी में पैगम्बर खड़े मन में कुछ गुन रहे हों,
तो किसी में कबीर कपड़े बुन रहे हों,
और जहाँ आप जन्मे थे वहाँ एक बड़ा सा हाल हो,
बहुत ही शान्त, स्वच्छ और सुरम्य वहाँ का माहौल हो,
बीच में एक झूले पर,
आपके बचपन की मनमोहिनी मूरत हो,
जो भी देखे देखता ही रह जाये,
कुछ ऐसी आपकी सूरत हो,
सारे धर्मों के हेड आफ डिपार्मेन्टस,
डीनस और डायरेक्टरस की मूर्तियाँ वहाँ पर लगी हों,
और जितनी मूर्तियाँ हों,
उतनी ही डोरियाँ आपके झूले से निकली हों,
सब के सब मिलकर आपको झूला झुला रहे हों,
और लोरी गा-गाकर सुला रहे हों,
उस मन्दिर में लोग कुछ लेकर नहीं,
बल्कि खाली हाथ जाएँ,
उसे देखें, सोचें, समझें, हँसे, रोयें
और शान्ति से वापस चले आएँ,
पर प्रभो मेरे देश के नेता अगर आपको ऐसा करने देंगें,
तो अगले लोकसभा चुनावों का मुद्दा वो कहाँ खोजेंगे।”
इतना सुनकर भगवन बोले,
“वत्स आपका आइडिया तो अच्छा है,
अतः अपने इस आइडिये के लिये,
कोई वरदान माँग लीजिए।”
मैं बोला, “प्रभो,
मेरी मात्र पाँच सौ पचपन पृष्ठों की एक कविता सुन लीजिए।”
फिर भगवन के ‘तथास्तु’ कहने पर,
मैंने सुनाना शुरु किया,
“कुर्सियाँ आकाश में उड़ने लगी हैं,
गायें चारागाह से मुड़ने लगी हैं,
लड़कियाँ बेबात के रोने लगी हैं,
भैंसें चारा खाके अब सोने लगी हैं,
कल मैंने था खा लिया इक मीठा पान,
देख लो हैं पक गये खेतों में धान।”
और तभी भगवान हो जाते हैं अन्तर्धान,
और होती है आकाशवाणी, “ये आकाशवाणी का विष्णुलोक केन्द्र है,
आपको सूचित किया जाता है, कि आपको दिया गया वरदान वापस ले लिया गया है,
और आपसे ये अनुरोध किया जाता है कि जितनी जल्दी हो सके यमलोक से निकल जाइये,
और दुबारा अपनी सूरत यहाँ मत दिखलाइये।”
यह सुनकर मैं यमराज से बोला, “मुझे वापस पृथ्वीलोक पहुँचा दीजिए।”
यमराज बोले, “कविवर, अपनी आँखें बन्द करके दो सेकेंड बाद खोल लीजिए।”
मैं आँखें खोलता हूँ तो देखता हूँ कि सूरज निकल आया है,
मेरे कमरे में कहीं धूप कहीं छाया है,
धड़ी सुबह के साढ़े आठ बजा रही है,
और जीएम साहब प्रोजेक्ट में ही हैं ये याद दिला रही हैं,
मैं सर झटककर पूरी तरह जागता हूँ,
और तौलिया लेकर बाथरूम की तरफ भागता हूँ,
रास्ते में मेरी समझ में आता है कि मैं सपना देख रहा था
और इतने बड़े-बड़े लोगों के सामने इतनी लम्बी-लम्बी फेंक रहा था।

सोमवार, 13 जून 2011

ग़ज़ल : रेत सी मजलूम की तकदीर है

रेत सी मजलूम की तकदीर है
हर लहर से मिट रही तदबीर है

सूर्य चढ़ते ही मिटा देता सदा
भाषणों की बर्फ़ सी तहरीर है

देश बेआवाज़ बँटता जा रहा
हर सियासतदाँ गज़ब शमशीर है

घाव दिल के वक्त भर देता मगर
धड़कनों के साथ बढ़ती पीर है

सींचती जबसे सियासत क्यारियाँ
फूल भी हाथों को देता चीर है

कब तलक फैशन बताओगे इसे
पाँव में जो लोक के जंजीर है

फ्रेम अच्छा है, बदल दो तंत्र पर,
हो गई अश्लील ये तस्वीर है