रविवार, 11 सितंबर 2011

ग़ज़ल : होलोग्राम लगा नकली, कहते सब मैं ही असली

होलोग्राम लगा नकली
कहते सब मैं ही असली

देखी सोने की चिड़िया
कोषों की तबियत मचली

जो कुछ छोड़ा भँवरों ने
उसको खाती है तितली

जिंदा कर देंगे सड़ मत
कह गिद्धों ने लाश छली

मंत्री जी की फ़ाइल से
केवल मँहगाई निकली

कब तक सच मानूँ इसको
“दुर्घटना से देर भली”

अब पानी बदलो ‘सज्जन’
या मर जाएगी मछली

मंगलवार, 6 सितंबर 2011

ग़ज़ल : दे दी अपनी जान किसी ने धान उगाने में

दे दी अपनी जान किसी ने धान उगाने में
मजा नहीं आया तुमको बिरयानी खाने में

पल भर के गुस्से से सारी बात बिगड़ जाती
सदियाँ लग जाती हैं बिगड़ी बात बनाने में

खाओ जी भर लेकिन इसको मत बर्बाद करो
एक लहू की बूँद जली है हर इक दाने में

उनसे नज़रें टकराईं तो जो नुकसान हुआ
आँसू भरता रहता हूँ उसके हरजाने में

अपने हाथों वो देते हैं सुबहो शाम दवा
क्या रक्खा है ‘सज्जन’ अब अच्छा हो जाने में

शनिवार, 3 सितंबर 2011

गिरना

गिरना एक ऐसी प्रक्रिया है
जिसमें वस्तु अपनी विशेष स्थिति के कारण प्राप्त ऊर्जा
जो शायद बरसों की मेहनत के बाद उसे मिली हो
बड़ी तेजी से खो बैठती है

गिरना यदि जल्द रोका न जाय
तो वस्तु के गिरने का वेग उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है
और वस्तु को गिरने में रोमांच का अनुभव होने लगता है

गिरने की इस प्रक्रिया को
तरल पदार्थ जैसे खारा पानी नहीं रोक सकता
न ही रोक सकती है कोई इससे कमजोर वस्तु
यह प्रक्रिया तभी रुकती है
जब वस्तु किसी ठोस और मजबूत तल से टकराती है

तब या तो वस्तु टूटकर बिखर जाती है
या विकृत हो जाती है
और गिरने की इस प्रक्रिया में
वस्तु बढ़ा देती है
अपने आसपास के वातावरण की अराजकता

एक न एक दिन
हर वस्तु को गिरना पड़ता है
क्योंकि कोई भी सहारा हर समय साथ नहीं देता

गिरना हमेशा हमेशा के लिए रोका नहीं जा सकता
पर इतना ध्यान रखने की जरूरत है
कि जब कोई वस्तु गिरे
तो इतना नीचे न गिरने पाए
कि उसका वेग अनियंत्रित हो जाए

शनिवार, 27 अगस्त 2011

ग़ज़ल : जो भी मिट गए तेरी आन पर वो सदा रहेंगे यहीं कहीं

आजकल देशप्रेम का माहौल बना हुआ है। तो प्रस्तुत है एक ग़ज़ल देश प्रेम पर।

बह्र : बह्र-ए-कामिल मुसम्मन सालिम
मुतफायलुन मुतफायलुन मुतफायलुन मुतफायलुन
११२१२ ११२१२ ११२१२ ११२१२

जो भी मिट गए तेरी आन पर वो सदा रहेंगे यहीं कहीं
तेरी माटी में वो ही फूल बन के खिला करेंगे यहीं कहीं ॥१॥

ऐ वतन मेरे, नहीं कर सके, कभी काल भी, ये जुदा हमें
मैं मरा तो क्या, मैं जला तो क्या, मेरे अणु मिलेंगे यहीं कहीं ॥२॥

तू ही घोसला, तू ही है शजर, तू चमन मेरा, तू ही आसमाँ
तुझे छोड़ के, जो कभी उड़ा, मेरे पर गिरेंगे यहीं कहीं ॥३॥

कभी धूप ने जो उड़ा दिया मुझे बादलों सा बना के तो
मेरे अंश लौट के आएँगें औ’ बरस पड़ेंगे यहीं कहीं ॥४॥

कोई दोजखों में जला करे कोई जन्नतों में घुटा करे
जो किसान हैं वो अनाज बन के सदा उगेंगे यहीं कहीं॥५॥

शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

कविता : आँसू और पसीना

आँसू और पसीना दोनों
पानी हैं नमकीन

लेकिन बदबू
सिर्फ पसीने से आती है

क्योंकि पसीना
बुरे काम में भी रिसता है
किंतु नहीं आँसू

शनिवार, 13 अगस्त 2011

ग़ज़ल : तू गंगा है पावन रहे ये दुआ दूँ

निजी पाप की मैं स्वयं को सजा दूँ
तू गंगा है पावन रहे ये दुआ दूँ

न दिल रेत का है न तू हर्फ़ कोई
जिसे आँसुओं की लहर से मिटा दूँ

बहुत पूछती है ये तेरा पता, पर,
छुपाया जो खुद से, हवा को बता दूँ?

यही इन्तेहाँ थी मुहब्बत की जानम
तुम्हारे लिए ही तुम्हीं को दगा दूँ

बिखेरी है छत पर पर यही सोच बालू
मैं सहरा का इन बादलों को पता दूँ

गुरुवार, 11 अगस्त 2011

नवगीत : आदमी अकेला है

यंत्रों के जंगल में
जिस्मों का मेला है
आदमी अकेला है

चूहों की भगदड़ में
स्वप्न गिरे
हुए चूर
समझौतों से डरकर
भागे आदर्श दूर

खाई की ओर चला
भेड़ों का रेला है

शोर बहा
गली-सड़क
मन की आवाज घुली
यंत्रों से तार जुड़े
रिश्तों की गाँठ खुली

सुंदर तन है सोना
सीरत अब धेला है

मुट्ठी भर तरु
सोचें
कहाँ गया नील गगन
खा लेगा
इनको भी
ईंटों का बढ़ता वन

व्याकुल है
मन-पंछी
कैसी ये बेला है

मंगलवार, 9 अगस्त 2011

प्रथम कविता कोश सम्मान समारोह जयपुर में सफलतापूर्वक संपन्न

प्रथम कविता कोश सम्मान समारोह 07 अगस्त 2011 को जयपुर में जवाहर कला केंद्र के कृष्णायन सभागार में संपन्न हुआ। इसमें दो वरिष्ठ कवियों (बल्ली सिंह चीमा और नरेश सक्सेना) एवं पाँच युवा कवियों (दुष्यन्त, अवनीश सिंह चौहान, श्रद्धा जैन, पूनम तुषामड़ और सिराज फ़ैसल ख़ान) को सम्मानित किया गया। इस आयोजन में वरिष्ठ कवि श्री विजेन्द्र, श्री ऋतुराज, श्री नंद भारद्वाज एवं वरिष्ठ आलोचक प्रो. मोहन श्रोत्रिय भी उपस्थित थे। समारोह में बल्ली सिंह चीमा एवं नरेश सक्सेना का कविता पाठ मुख्य आकर्षण रहे। कविता कोश के प्रमुख योगदानकर्ताओं को भी कविता कोश पदक एवं सम्मानपत्र देकर सम्मानित किया गया।

समारोह में कविता कोश की तरफ से कविता कोश के संस्थापक और प्रशासक ललित कुमार, कविता कोश की प्रशासक प्रतिष्ठा शर्मा, कविता कोश के संपादक अनिल जनविजय कविता कोश की कार्यकारिणी के सदस्य प्रेमचन्द गांधी, धर्मेन्द्र कुमार सिंह, कविता कोश टीम के भूतपूर्व सदस्य कुमार मुकुल एवं कविता कोश में शामिल कवियों में से आदिल रशीद, संकल्प शर्मा, रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु', माया मृग, मीठेश निर्मोही, राघवेन्द्र, हरिराम मीणा, बनज कुमार 'बनज' आदि उपस्थित थे। समारोह में यह घोषणा की गई कि 07 अगस्त 2011 से कविता कोश के संपादक एक वर्ष के लिए कवि प्रेमचन्द गांधी होंगे। भूतपूर्व सम्पादक अनिल जनविजय कविता कोश टीम के सक्रिय सदस्य के रूप में संपादकीय संयोजन का काम देखेंगे।

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कविता कोश सम्मान 2011 की तस्वीरें

प्रथम कविता कोश सम्मान समारोह की विस्तृत रिर्पोट

कविता कोश टीम ने कविता कोश के पाँचवे जन्मदिवस के अवसर पर कविता कोश जयंती समारोह का आयोजन किया। विगत 07 अगस्त 2011 को जयपुर के प्रसिद्ध जवाहर कला केंद्र के कृष्णायन सभागार में यह भव्य समारोह संपन्न हुआ। समारोह के संयोजक और कविता कोश के संपादक श्री प्रेमचंद गाँधी ने उपस्थित कवियों, श्रोताओं और समारोह के सहभागियों का स्वागत करते हुए कहा यह दिन हिंदी कविता के इतिहास की एक बड़ी परिघटना है। पहली बार कविता कोश को इंटरनेट की दुनिया से निकाल कर सार्वजनिक मंच पर प्रस्तुत किया जा रहा है और हमारे इस समारोह में उपस्थित दो-ढाई सौ लोगों में मात्र वे कवि ही उपस्थित नहीं है जो कविता कोश में शामिल हैं बल्कि बहुत से पत्रकार, हिंदी प्रेमी, छात्र, साहित्यकार एवं जनता के अन्य वर्गों के लोग भी उपस्थित हैं।

इसके बाद कविता कोश के संस्थापक और प्रशासक श्री ललित कुमार ने उपस्थित जन समुदाय को कविता कोश के इतिहास और कविता कोश वेबसाइट के उद्देश्यों से परिचित कराया। अपने वक्तव्य में ललित जी ने कविता कोश के विकास में सामुदायिक भावना के महत्व पर बल दिया और बताया कि इस तरह की वेबसाइट का अस्तित्व सिर्फ सामुदायिक प्रयासों से ही संभव है। एक अकेला व्यक्ति इस तरह की वेबसाइट नहीं चला सकता। इसीलिए शुरू में उन्होंने अकेले इस परियोजना को शुरू करने के बावजूद धीरे धीरे अन्य लोगों को कविता कोश से जोड़ा और कविता कोश टीम की स्थापना की। अब यह टीम ही कविता कोश का संचालन करती है।

कविता कोश ने अपनी इस पंच वर्षीय जयंती के अवसर पर दो वरिष्ठ कवियों और पाँच एकदम नए युवा कवियों को सम्मानित करने का निर्णय लिया था। इसलिए ललित जी के वक्तव्य के बाद इन सातों कवियों को सम्मानित किया गया। सम्मानित कवियों की सूची इस प्रकार है।

कविता कोश सम्मान 2011: सम्मानित रचनाकार

कविता कोश सम्मान के अंतर्गत दोनों वरिष्ठ कवियों नरेश सक्सेना एवं बल्ली सिंह चीमा को 11000 रू. नकद, कविता कोश सम्मान पत्र और कविता कोश ट्रॉफ़ी प्रदान की गई। पाँचों युवा कवियों को पाँच हजार रु. नकद, सम्मान पत्र और कविता कोश ट्रॉफ़ी दी गई। शाल ओढ़ाकर इन कवियों का सम्मान करने के लिए मंच पर ये कवि उपस्थित थे।

सम्मान के बाद सभी सम्मानित कवियों ने अपनी कविता का पाठ किया और समारोह में उपस्थित लोगों को कविता कोश के विषय में अपनी भावना से अवगत कराया और यह सुझाव दिए कि कविता कोश का आगे विकास करने के लिए क्या क्या कदम उठाए जाने चाहिए। कवियों का यह सम्बोधन एक विचार गोष्ठी में बदल गया था। कवियों ने चिंता व्यक्त की कि हिंदी भाषा और हिंदी कविता के लिए एक बड़ा खतरा पैदा हो रहा है। अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव के कारण और भारत के हिंदी भाषी क्षेत्र के निवासियों द्वारा हिंदी पर अंग्रेजी को प्रमुखता देने के कारण हिंदी संस्कृति और साहित्य का ह्रास हो रहा है। हिंदी को बाजार की भाषा बना दिया गया है लेकिन उसे ज्ञान और विज्ञान की भाषा के रूप में विकसित करने की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। हिंदी कविता के नाम पर बेहूदा और मजाकिया कविताएँ लिखी, छपवाई और सुनाई जा रही हैं। हिंदी कविता के मंच पर तथाकथित हास्य कवियों का अधिकार हो गया है। कवि नरेश सक्सेना ने कहा कि स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक की संपूर्ण शिक्षा का माध्यम हिंदी को बनाया जाना चाहिए और सभी 40;रह के विज्ञान और प्रौद्योगिकी को भी हिंदी में ही पढ़ाया जाना चाहिए अन्यथा आने वाले दस बीस सालों में हिंदी का अस्तित्व खत्म हो सकता है। नरेश सक्सेना जी के अनुसार आज हिंदी की हैसियत घट गई है इसको अब वापस पाना होगा। सिर्फ आग लिख देने से कागज जलते नहीं बल्कि उन्हें जलाना पड़ता है। उन्होंने अपनी कविताओं से भी माहौल को जीवंत बनाया। उन्होंने मुक्त छंद में अपनी कविता पढ़ी।

(१)
जिसके पास चली गई मेरी जमीन
उसके पास मेरी बारिश भी चली गई
(२)
शिशु लोरी के शब्द नहीं
संगीत समझता है
बाद में सीखेगा भाषा
अभी वह अर्थ समझता है

कवि बल्ली सिंह चीमा ने अपने वक्तव्य में कविता कोश के प्रति आभार प्रकट किया कि उन्हें जयपुर आने और नए श्रोताओं से रूबरू होने का अवसर प्रदान किया है। यह सम्मान इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सम्मान किसी सरकारी संस्था या किसी राजनीतिक संगठन द्वारा नहीं दिया जा रहा है बल्कि कविता के प्रेमियों द्वारा कवियों को सम्मानित किया जा रहा है और यह बड़ी बात है। उन्होंने कामना की कि कविता कोश वेबसाइट पर अधिक से अधिक कवियों की ज्यादा से ज्यादा कविताएँ जुड़ें और यह हिंदी की सबसे बड़ी वेबसाइट बन जाए। चीमा जी ने अपनी जो कविता पढ़ी वह इस प्रकार है।

(१)
कुछ लोगों से आँख मिलाकर पछताती है नींद
खौफ़ज़दा सपनों से अक्सर डर जाती है नींद
हमने अच्छे कर्म किए थे शायद इसीलिए
बिन नींद की गोली खाए आ जाती है नींद
(२)
मैं किसान हूँ मेरा हाल क्या मैं तो आसमाँ की दया पे हूँ
कभी मौसमों ने हँसा दिया कभी मौसमों ने रुला दिया
(३)
वो ब्रश नहीं करते
मगर उनके दाँतो पर निर्दोषों का खून नहीं चमकता
वो नाखून नहीं काटते
लेकिन उनके नाखून नहीं नोचते दूसरों का माँस

कवि विजेन्द्र ने इस अवसर पर बोलते हुए कहा कि कविताएँ दॄष्टिहीन (visionless) नहीं होनी चाहिए| देश को सही विकल्प की और बढ़ाने वाली कविता ही सर्वश्रेष्ठ हो सकती है। कविता कोश इस दिशा में महत्वपूर्ण काम कर रहा है। कविता कोश में रचनाओं का चयन बहुत अच्छा है और इसके लिए कविता कोश के संपादक अनिल जनविजय बधाई के पात्र हैं। इसके तुरंत बाद बोलते हुए अनिल जनविजय ने बताया कि अब से कविता कोश के संपादक कवि प्रेमचंद गाँधी होंगे। मैं अपना कार्यभार उन्हें सौंपता हूँ। अनिल जनविजय ने कविता कोश की पूरी टीम के योगदान को सराहा और टीम सदस्य प्रतिष्ठा शर्मा एवं ललित कुमार के समर्पण की प्रशंसा की। इस अवसर पर वरिष्ठ कवि ऋतुराज, नंद भारद्वाज और मोहन श्रोत्रिय ने भी अपने अपने विचार प्रस्तुत किए।

बुधवार, 3 अगस्त 2011

कविता : कृष्ण विवर और तुम

क्या?
कैसी लगती हो तुम मुझे?
बता दूँ?
पर विज्ञान का विद्यार्थी हूँ
तुम हँसने लग जाओगी मेरी उपमा पर
पहले वादा करो हँसोगी नहीं
पक्का वादा?
ठीक है
तो मुझे लगता है तुम कृष्ण विवर जैसी हो
अरे हाँ बाबा ‘ब्लैक होल’
क्यूँ?
क्यूँकि जब भी मैं तुम्हारे पास आता हूँ
ऐसा लगता है तुम मुझसे मेरा अस्तित्व छीनने लग गई हो
जैसे मेरा अस्तित्व तुम्हारे अस्तित्व में घुलने लग गया हो
ठीक वैसा ही अनुभव
जैसा किसी पिण्ड को कृष्ण विवर के पास पहुँचने पर होता है

मेरा शरीर तो शरीर
मेरा मन भी तुम्हारे पास आकर
तुम्हारा ही होकर रह जाता है
चाहकर भी तुम्हें छोड़कर जा नहीं पाता
ठीक वैसे जैसे कृष्ण विवर को छोड़कर द्रव्य तो क्या
प्रकाश की तरंगे भी बाहर नहीं निकल पातीं

जब तुम्हें अपनी बाँहों में लेकर
तुम्हारी आँखों में झाँकता हूँ
तो मुझे लगता है जैसे समय रुक गया हो
ठीक वैसे ही जैसे कृष्ण विवर के पास
उसके घटना क्षितिज के पार जाने पर
समय रुक जाता है
दिक्काल का अस्तित्व समाप्त हो जाता है
और इसके बाद क्या होता है
ये दुनिया का कोई सिद्धांत अब तक नहीं बता पाया

क्या?
हाँ ऐसा हो सकता है
कृष्ण विवर दिक्काल की प्रेयसी हो सकता है
क्यूँकि मेरा जो हाल
तुम्हारा साथ करता है
वही सब कृष्ण विवर के कारण दिक्काल के साथ होता है

सोमवार, 1 अगस्त 2011

कविता : कालजयी प्रेम

अगर हमारे जीवन में ऐसा यंत्र बना
जो मानव शरीर को परमाणुओं में बदलकर
सुदूर स्थानों पर भेज दे

तो तुम्हारी मृत्यु के पश्चात
मैं तुम्हें बाँहों में भरकर
परमाणुओं में बदल जाऊँगा
तुम्हारे हर परमाणु से
मेरा एक परमाणु जुड़ जाएगा
और वह यंत्र हमारे
हर परमाणु जोड़े को
ब्रह्मांड के सुदूर कोनों में भेज देगा

हमारा हर परमाणु जोड़ा
क्वांटम जुड़ाव के द्वारा
काल का अस्तित्व समाप्त होने तक
दूसरे जोड़ों से जुड़ा रहेगा
और इस तरह
हमारा प्रेम
सर्वव्यापी और कालजयी हो जाएगा

बुधवार, 27 जुलाई 2011

कविता : हम तुम और ईश्वर

तब
जब सारे आयाम एक बिंदु मात्र थे
समय भी

तब
जब सृष्टि में केवल और केवल घनीभूत ऊर्जा थी

तब भी
जब इस बिंदु का विस्तार होना शुरू हुआ
और समय ने चलना सीखा

तब भी
जब इस अनंततम सूक्ष्म आयतन में
उपस्थित अनंत अनिश्चितताओं ने
ऊर्जा के गुच्छे बनाने शुरू किए

तब भी
जब इन गुच्छों ने घनीभूत होकर
मूलकण बनाने शुरू किए

तब भी
जब मूलकणों ने मिलकर विभिन्न परमाणु बनाए

तब भी
जब इन परमाणुओं ने गुरुत्वाकर्षण के कारण
इकट्ठा होकर प्रारम्भिक गैसों के बादल बनाने शुरू किए

तब भी
जब गुरुत्व से सिकुड़ने के कारण इन गैसों का तापमान बढ़ा
और तारे बने

तब भी
जब दो तारे पास से गुजरे
और उनके आकर्षण से
कुछ द्रव्य इधर उधर बिखरने से ग्रह बने

तब भी
जब एक ग्रह के ठंढ़े होने पर
हाइड्रोजन और आक्सीजन ने मिलकर पानी बनाया

तब भी
जब इस पानी में जीवन पनपा

तब भी
जब जीवन की जटिलता ने बढ़कर मानव बनाया

तब तक
जब तक तुम्हारे और मेरे माता-पिता धरती पर नहीं आए
हम एक थे
और खोए हुए थे इस महामिलन के महाआनंद में

पर ईश्वर कैसे यह बर्दाश्त करता
कि उसके अलावा किसी और को
परमानंद की प्राप्ति हो

बस हमारे तुम्हारे परमाणु
एक एक करके अलग होने लगे
और बनाने लगे दो अलग अलग मानव शरीर

क्या करूँ?
कैसे समझाऊँ लोगों को?
कि जिसे वो दो अलग अलग शरीर कहते हैं
वो केवल दो अलग अलग गुच्छे हैं परमाणुओं के
और उन गुच्छों का
हर परमाणु चाहता है अपने साथी से जुड़ जाना

सांसारिक संबंधों से
हमारे अरबवें हिस्से के परमाणु भी
शायद ही स्पर्श कर पाएँ
एक दूसरे को

बहुत बड़ी सजा है ये मानव होना
जिससे मरने के बाद भी मुक्ति नहीं मिलती
क्योंकि बच्चों के रूप में हमारे कुछ परमाणु
इंसानी रूप में बचे रह जाते हैं
और दुबारा मिलने के लिए करना पड़ता है
समय द्वारा
एक पूरे वंश को मिटाने का इंतजार

शायद इसीलिए हमारे धर्मग्रंथों में
ईश्वर को दंड देने के लिए
उसे मानव बनने का श्राप दिया गया है

शायद इसीलिए
बढ़ते उन्मुक्त संबंधों के
इस युग में अब तक
ईश्वर की हिम्मत नहीं हुई
मानव बनकर जन्म लेने की

शनिवार, 23 जुलाई 2011

ग़ज़ल : लाश तेरे वादों की मैं न छोड़ पाता हूँ

बह्र : २१२ १२२२ २१२ १२२२

लाश तेरे वादों की मैं न छोड़ पाता हूँ
रोज़ दफ़्न करता हूँ रोज़ खोद लाता हूँ

क्या कमी रहे तुझ बिन ईंट और गारे में
रोज़ घर बनाता हूँ रोज़ ही गिराता हूँ

है तू ही ख़ुदा मेरा तू ही मेरा कातिल है
रोज़ सर झुकाता हूँ रोज़ सर कटाता हूँ

इस नगर में तुझसे ज़्यादा हसीन हैं लाखों
रोज़ याद करता हूँ रोज़ भूल जाता हूँ

दर्द, रंज, तनहाई, अश्क, तंज, रुसवाई
रोज़ मैं कमाता हूँ रोज़ ही उड़ाता हूँ


सोमवार, 18 जुलाई 2011

कविता : खहर

मुझे लगा
वो क्या अहमियत रखता है मेरे लिए
मैं इतना विशाल
और वो
मात्र एक अदना सा शून्य
और मैंने स्वयं को उससे विभाजित कर लिया

परिणाम?
‘खहर’ हो गया हूँ मैं
मुझमें
कुछ भी जोड़ो
कुछ भी घटाओ
कितने से भी गुणा करो
कितने से भी भाग दो
कोई फर्क नहीं पड़ता

अब मैं एक अनिश्चित संख्या हूँ
भटक रहा हूँ
अनंत के आसपास कहीं

बुधवार, 6 जुलाई 2011

ग़ज़ल : मुहब्बत जो गंगा लहर हो गई

मुहब्बत जो गंगा-लहर हो गई
वो काशी की जैसे सहर हो गई

लगा वक्त इतना तुम्हें राह में
दवा आते आते जहर हो गई

लुटी एक चंचल नदी बाँध से
तो वो सीधी सादी नहर हो गई

चला सारा दिन दूसरों के लिए
जरा सा रुका दोपहर हो गई

समंदर के दिल ने सहा जलजला
तटों पर सुनामी कहर हो गई

जमीं एक अल्हड़ चली गाँव से
शहर ने छुआ तो शहर हो गई

तुझे देख जल भुन गई यूँ ग़ज़ल
हिले हर्फ़ सब, बेबहर हो गई

सोमवार, 4 जुलाई 2011

कविता : मुक्त इलेक्ट्रॉन

ज्यादातर पदार्थों के
ज्यादातर इलेक्ट्रान
पहले से ही नियत कक्षाओं में
नाभिक के इर्द गिर्द
घूमते घूमते
अपनी सारी जिंदगी बिता देते हैं

पर कुछ पदार्थों के
कुछ इलेक्ट्रान ऐसे भी होते हैं
जो नाभिक के आकर्षण से हारकर
लकीर का फकीर बनने के बजाय
खोज करते हैं नए रास्तों की
पसंद करते हैं संघर्ष करना
धारा के विरुद्ध बहना
इन्हें कहा जाता है ‘मुक्त इलेक्ट्रॉन’

ऐसे ही इलेक्ट्रान पैदा कर पाते हैं विद्युत ऊर्जा
जो अंधकार को करती है रौशन
जिससे फलती फूलती हैं
नई सभ्यताएँ
और प्रगति करती है मानवता

गुरुवार, 30 जून 2011

कविता : काश मैं जीत पाता

काश मैं गोड़ पाता
दिमाग के उन ऊपजाऊ कोनों को
जहाँ हमेशा खर-पतवार ही उगता है

काश मैं सींच पाता
दिमाग के उस रेगिस्तान को
जहाँ सिर्फ बबूल ही उगता है

काश मैं जीत पाता
दिमाग के अँधेरे कोने में बसे
उस राक्षस से
जो सामने आते ही
आधी ताकत ले लेता है
और मेरी ही ताकत से
मुझे हरा कर अपना गुलाम बना लेता है

काश मैं जीत पाता!
काश इंसान जीत पाता!

रविवार, 26 जून 2011

ग़ज़ल : जिंदा मुर्दों को जरा राह दिखाई जाए

जिंदा मुर्दों को जरा राह दिखाई जाए
आज कंधों पे कोई लाश उठाई जाए

चाँद के दिल में जरा आग लगाई जाए
आओ सूरज से कोई रात बचाई जाए

आज फिर नाज़ हो आया है ख़ुदी पे मुझको
आज खुद से भी जरा आँख मिलाई जाए

खोजते खोजते मिल जाए सुहाना बचपन
आज बहनों की कोई चीज छुपाई जाए

आज मस्जिद में न था रब मैं ढूँढ़कर हारा
आज मयखाने में फिर रात बिताई जाए

शुक्रवार, 24 जून 2011

कविता : माँ की गाली

कभी माँ थी मैं तुम्हारी
आज केवल
एक स्त्री देह रह गई
क्योंकि तुमने
गुस्से में ही सही
दूसरों को गाली देने के लिए ही सही
‘माँ’ शब्द को
अपशब्दों से जोड़कर
नए शब्दों को
पैदा करना सीख लिया है

शनिवार, 18 जून 2011

हास्य कविता: मैं यमलोक में

किसी जमाने में मैंने एक हास्य कविता लिखी थी। वही आज चिपका रहा हूँ। आनंद लीजिए।

एक रात मैं बिस्तर पर करवटें बदल रहा होता हूँ
तभी दो यमदूत आकर मुझे बतलाते हैं
‘चल उठ जा बेटे, तुझे यमराज बुलाते हैं’।
मैं तुरंत बोल पड़ता हूँ,
‘यारों मुझसे ऐसी क्या गलती हो गई है?
अभी तो मेरी उमर केवल तीस साल ही हुई है,
लोग कहते हैं मेरी किस्मत में दो शादियाँ लिखी गई हैं
और अभी तो पहली भी नई नई हुई है।
देखो अगर दस-बीस हजार में काम बनता हो तो बना लो,
और किसी को ले जाना इतना ही जरूरी हो,
तो शर्मा जी को उठा लो।’
वो बोले, ‘हमें पुलिस समझ रक्खा है क्या,
कि हम बेकसूरों को उठा ले जायेंगें,
और यमराज को,
अपने देश का अन्धा कानून मत समझ,
कि वो निर्दोष को भी फाँसी पे लटकायेंगें।”
मेरे बहुत गिड़गिड़ाने के बाद भी,
वो मुझे अपने साथ ले जाते हैं;
और थोड़ी देर बाद,
यमराज मुझे अपने सामने नजर आते हैं।
मुझे देखकर,
यमराज थोड़ा सा कसमसाते हैं और कहते हैं,
‘कोई एक पूण्य तो बता दे जो तूने किया है,
तेरे पापों की गणना करने में,
मेरे सुपर कम्यूटर को भी दस मिनट लगा है।’
मैं बोला, ‘क्या बात कर रहे हैं सर,
बिजली बनाना भी तो एक पूण्य का काम है
यमलोक के तैंतीस प्रतिशत बल्बों पर हमारा ही नाम है।’
यह सुनकर यमराज बोले, ‘हुम्म,
चल अच्छा तू ही बता दे
तू स्वर्ग जाएगा या नर्क जाएगा
मैं बोला प्रभो पहले ये बताइए कि ऐश, कैटरीना, बिपासा एटसेट्रा कहाँ जाएँगी
यमराज बोले, “बेटा, स्वर्ग में नारियों के लिए ५०% का आरक्षण है
उसका लाभ उठाते हुए वो स्वर्ग में जगह पाएँगीं।
अबे सुन,
सुना है तू कविताएँ भी लिखता है,
चल आज तो थोड़ा पूण्य कमा ले,
किसी ने आज तक मेरी स्तुति नहीं लिखी,
तू तो मेरी स्तुति रचकर मुझे सुना ले।”
फिर मैं शुरू करता हूँ यमराज को मक्खन लगाना,
और उनकी स्तुति में ये कविता सुनाना,
“इन्द्र जिमि जंभ पर, बाणव सुअंभ पर,
रावण सदंभ पर रघुकुलराज हैं,
तेज तम अंश पर, कान्ह जिमि कंश पर,
त्यों भैंसे की पीठ पर, देखो यमराज हैं।”
स्तुति सुनकर यमराज थोड़ा सा शर्माते हैं,
और मेरे पास आकर मुझे बतलाते हैं,
“यार ये तो मजाक चल रहा था,
अभी तेरी आयु पूरी नहीं हुई है,
तुझे हम यहाँ इसलिये लाए हैं, क्योंकि,
हमें एक यंग एण्ड डायनेमिक,
सिविल इंजीनियर की जरूरत आ पड़ी है।”
मैं बोला, “प्रभो मेरे डिपार्टमेन्ट में एक से एक,
यंग, डायनेमिक, इंटेलिजेंट, स्मार्ट, इक्सपीरिएंस्ड
सिविल इंजीनियर्स खड़े हैं।
आप हाथ मुँह धोकर मेरे ही पीछे क्यों पड़े हैं।”
वो बोले, “वत्स,
तेरा रेकमेण्डेसन लेटर बहुत ऊपर से आया है,
तुझे भगवान राम की स्पेशल रिक्वेस्ट पर बुलवाया है।”
मैं बोला, “अगर मैं हाइली रेकमेन्डेड हूँ,
तो मेरा और टाइम वेस्ट मत कीजिए,
औ मुझे यहाँ किसलिए बुलाया है फटाफट बता दीजिए।”
यह सुनकर यमराज बोले,
“क्या बताएँ वत्स,
कलियुग में पाप बहुत बढ़ते जा रहे हैं,
पिछले चालीस-पचास सालों से,
लोग नर्क में भीड़ बढ़ा रहे हैं,
दरअसल हम नर्क को,
थोड़ा एक्सपैंड करके उसकी कैपेसिटी बढ़ाना चाहते हैं,
इसलिए स्वर्ग का एक पार्ट,
डिमालिश करके वहाँ नर्क बनाना चाहते हैं।”
मैं बोला प्रभो
“इसमें सिविल इंजीनियर की क्या जरूरत है,
विश्व हिन्दू परिषद के कारसेवकों को बुला लीजिए,
या फिर लालू प्रसाद यादव को,
स्वर्ग का मुख्यमंत्री बना दीजिए,
मैं सिविल इंजीनियर हूँ,
मैं स्वर्ग को नर्क कैसे बना सकता हूँ,
हाँ अगर नर्क को स्वर्ग बनाना हो,
तो मैं अपनी सारी जिंदगी लगा सकता हूँ।”
मैं आगे बोला,
“प्रभो नर्क में सारे धर्मों के लोग आते होंगे,
क्या वो नर्क में,
पाकिस्तान बनाने की मांग नहीं उठाते होंगे।”
तो यमराज बोले, “वत्स पहले तो ऐसा नहीं था,
पर जब से आपके कुछ नेता नर्क में आए हैं,
अलग अलग धर्म बहुल क्षेत्रों को मिलाकर,
पाकनर्किस्तान बनाने की मांग लगातार उठाये हैं,
पर उनको ये पता नहीं है,
कि हम पाकनर्किस्तान कभी नहीं बनायेंगे,
नर्क तो पहले से ही इतना गन्दा है,
हम उसका स्टैण्डर्ड और नहीं गिराएँगे,
और ऐसा नर्क बनाने की जरूरत भी क्या है,
ऐसा नर्क तो हिन्दुस्तान की बगल में,
पहले से ही बना हुआ है।”
वो ये बता ही रहे थे कि तभी,
प्रभो श्री राम दौड़ते हुए आते हैं,
और आकर मेरे सामने खड़े हो जाते हैं,
मैं बोला, “प्रभो जब आपको ही आना था
तो धरती पर ही आ जाते,
मुझे यमलोक तो न बुलाते
और जब आ ही रहे थे, तो अकेले क्यों आये,
माता सीता को साथ क्यों नहीं लाए,
लव-कुश भी नहीं आये मैं गले किसे लगाऊँगा,
और लक्ष्मण जी व हनुमान जी को,
क्या मैं बुलाने जाऊँगा।”
यह सुनकर श्री राम बोले,
“मजाक अच्छा कर लेते हैं कविवर,
पर मेरी समस्या होती जा रही है बद से बदतर,
विश्व हिन्दू परिषद वाले मेरे पीछे पड़े हुए हैं,
मन्दिर वहीं बनायेंगे के सड़े हुए नारे पे अड़े हुए हैं,
पर वो ये नहीं समझते,
कि यदि हम मन्दिर वहाँ बनवायेंगे,
तो उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा,
मगर विश्व भर में लाखों बेकसूर मारे जाएँगे,
यार तुम तो कवि हो लगे हाथों कोई कल्पना कर ड़ालो,
और मेरी इस पर्वताकार समस्या को प्लीज हल कर डालो।”
मैं बोला, “प्रभो बस इतनी सी बात,
वहाँ एक सर्वधर्म पूजास्थल बनवा दीजिए,
और उसकी प्लानिंग मुझसे करा लीजिए,
एक बहुत बड़ी सफेद संगमरमर की,
मल्टीस्टोरी बिल्डिंग वहाँ बनवाइये,
और दुनिया में जितने भी धर्म हैं,
उतने कमरे उसमें लगवाइये,
और कमरों में क्या क्या हो ध्यान से सुन लीजिए,
किसी कमरे में बुद्ध मुस्कुराते हुए खड़े हों,
तो किसी कमरे में ईशा सूली पे चढ़े हों,
किसी में महावीर ध्यान लगा रहे हों,
तो किसी में खड़े नानक मुस्कुरा रहे हों,
किसी में पैगम्बर खड़े मन में कुछ गुन रहे हों,
तो किसी में कबीर कपड़े बुन रहे हों,
और जहाँ आप जन्मे थे वहाँ एक बड़ा सा हाल हो,
बहुत ही शान्त, स्वच्छ और सुरम्य वहाँ का माहौल हो,
बीच में एक झूले पर,
आपके बचपन की मनमोहिनी मूरत हो,
जो भी देखे देखता ही रह जाये,
कुछ ऐसी आपकी सूरत हो,
सारे धर्मों के हेड आफ डिपार्मेन्टस,
डीनस और डायरेक्टरस की मूर्तियाँ वहाँ पर लगी हों,
और जितनी मूर्तियाँ हों,
उतनी ही डोरियाँ आपके झूले से निकली हों,
सब के सब मिलकर आपको झूला झुला रहे हों,
और लोरी गा-गाकर सुला रहे हों,
उस मन्दिर में लोग कुछ लेकर नहीं,
बल्कि खाली हाथ जाएँ,
उसे देखें, सोचें, समझें, हँसे, रोयें
और शान्ति से वापस चले आएँ,
पर प्रभो मेरे देश के नेता अगर आपको ऐसा करने देंगें,
तो अगले लोकसभा चुनावों का मुद्दा वो कहाँ खोजेंगे।”
इतना सुनकर भगवन बोले,
“वत्स आपका आइडिया तो अच्छा है,
अतः अपने इस आइडिये के लिये,
कोई वरदान माँग लीजिए।”
मैं बोला, “प्रभो,
मेरी मात्र पाँच सौ पचपन पृष्ठों की एक कविता सुन लीजिए।”
फिर भगवन के ‘तथास्तु’ कहने पर,
मैंने सुनाना शुरु किया,
“कुर्सियाँ आकाश में उड़ने लगी हैं,
गायें चारागाह से मुड़ने लगी हैं,
लड़कियाँ बेबात के रोने लगी हैं,
भैंसें चारा खाके अब सोने लगी हैं,
कल मैंने था खा लिया इक मीठा पान,
देख लो हैं पक गये खेतों में धान।”
और तभी भगवान हो जाते हैं अन्तर्धान,
और होती है आकाशवाणी, “ये आकाशवाणी का विष्णुलोक केन्द्र है,
आपको सूचित किया जाता है, कि आपको दिया गया वरदान वापस ले लिया गया है,
और आपसे ये अनुरोध किया जाता है कि जितनी जल्दी हो सके यमलोक से निकल जाइये,
और दुबारा अपनी सूरत यहाँ मत दिखलाइये।”
यह सुनकर मैं यमराज से बोला, “मुझे वापस पृथ्वीलोक पहुँचा दीजिए।”
यमराज बोले, “कविवर, अपनी आँखें बन्द करके दो सेकेंड बाद खोल लीजिए।”
मैं आँखें खोलता हूँ तो देखता हूँ कि सूरज निकल आया है,
मेरे कमरे में कहीं धूप कहीं छाया है,
धड़ी सुबह के साढ़े आठ बजा रही है,
और जीएम साहब प्रोजेक्ट में ही हैं ये याद दिला रही हैं,
मैं सर झटककर पूरी तरह जागता हूँ,
और तौलिया लेकर बाथरूम की तरफ भागता हूँ,
रास्ते में मेरी समझ में आता है कि मैं सपना देख रहा था
और इतने बड़े-बड़े लोगों के सामने इतनी लम्बी-लम्बी फेंक रहा था।

सोमवार, 13 जून 2011

ग़ज़ल : रेत सी मजलूम की तकदीर है

रेत सी मजलूम की तकदीर है
हर लहर से मिट रही तदबीर है

सूर्य चढ़ते ही मिटा देता सदा
भाषणों की बर्फ़ सी तहरीर है

देश बेआवाज़ बँटता जा रहा
हर सियासतदाँ गज़ब शमशीर है

घाव दिल के वक्त भर देता मगर
धड़कनों के साथ बढ़ती पीर है

सींचती जबसे सियासत क्यारियाँ
फूल भी हाथों को देता चीर है

कब तलक फैशन बताओगे इसे
पाँव में जो लोक के जंजीर है

फ्रेम अच्छा है, बदल दो तंत्र पर,
हो गई अश्लील ये तस्वीर है

शुक्रवार, 10 जून 2011

कविता : नाभिक

कैसा रिश्ता है ये
क्यूँ जबरन बाँध रक्खा है
इन नन्हें नन्हें पाईऑनों ने
मुझे तुमसे

तुम न्यूट्रॉन, मैं प्रोटॉन
हमारे बीच कोई आकर्षण नहीं था
मगर हमें जबरन इतने करीब लाया गया
कि हम एक दूसरे से बँध गए
इन नन्हें नन्हें पाईऑनों के कारण

बेचारा इलेक्ट्रॉन
आज भी चक्कर लगा रहा है
हम दोनों के चारों तरफ़
मेरे प्रेमाकर्षण में बँधा

कभी कभी मैं सोचता हूँ
चला जाऊँ सब कुछ छोड़कर
इस नाभिक को तोड़कर
और गले लगा लूँ इलेक्ट्रॉन को
फिर सोचता हूँ
कि मैं और इलेक्ट्रॉन तो एक दूसरे को सोखकर
नष्ट हो जाएँगें
मगर तुम और पाइऑन अकेले रह जाओगे
नष्ट हो जाएगा नाभिक
और नाभिकों से बनी यह सृष्टि

मगर क्यूँ है यह सृष्टि ऐसी
क्यूँ पैदा करता है आकर्षण
ईश्वर उनके बीच
जो कभी मिल नहीं सकते
और अगर कभी मिल भी गए
तो दोनों ही नष्ट हो जाते हैं

रविवार, 5 जून 2011

कविता : विद्रोह

विरोध कायम रहे
इसके लिए जरूरी है
कि कायम रहे
अणुओं का कंपन

अणुओं का कंपन कायम रहे
इसके लिए जरूरी है
विद्रोह का तापमान

वरना ठंढा होते होते
हर पदार्थ
अंततः विरोध करना बंद कर देता है
और बन जाता है अतिचालक

उसके बाद
मनमर्जी से बहती है बिजली
बिना कोई नुकसान झेले
अनंत काल तक

शुक्रवार, 3 जून 2011

कविता: इंद्रियाँ और दिमाग़

इंद्रियाँ तो कठपुतलियाँ हैं
सबसे ऊपर बैठे दिमाग़ की
उसी के इशारों पर नाचती हैं
इंद्रियों को तो पता भी नहीं होता
कि वो आखिर कर क्या रही हैं
आवश्यकता से अधिक सुख सुविधाएँ
जिन्हें वो गलत तरीके से इकट्ठा कर रही हैं
उन्हें या तो निकम्मा बना देंगी
या रोगी
और अगर पकड़ी गईं
तो सारी सजा मिलेगी इंद्रियों को
बलि की बकरियाँ हैं इंद्रियाँ।

इंद्रियाँ करें भी तो क्या करें
आदिकाल से
नियम ही ऐसे बनते आये हैं
जिससे सारी सजा इंद्रियों को ही मिले,
हर देवता, हर महात्मा ने
हमेशा यही कहा है
कि इंद्रियों पर नियंत्रण रखो
दिमाग़ की तरफ़ तो
कभी भूल कर भी उँगली नहीं उठाई गई
कैसे उठाई जाती
उँगली भी तो आखिरकार
दिमाग़ के नियंत्रण में थी।

मगर कलियुग आने का
पुराने नियमों से विश्वास उठने का
एक फायदा तो हुआ है
अब यदा कदा कोई कोई उँगली
दिमाग़ की तरफ भी उठने लगी है,
ज्यादातर तो तोड़ दी जाती हैं
या जहर फैल जाएगा कहकर काट दी जाती हैं
मगर क्या करे दिमाग़
अनिश्चितता का सिद्धांत तो वो भी नहीं बदल सकता
कि उठने वाली हर उँगली तोड़ी नहीं जा सकती,
कोई न कोई उँगली बची रह ही जाएगी
तथा उस उँगली की सफलता को देखकर
उसके साथ और भी उँगलियाँ उठ खड़ी होंगी,
अन्ततः दिमाग को
उँगलियों की सम्मिलित शक्ति के सामने
सर झुकाना ही पड़ेगा
अपनी असीमित शक्ति का दुरुपयोग
रोकना ही पड़ेगा।

सोमवार, 30 मई 2011

कविता : बड़ी अजीब हैं तुम्हारी यादें

बड़ी अजीब हैं तुम्हारी यादें

दिमाग के थोड़े से आयतन में
छुपकर बैठी रहती हैं
तुम्हारी ठोस यादें

बस अकेलेपन की गर्मी मिलने की देर है
बढ़ने लगता है इनके अणुओं का आयाम
और ये द्रव बनकर बाहर निकलने लग जाती हैं

धीरे धीरे
जैसे जैसे
बढ़ती है अकेलेपन की गर्मी
ये गैस का रूप धारण कर लेती हैं
और भर जाती हैं दिमाग के पूरे आयतन में
अपना दबाव धीरे धीरे बढ़ाते हुए

एक दिन ऐसा भी आएगा
जब अकेलेपन की गर्मी इतनी बढ़ जाएगी
कि दिमाग की दीवारें
इन गैसों का दबाव सह नहीं पाएँगी
और ये गैसें
दिमाग की दीवारों को फाड़कर बाहर निकल जाएँगी

उस दिन तुम्हारी यादों को
मुक्ति मिल जाएगी
और मुझे शांति
मगर ये दुनिया कहेगी
कि मैं तुम्हारे प्यार में पागल हो गया।

सोमवार, 23 मई 2011

ग़ज़ल : सूरज उगते ही सारी यादें सो जाती हैं

चंदा तारे बन रातों में नभ को जाती हैं।
सूरज उगते ही सारी यादें सो जाती हैं।

आँखों में जब तक बूँदें तब तक इनका हिस्सा,
निकलें तो खारा पानी बनकर खो जाती हैं।

सागर की करतूतें बादल तट पर लिख जाते,
लहरें आकर पल भर में सबकुछ धो जाती हैं।

भिन्न उजाले में लगती हैं यूँ तो सब शक्लें,
किंतु अँधेरे में जाकर इक सी हो जाती हैं।

हवा सुगंधित हो जाये कितना भी पर ‘सज्जन’,
मीन सभी मरतीं जल से बाहर जो जाती हैं।

मंगलवार, 17 मई 2011

कविता : हम-तुम

हम-तुम
जैसे सरिया और कंक्रीट
दिन भर मैं दफ़्तर का तनाव झेलता हूँ
और तुम घर चलाने का दबाव

इस तरह हम झेलते हैं
जीवन का बोझ
साझा करके

किसी का बोझ कम नहीं है
न मेरा न तुम्हारा

झेल लेंगें हम
आँधी, बारिश, धूप, भूकंप, तूफ़ान
अगर यूँ ही बने रहेंगे
इक दूजे का सहारा

शनिवार, 14 मई 2011

ग़ज़ल: मेरी किस्मत में है तेरा प्यार नहीं

मेरी किस्मत में है तेरा प्यार नहीं
तेरी नफ़रत किंतु मुझे स्वीकार नहीं

दिल में बनकर चोट बसी जो तू मेरे
निकली फिर क्यूँ बन आँसू की धार नहीं

तुझसे होकर दूर मरा तो कबका मैं
रूह मगर क्यूँ जाने को तैयार नहीं

तुझको नफ़रत के बदले में नफ़रत दूँ
मान यकीं मैं इतना भी खुद्दार नहीं

जान मिरी हाजिर है तेरी खिदमत में
आता मुझ पर तेरा क्यूँ एतबार नहीं

मंगलवार, 10 मई 2011

प्यार की वैज्ञानिक व्याख्या

क्या?
प्यार की वैज्ञानिक व्याख्या चाहिए
तो सुनो
ब्रह्मांड का हर कण
तरंग जैसा भी व्यवहार करता है
और उसकी तरंग का कुछ अंश
भले ही वह नगण्य हो
ब्रह्मांड के कोने कोने तक फैला होता है

आकर्षण और कुछ नहीं
इन्हीं तरंगों का व्यतिकरण है
और जब कभी इन तरंगों की आवृत्तियाँ
एक जैसी हो जाती हैं
तो तन और मन के कम्पनों का आयाम
इतना बढ़ जाता है
कि आत्मा तक झंकृत हो उठती है
इस क्रिया को विज्ञान अनुनाद कहता हैं
और आम इंसान
प्यार

इसलिए अगर सच्चा प्यार चाहिए
तो शरीर नहीं
आवृत्ति मिलाने की कोशिश करो
मगर यह काम
जितना आसान दिखता है
उतना है नहीं
क्योंकि हो सकता है
कि जिससे तुम्हारी तरंगों की आवृत्ति मिले
वो पत्थर हो, पेड़ हो
अथवा
वो इस धरती पर हो ही नहीं

सोमवार, 9 मई 2011

ग़ज़ल : चिड़िया की जाँ लेने में इक दाना लगता है

चिड़िया की जाँ लेने में इक दाना लगता है
पालन कर के देखो एक जमाना लगता है ॥१॥

अंधों की सरकार बनी तो उनका राजा भी
आँखों वाला होकर सबको काना लगता है ॥२॥

जय जय के नारों ने अब तक कर्म किए ऐसे
हर जयकारा अब ईश्वर पर ताना लगता है ॥३॥

कुछ भी पूछो इक सा बतलाते सब नाम पता
तेरा कूचा मुझको पागलखाना लगता है ॥४॥

दूर बजें जो ढोल सभी को लगते हैं अच्छे
गाँवों का रोना दिल्ली को गाना लगता है ॥५॥

कल तक झोपड़ियों के दीप बुझाने का मुजरिम
सत्ता पाने पर अब वो परवाना लगता है ॥६॥

टूटेंगें विश्वास कली से मत पूछो कैसा
यौवन देवों को देकर मुरझाना लगता है ॥७॥

जाँच समितियों से करवाकर कुछ ना पाओगे
उसके घर में शाम सबेरे थाना लगता है॥८॥

रविवार, 8 मई 2011

मातृ-दिवस पर एक ग़ज़ल

आज मातृ-दिवस है, तो इस अवसर पर प्रस्तुत है एक ग़ज़ल

ठंढे बादल सी ममता, कब बरसात नहीं होती?
माँ का दिल ऐसी धरती, जिस पर रात नहीं होती ॥१॥

छप्पन भोगों से लगते, सूखी रोटी, तेल, नमक
दूजा अमृत भी धर दे, माँ सी बात नहीं होती ॥२॥

दानव से जब जब हारे, इंसाँ बन ईश्वर जन्मे
पा ली माँ की पाक दुआ, जिससे मात नहीं होती ॥३॥

हम इंसानों ने माँ को, कितना कष्ट दिया लेकिन
शैताँ कोशिश कर हारा, माँ पर घात नहीं होती ॥४॥

नाम पिता दे, शौहर दे, लेकिन फूल, दुआ, बारिश,
शीतल झोंका, छाया, माँ, इनकी जात नहीं होती ॥५॥

रविवार, 1 मई 2011

ग़ज़ल :पर खुशी से फड़फड़ाते आज सारे गिद्ध देखो

पर खुशी से फड़फड़ाते आज सारे गिद्ध देखो
फिर से उड़के दिल्ली जाते आज सारे गिद्ध देखो ॥१॥

रोज रोज खा रहे हैं नोच नोच भारती को
हड्डियों से घी बनाते आज सारे गिद्ध देखो ॥२॥

श्वान को सियासती गली के द्वार पे बिठाके
गर्म गोश्त मिल के खाते आज सारे गिद्ध देखो ॥३॥

आसमान से अकाल-बाढ़ देखते हैं और
लाशों का कफ़न चुराते आज सारे गिद्ध देखो ॥४॥

जल रहा चमन हवा में उड़ रहे हैं खाल, खून
इनकी दावतें उड़ाते आज सारे गिद्ध देखो ॥५॥

बुधवार, 27 अप्रैल 2011

कविता : लोकतंत्र का क्रिकेट

बड़ा अजीब खेल है लोकतंत्र का क्रिकेट
एक गेंद के पीछे ग्यारह सौ मिलियन लोग
उछल कर, गिर कर
झपट कर, लिपट कर
पकड़नी पड़ती है गेंद
कभी जमीन से, कभी आसमान से
जिसकी किस्मत अच्छी हो उसी को मिलती है गेंद

और बल्लेबाज
उसे तो मजा आता है क्षेत्र रक्षकों को छकाने में
अगर किसी तरह सबने मिलकर
बल्लेबाज को आउट कर भी दिया
तो फिर वैसा ही नया बल्लेबाज
उसका भी लक्ष्य वही
अगर पूरी टीम आउट हो गई
तो दूसरी टीम के बल्लेबाजों का भी लक्ष्य वही
सबसे ज्यादा पैसा है इस खेल में

इसीलिए तो क्रिकेट मेरे देश का धर्म है
जिसे देखना हर भारतवासी का कर्म है
क्यूँकि पता नहीं कब
किसी को ये उपाय सूझ जाए
कि कैसे हर खिलाड़ी के हिस्से में
कम से कम एक गेंद आए

रविवार, 24 अप्रैल 2011

कविता : चिकनी मिट्टी और रेत

चिकनी मिट्टी के नन्हें नन्हें कणों में
आपसी प्रेम और लगाव होता है
हर कण दूसरों को अपनी ओर
आकर्षित करता है
और इसी आकर्षण बल से
दूसरों से बँधा रहता है

रेत के कण आकार के अनुसार
चिकनी मिट्टी के कणों से बहुत बड़े होते हैं
उनमें बड़प्पन और अहंकार होता है
आपसी आकर्षण नहीं होता
उनमें केवल आपसी घर्षण होता है

चिकनी मिट्टी के कणों के बीच
आकर्षण के दम पर
बना हुआ बाँध
बड़ी बड़ी नदियों का प्रवाह रोक देता है,
चिकनी मिट्टी बारिश के पानी को रोककर
जमीन को नम और ऊपजाऊ बनाए रखती है;

रेत के कणों से बाँध नहीं बनाए जाते
ना ही रेतीली जमीन में कुछ उगता है
उसके कण अपने अपने घमंड में चूर
अलग थलग पड़े रह जाते हैं बस।

रविवार, 17 अप्रैल 2011

ग़ज़ल: काश यादों को करीने से लगा पाता मैं

काश यादों को करीने से लगा पाता मैं
तेरी यादों के सभी रैक हटा पाता मैं ॥१॥

एक लम्हा जिसे हम दोनों ने हर रोज जिया
काश उस लम्हे की तस्वीर बना पाता मैं ॥२॥

मेरे कानों में पढ़ा प्रेम का कलमा तुमने
काश अलफ़ाज़ वो सोने से मढ़ा पाता मैं ॥३॥

एक वो पन्ना जहाँ तुमने मैं हूँ गैर लिखा
काश उस पन्ने का हर लफ़्ज़ मिटा पाता मैं ॥४॥

दिल की मस्जिद में जिसे रोज पढ़ा करता हूँ
आयतें काश वो तुझको भी सुना पाता मैं ॥५॥

बुधवार, 13 अप्रैल 2011

ग़ज़ल : वो जो रुख़-ए-हवा समझते हैं

वो जो रुख़-ए-हवा समझते हैं
हम उन्हें धूल सा समझते हैं ॥१॥

चाँद रूठा ये कहके उसको हम
एक रोटी सदा समझते हैं ॥२॥

धूप भी तौल के बिकेगी अब
आप बाजार ना समझते हैं ॥३॥

तोड़ कर देख लें वो पत्थर से
जो हमें काँच का समझते हैं ॥४॥

जो बसें मंदिरों की नाली में
वो भी खुद को ख़ुदा समझते हैं ॥५॥

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

नवगीत : समाचार हैं

समाचार हैं
अद्भुत,
जीवन के

अब बर्बादी
करे मुनादी
संसाधन सीमित
सड़ जाने दो
किंतु करेगा
बंदर ही वितरित
नियम
अनूठे हैं
मानव-वन के

प्रेम-रोग अब
लाइलाज
किंचित भी नहीं रहा
नई दवा ने
आगे बढ़कर
सबका दर्द सहा
रंग बदलते
पल पल
तन मन के

नौकर धन की
निज इच्छा से
अब है बुद्धि बनी
कर्म राम के
लेकिन लंका
देखो हुई धनी
बदल रहे
आदर्श
लड़कपन के

शनिवार, 9 अप्रैल 2011

कविता : कारखाने

देश की हर नदी को
धीरे धीरे गंदा कर दिया
कारखानों ने
इतना गंदा
कि उनका पानी पीने लायक नहीं बचा
फिर कारखाने के छोटे भाइयों ने
शुरू किया
पहाड़ों से पानी भरकर
उसे मैदानों में बेचने का सिलसिला
और जो पानी मुफ़्त मिला करता था
आज बोतलों में बिकता है।

हवाओं को भी धीरे धीरे
गंदा कर रहे हैं कारखाने
पता नहीं आने वाला वक्त
क्या दिन दिखाएगा?

गुरुवार, 31 मार्च 2011

ग़ज़ल : धँस कर दिल में विष फैलाता तेरा कँगना था

धँस कर दिल में विष फैलाता तेरा कँगना था
पत्थर ना हो जाता तो मेरा दिल सड़ना था ॥१॥

मदिरामय कर लूट लिया जिसने वो गैर नहीं
दिल में मेरे रहने वाला मेरा अपना था ॥२॥

कर आलिंगन मुझको जब रोई वो भावुक हो
जाने पल वो सच था या फिर कोई सपना था ॥३॥

बारी बारी साथ मेरा हर रहबर छोड़ गया
एक मुसाफिर था मैं मुझको फिर भी चलना था ॥४॥

जाने अब मैं जिंदा हूँ या गर्म-लहू मुर्दा
प्यार जहर में ना पाता तो मुझको मरना था ॥५॥

फर्क नहीं था जीतूँ या हारूँ मैं इस रण में
अपने दिल के टुकड़े से ही मुझको लड़ना था ॥६॥

रविवार, 20 मार्च 2011

होली की शुभकमनाओं के साथ प्रस्तुत है ये मस्ती भरी ग़ज़ल

आज पलकों पे आग पलने दो
ना बुझाओ चराग जलने दो

आग बुझती न सूर्य के दिल की
आयु दिन एक से हैं ढलने दो

नींद की बर्फ लहू में पैठी
रात की धूप में पिघलने दो

शर्म की छाँव, इश्क का पौधा
सूख जाएगा इसे फलने दो

थक गई है ये अकेले चलकर
आज साँसों पे साँस मलने दो

नीर सा मैं हूँ शर्करा सी तुम
थोड़ी जो है खटास चलने दो

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

कविता: कार्बन

चार भुजाएँ होती हैं कार्बन परमाणु के पास
जिनमें चार इलेक्ट्रॉन होते हैं
जिसे वो किसी भी परमाणु के साथ
जिसको इलेक्ट्रॉन की जरूरत हो
हर समय साझा करने के लिए तैयार रहता है
मगर कार्बन किसी अन्य परमाणु को
अपने इलेक्ट्रॉन छीनने नहीं देता
केवल साझा करने देता है
यही वो गुण है
जिसके कारण
कार्बन से बने हुए विभिन्न यौगिकों के अणु
धरती पर जीवन का आधार बने हुए हैं;

कार्बन छोटा है मगर मजबूत है
दूसरों की मदद करता है
मगर अपनी रक्षा स्वयं करने में सक्षम है
मुट्ठी भर इलेक्ट्रान ही हैं उसके पास
मगर बड़े बड़े धनवान उससे साझा करने आते हैं
उसे किसी की सहानुभूति नहीं चाहिए
न ही किसी नेता के झूठे वादे चाहिए
वह स्वयं में परिपूर्ण है
दूसरे परमाणुओं की मदद
वह प्रसिद्ध होने के लिए नहीं करता
क्योंकि सबसे कीमती
सबसे प्रसिद्ध
“हीरा”
वह केवल अपने दम पर बनाता है।
पता नहीं इतने सारे कार्बन परमाणुओं से मिलकर
बनने के बावजूद
हम इंसानों में उसका कोई गुण क्यों नहीं आया?

बुधवार, 9 मार्च 2011

ग़ज़ल: हर अँधेरा ठगा नहीं करता

हर अँधेरा ठगा नहीं करता
हर उजाला वफा नहीं करता

देख बच्चा भी ले ग्रहण में तो
सूर्य उसपर दया नहीं करता

चाँद सूरज का मैल भी ना हो
फिर भी तम से दगा नहीं करता

बावफा है जो देश खाता है
बेवफा है जो क्या नहीं करता

गल रही कोढ़ से सियासत है
कोइ अब भी दवा नहीं करता

प्यार खींचे इसे समंदर का
नीर यूँ ही बहा नहीं करता

झूठ साबित हुई कहावत ये
श्वान को घी पचा नहीं करता

बुधवार, 2 मार्च 2011

महाशिवरात्रि के सुअवसर पर प्रस्तुत है “गणेश जन्म”

[१]
छंद : दोहा

है ग्यारह आयाम से, निर्मित यह संसार
सात मात्र अनुमान हैं, अभी ज्ञात हैं चार।

तीन दिशा आयाम हैं, चतुर्याम है काल;
चारों ने मिलकर बुना, स्थान-समय का जाल।

सात याम अब तक नहीं, खोज सका इंसान;
पर उनका अस्तित्व है, हमको है यह ज्ञान।

हैं रहस्य संसार के, बहुतेरे अनजान;
थोड़े से हमको पता, कहता है विज्ञान।

कहें समीकरणें सभी, होता है यह भान;
जहाँ बसे हैं हम वहीं, हो सकते भगवान।

यह भी संभव है सखे, हो अपना दिक्काल;
दिक्कालों के सिंधु में, तैर रही वनमाल।

ऐसे इक दिक्काल में, रहें शक्ति शिव संग;
है बिखेरती हिम जहाँ, भाँति-भाँति के रंग।

जहाँ शक्ति सशरीर हों, सूरज का क्या काम;
सबको ऊर्जा दे रहा, केवल उनका नाम।

कालचक्र है घूमता, प्रभु आज्ञा अनुसार;
जगमाता-जगपिता की, लीला अमर अपार।

करते हैं सब कार्य गण, लेकर प्रभु का नाम;
नंदी भृंगी से सदा, रक्षित है प्रभु धाम।

विजया जया किया करें, जब माता सँग वास;
प्रिय सखियों से तब उमा, करें हास परिहास।

हिमगिरि चारों ओर हैं, बीच बसा इक ताल;
मानसरोवर नाम है, ज्यों पयपूरित थाल।

कार्तिकेय हैं खेलते, मानसरोवर पास;
उन्हें देख सब मग्न हैं, मात-पिता, गण, दास।

सुन्दर छवि शिवपुत्र की, देती यह आभास;
बालरुप धर ज्यों मदन, करता हास-विलास।

सोच रहे थे जगपिता, देवों में भ्रम आज;
प्रथम पूज्य है कौन सुर, पूछे देव-समाज?

आदिदेव हूँ मैं मगर, स्वमुख स्वयं का नाम;
लूँगा तो ये लगेगा, अहंकार का काम।

कुछ तो करना पड़ेगा, बड़ी समस्या आज;
तभी सोच कुछ हँस पड़े, महादेव गणराज।

[२]
छंद : रोला

कालान्तर में जया और विजया ने आकर,
कहा उमा से--“सखी जरा सोचो तो आखिर;
ये सारे गण, नंदी, भृंगी शिव के चाकर,
शिव की ही आज्ञा का पालन करें यहाँ पर;
यद्यपि वे अपने ही हैं पर मन ना माने,
ऐसा कोई हो जो बस हमको पहचाने।”
माता बोलीं--“सच हो तुम दोनों का सपना,
फुर्सत में मैं कभी बना दूँगी गण अपना।”
आई गई हो गई यूँ ही घटना सारी,
पर लीला भोले की क्या जानें संसारी।
इक दिन माता स्नान कर रहीं थीं जब भीतर,
पहुँचे भोले भंडारी तब घर के बाहर;
नंदी खड़ा कर रहा था घर की रखवाली,
बोले प्रभो—“कहाँ है मेरी प्रिय घरवाली।”
नन्दी बोला—“स्नान कर रही हैं जगमाता।”
“हटो सामने से अब मैं हूँ अन्दर जाता।”
यह कहकर जब जगतपिता कुछ आगे आए,
नन्दी हटा पूर्ण श्रद्धा से शीश झुकाए;
आते देख प्रभो को, माँ को लज्जा आई,
तथा बात सखियों की तभी उन्हें याद आई;
उन्हें लगे वे वचन उस समय अति हितकारी,
निज गण का सुविचार लगा तब अति सुखकारी;
सोचा माँ ने एक गुणी बालक हो ऐसा,
कार्यकुशल, आज्ञा में तत्पर रहे हमेशा;
जो भय से या मोह-लोभ से विचलित ना हो,
देव, दैत्य, त्रिदेव से जिसे कुछ डर ना हो।

[3]
छंद : दुर्मिल

तब विचार कर माँ ने महाऊर्जा को तत्काल बुलाया,
और फिर उसे घनीभूत कर इक सुन्दर सा पिंड बनाया;
अपनी प्राण ऊर्जा का कुछ एक उसीमें अंश मिलाया,
तथा इस तरह चेतनता दे इक बालक संपूर्ण बनाया।
सुंदर दोषरहित अंगों का स्वामी, महाकाय वह था,
शोभायमान शुभलक्षण थे सम्पन्न पराक्रम बल से था;
देवी ने उसे अनेक वस्त्र, आभूषण औ’ आशीष दिया,
उसने देवी के सम्मुख आदर पूर्वक नत निज शीश किया।
बोलीं माता—“तुम अंश हमारे, पुत्र हमारे, हो प्यारे,
तुम प्रिय सबसे हो सुत मेरे, है नहीं दूसरा तुम सा रे;
तुम सभी गणों के हो स्वामी इसलिये नाम गणपति, गणेश,
तुमको है नहीं किसी का डर हों विधि या हरि या हों महेश।”
बोले गणेश तब--“हे माता मुझको क्यों जीवनदान दिया,
वह कौन असंभव कार्य जिसलिए है मेरा निर्माण किया।”
माता बोलीं--“इक कार्य बहुत छोटा सा तुमको है करना,
है घर का मुख्य द्वार तुमको हर पल हर क्षण रक्षित रखना;
मेरी आज्ञा के बिना कोइ भी भीतर न आने पाये,
वह हो कोई भी और कहीं से भी हठ करता वह आये।”
ऐसा कह माता ने इक छोटी सुदृढ़ छड़ी गणेश को दी,
फिर परमऊर्जा अपनी उसमें सारी की सारी भर दी;
हाथों में लेकर परमदण्ड आए गणेश दरवाजे पर,
माता होकर निश्चिन्त चलीं करने स्नान तब गृह भीतर।

[४]
छंद : तोमर

जटा बीच गंगधार,
करते लीला अपार,
बहुविधि नाना प्रकार;
आये प्रभु तभी द्वार।
खड़े थे गणेश वहीं,
बोले—“रुक जाओ यहीं,
माता हैं स्नान करें,
अभी आप धैर्य धरें;
देवि मिलना चाहेंगी,
तो स्वयं बुलायेंगी;
बिना उनकी आज्ञा के,
कोई भी जा न सके।”
यह सुन प्रभु तमक उठे,
रोम रोम भभक उठे,
बोले प्रभु—“अरे मूर्ख,
मारूँ मैं एक फूँक,
तो हिलती धरती है,
तेरी क्या हस्ती है;
जानता नहीं क्या तू,
मैं ही जगकर्ता हूँ,
मैं ही जगभर्ता हूँ,
मैं ही जगहर्ता हूँ,
विधि-हरि का सृष्टा हूँ
मैं त्रिकालदृष्टा हूँ,
पर तुझको तो मेरे,
सेवक ये बहुतेरे,
ही बेबस कर देंगे,
तव घमंड हर लेंगे।”
यह सुनकर गण बोले--
“क्रोधित हैं बम-भोले,
तुमको शिव-गण समान,
अब तक हम रहे मान,
वरना क्या तुम्हें ज्ञान,
कबका हर लेते प्रान,
इसी में भलाई अब,
थोड़ा सा जाओ दब,
रास्ते से हट जाओ,
मृत्यू से बच जाओ।”
बोले यह सुन गणेश,
“चाहे ये हों महेश
या हों जगसृष्टा ये,
या त्रिकालदृष्टा ये,
मैं आज्ञा पालक हूँ,
माता का बालक हूँ,
बिना मातृ आज्ञा के,
भीतर ये जा न सकें।”
यह सुनकर गण सारे,
बोले—“प्रभु हम हारे,
समझा-समझा इसको,
ये सुनता ना हमको,
जिद्दी यह लड़का है,
बुद्धी से कड़का है।”
गणों से ऐसा सुनकर,
बोले तब शिव शंकर,
“महारथी हो तुम सब,
इसकी क्यों सुनते अब,
मुझे कथा मत सुनाओ,
इसे द्वार से हटाओ।”

[५]
छंद : रोला

भोले भण्डारी के मुख से ऐसा सुनकर,
सारे आए अस्त्र शस्त्र हाथों में लेकर।
सबसे पहले नन्दी ने निज बल अजमाया,
महाऊर्जा ने झटका दे दूर हटाया;
एक बार जो गिरा दुबारा उठ ना पाया,
देख दशा नन्दी की सब का जी घबराया।
किन्तु क्रोध भोले का तभी ध्यान में आया,
सबने एक साथ मिलकर भुजबल दिखलाया;
पर अपार है भोले-भंडारी की माया,
महाऊर्जा ने वह झटका पुनः लगाया;
सबके सब गिर गये पलों में मूर्च्छित होकर,
दूर खड़े बस मुसकाते थे भोले-शंकर;
सोचा प्रभु ने कर दें गर्व चूर देवों का,
फूल गये सब कर सेवन पूजा-मेवों का।
इन्द्र देव को तब प्रभु ने तत्काल बुलाया,
अग्नि, पवन, दिनकर को भी वह सँग सँग लाया;
अग्नि देव सबसे पहले थे आगे आए,
आकर गौरीसुत पर सारे बल अजमाए;
अग्नि क्या करे जहाँ स्वयं हो महाऊर्जा,
पवन देव डर गये देख वह परमऊर्जा;
दिनकर जाकर छुपे पहाड़ों के पीछे फिर,
वरुण देव क्या करते हारे वे भी आखिर;
इन्द्र देव का वज्र पिघलकर मिला धरा में,
तथा मदन थे काँप रहे ज्यों वृद्ध जरा में;
आये तब विधि, हरि शस्त्रों से सज्जित होकर,
चक्र सुदर्शन लौटा ले शिवसुत के चक्कर;
सारे अस्त्र शस्त्र थे लौटे निष्फल होकर,
विधि, हरि देख रहे थे यही अचम्भित होकर।
इन सबका कर गर्व चूर शिव आगे आए,
शस्त्र उन्होंने भाँति भाँति के तब अजमाए;
अस्त्र शस्त्र गिर गए सभी जब निष्फल होकर,
तब जाकर थे क्रुद्ध हुए प्रभु भोले शंकर;
नेत्र तीसरा तभी उन्होंने अपना खोला,
निकला आदि ऊर्जा का उससे एक शोला;
महाऊर्जा हटी राह से शीश झुकाए,
मगर खड़े थे गौरीसुत निज शीश उठाये।
आदि ऊर्जा भस्म कर गई मस्तक उनका,
तड़प उठा होकर विहीन सर से धड़ उनका।

[६]

यह खबर गई माता का कोमल हृदय चीर,
दिल का लोहू टपका तब बनकर नयन नीर।
जब देखा माँ ने निज सुत का विच्छेदित तन,
तब बिलख बिलख कर रोया उनका कोमल मन।
ज्यों गंगाजल से निकल पड़ी हो महाअगन,
त्यों उनके मुख से थे निकले तब यही वचन।

XXX XXX XXX XXX

छंद : गीत

देवों दैत्यों का फर्क मिट गया आज!

एक नन्हे पौधे को कुचला,
इक कलिका को तुमने मसला,
तुमने बालक की हत्या की,
तुम महापाप के हो भागी,
आई ना तुमको सुरों जरा भी लाज!
देवों दैत्यों का फर्क मिट गया आज!

मानव बालक जिद करते हैं,
तो मानव पूरी करते हैं,
जिद अगर मानने योग्य नहीं,
तो समझाते हैं उसे सभी,
बहला फुसला सब करते अपना काज!
देवों दैत्यों का फर्क मिट गया आज!

तुम मानव से कुछ शिक्षा लो,
मत केवल पूजा-भिक्षा लो,
तुम मानव से भी निम्न आज,
तिस पर किंचित भी नहीं लाज,
तुम सबने पहना दानवता का ताज!
देवों दैत्यों का फर्क मिट गया आज!

मेरे बालक की क्या गलती,
यह तो मेरी ही आज्ञा थी,
निर्भय मेरा वह लालन था,
बस करता आज्ञा पालन था,
है मुझको अपने वीर पुत्र पर नाज!
देवों दैत्यों का फर्क मिट गया आज!

[७]
छंद : रोला

दिल का दर्द बहा नेत्रों से जैसे जैसे,
क्रोध उतरता आया उनमें वैसे वैसे।
सोचा माँ ने हुआ आज अपमान बड़ा है,
अहंकार नर का ही ये सशरीर खड़ा है;
नारीक्रोध आज इनको दिखलाना होगा,
इज्जत नारी की करना सिखलाना होगा;
क्रोध बढ़ा जगमाता का फिर जैसे जैसे,
काली रूप उभरता आया वैसे वैसे।
रूप महाकाली का क्या लिक्खूँ कैसा था,
धारण किया शरीर प्रलय ने कुछ ऐसा था;
उसे देख भयभीत हो गये शिवगण सारे,
दौड़े, भागे, छिपे सभी जा जा बेचारे;
काली करने लगीं द्रव्य-ऊर्जा रूपान्तर,
जलने लगीं दिशाएँ, सुलगे धरती अंबर;
लगे चीखने गण, काँपे देवों के अंतर,
निकट सृष्टि का अंत देखकर भोले शंकर;
बोले, “देवों! रुष्ट हो गईं हैं जगमाता,
माँ बेटे का होता है कुछ ऐसा नाता;
बेटे का अरि होता है माता का दुश्मन,
इसीलिए अब उमा-शत्रु से हैं हम सब जन;
महासमस्या है जल्दी हल करना होगा,
गौरीसुत को फिर से चंचल करना होगा;
भस्म कर चुकी हो जिसको खुद आदि ऊर्जा,
उसको फिर साकार नहीं कर सकता दूजा;
कामदेव को भस्म किया था इसने सारा,
बना अनंग घूमता तबसे वह बेचारा;
जाओ, दौड़ो, खोजो समय बहुत ही कम है,
ढूँढो कोई जिसमें गणपति सम दम-खम है;
उसका सिर लेकर आओ अतिशीघ्र तुम सभी,
सृष्टि बचेगी और बचोगे तुम सब तब ही।”
दौड़े सभी देवता औ’ शिवगण तब ऐसे,
देख काल को भागें सब नश्वर नर जैसे;
दिखा एक गज महाकाय तब अतिबलशाली,
काटा शीश, तोड़ता ज्यों कलिका को माली;
लेकर आये, धन्वन्तरि तैयार खड़े थे,
जोड़ा सिर को धड़ से, वे होशियार बड़े थे;
भोले शंकर तब मुस्काकर आगे आये,
थोड़ी प्राण ऊर्जा अपनी सँग ले लाये;
वही ऊर्जा अपनी जब गणपति में डाली,
हुआ पुत्र सम्पूर्ण सोच मुस्का दीं काली;
गणपति उठे तेज शिव औ’ शक्ती का लेकर,
उन्हें साथ ले आगे आए भोले शंकर।
बोले काली से, “देवी अब शांति धरो तुम,
अखिल सृष्टि का ऐसे मत विध्वंस करो तुम;
पुत्र तुम्हारा है जीवित, अजेय, बलशाली,
अब तो बनो शिवा हे महाकाल की काली;
अनजाने में तुम्हरा जो अपमान किया है,
आज उसी की खातिर यह वरदान दिया है;
नारी नाम सदा नर से पहले आएगा,
भोले शंकर गौरीशंकर कहलाएगा;
नारी की आहुति बिन यज्ञ अपूर्ण रहेंगे,
मुझे आज से गौरीपति सब लोग कहेंगे;
बिन प्रयास वह पुरुष हृदय पर राज करेगी,
अखिल सृष्टि इक दिन नारी पर नाज करेगी;
नारी का अपमान करेगा जो कोई भी,
होगा नष्ट समूल देव हो या कोई भी;
जिस भी घर में नारी का सम्मान रहेगा,
उस घर का निज देश जाति में मान रहेगा;
इसीलिए हे गौरी अब निज क्रोध तजो तुम,
भजो भजो, हे देवो! जय जय उमा भजो तुम।”
लगे देव सब कहने जय जय खप्परवाली,
करो कृपा हम सबपर महाकाल की काली।
हे अम्बे, जगदम्बे, हे जगमाता जय हो,
हे परमेश्वरि, शिवे, आदिशक्ती जय जय हो;
शांत करो निज क्रोध दया तुम दिखलाओ माँ,
करो सृष्टि पर कृपा पुत्र को दुलराओ माँ।
आगे बढ़े गणेश और फिर बोले माता,
हो जाओ अब शान्त दयामयि! हे जगमाता!
सुने पुत्र के वचन मधुर तो माता पिघलीं,
काली रूप तजा औ’ बनकर गौरी निकलीं;
बोलीं जगमाता तब सब से, “हे बड़भागी,
हुए आज तुम सब बालक-हत्या के भागी;
इसका प्रायश्चित तुम सबको करना होगा,
देवों की महिमा को जीवित रखना होगा।”
सभी देवता कर प्रणाम माँ को बोले तब,
हमसे पहले गणपति की पूजा होगी अब;
यज्ञ भाग सबसे पहले गणपति का होगा,
गणपति की पूजा बिन सबकुछ निष्फल होगा;
हैं गणेश अब से ही सर्वाध्यक्ष सुरों के,
पूज्य आज से देव, नरों, अक्षों, असुरों के।
सब बच्चों में प्रभो स्वयं अब वास करेंगे,
बालक सेवा करने से दुख नाश करेंगे;
बालक की मुस्कान हमें नित ऊर्जा देगी,
बालक दुख में दरिद्रता ही वास करेगी;
पूजा सबसे बड़ी, हँसी नन्हें बालक की,
बाकी सारी पूजा इसके बाद है आती।
नारी का सम्मान सिखा देवों को माता,
हुईं प्रसन्न देख बालक-ईश्वर का नाता।

छंद : दोहा

गौरीसुत का तेजमय, सुन्दर मुख अवलोक।
वर दे निज सामर्थ्य के, गए सभी निज लोक॥

नारी का सम्मान औ’ हर बालक को प्यार।
करता जो भी जन, सदा, पाता खुशी अपार॥

हर्षित थे भोले बहुत, पूर्ण हुआ यह काम।
प्रथम पूज्य के रूप में, स्वीकृत गणपति नाम॥

शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

ग़ज़ल: एक आँसू आँख से बाहर छलकता रोज ही

एक आँसू आँख से बाहर छलकता रोज ही
जख़्म यूँ तो है पुराना पर कसकता रोज ही।

थी मिली मुझसे गले तू पहली-पहली बार जब
वक्त की बदली में वो लम्हा चमकता रोज ही।

कोशिशें करता हूँ सारा दिन तुझे भूलूँ मगर
चूम कर तस्वीर तेरी मैं सिसकता रोज ही।

इक नई मुश्किल मुझे मिल जाती है हर मोड़ पर,
क्या ख़ुदा की आँख में मैं हूँ खटकता रोज ही।

लिख गया तकदीर में जो रोज बिखरूँ टूट कर
आखिरी पल मैं उसी को हूँ पटकता रोज ही।

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

ग़ज़ल: लुटके मस्जिद से हम नहीं आते

लुटके मस्जिद से हम नहीं आते
मयकदे में कदम नहीं आते

कोई बच्चा कहीं कटा होगा
गोश्त यूँ ही नरम नहीं आते

आग दिल में नहीं लगी होती
अश्क इतने गरम नहीं आते

भूख से फिर कोई मरा होगा
यूँ ही जलसों में रम नहीं आते

प्रेम में गर यकीं हमें होता
इस जहाँ में धरम नहीं आते

कोई अपना ही बेवफ़ा होगा
यूँ ही आँगन में बम नहीं आते

सोमवार, 31 जनवरी 2011

ग़ज़ल : कबूतर छल रहा है

कबूतर छल रहा है
बवंडर पल रहा है ।१।

वही है शोर करता
जो सूखा नल रहा है ।२।

मैं लाया आइना क्यूँ
ये उसको खल रहा है ।३।

दिया ही तो जलाया
महल क्यूँ गल रहा है ।४।

छुवन वो प्रेम की भी
अभी तक मल रहा है ।५।

डरा बच्चों को ही अब
बड़ों का बल रहा है ।६।

वो मेरे स्नेह से ही
मेरा दिल तल रहा है ।७।

छुआ जिसको खुदा ने
वही घर जल रहा है ।८।

दहाड़े जा रहा वो
जो गीदड़ कल रहा है ।९।

जिसे सींचा लहू से
वही खा फल रहा है ।१०।

उगा तो जल चढ़ाया
अगिन दो ढल रहा है ।११।

सोमवार, 24 जनवरी 2011

गणतंत्र दिवस के अवसर पर एक ग़ज़ल

देश के कण कण से औ’ जन जन से मुझको प्यार है
जिसके दिल से ये सदा आए न वो गद्दार है ।१।

अंग अपना ही कभी था रंजिशें जिससे हुईं
लड़ रहे हम युद्ध जिसकी जीत में भी हार है ।२।

इश्क ने तेरे मुझे ये क्या बनाकर रख दिया
लौट कर आता उसी चौखट जहाँ दुत्कार है ।३।

है अगर हीरा तुम्हारे पास तो कोशिश करो
पत्थरों से काँच को यूँ छाँटना बेकार है ।४।

हों हवाओं में मनोहर खुशबुएँ कितनी भी पर
नीर से ही मीन की है जिंदगी, संसार है ।५।

तैरना तू सीख ले पानी ने लाशों से कहा
अब भँवर की ओर जाती हर नदी की धार है ।६।

देश की मिट्टी थी खाई मैंने बचपन में कभी
इसलिए अब चाहतों की खून से तकरार है ।७।

मारने वाला पकड़ में आ न पाया तो कहा
इन गरीबों पर पड़ी भगवान की ये मार है ।८।

हम हुए इतने विषैले हों अमर इस चाह में
कल तलक था कोबरा जो अब हमारा यार है ।९।

न्याय कैसे देख पाए आँख पर पट्टी बँधी
एक पलड़े की तली में अब जियादा भार है ।१०।

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

कविता : गूलर का फूल

सैकड़ों किस्सों में आया
गूलर के फूल का नाम

गली गली चर्चा हुई
गूलर के फूल की

न जाने कितनों ने दुआ माँगी
अगले जन्म में गूलर का फूल हो जाने की

गूलर का फूल बेचारा
फल के अन्दर बन्द
खुली हवा में साँस लेने को तरसता रहा

कीड़ों ने उसमें अपना घर बना लिया
उसकी खुशबू
उसका पराग लूटते रहे

गूलर का फूल दुआ माँगता रहा
ईश्वर अगले जन्म में मुझे कुछ भी बना देना
बस गूलर का फूल मत बनाना।

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

दस हाइकु

मंत्र-मानव
प्रगति कर बना
यंत्र-मानव

नया जमाना
कैसे जिए ईश्वर
वही पुराना

ढूँढे ना मिली
खो गई है कविता
शब्दों की गली

बात अजीब
सेवक हैं अमीर
लोग गरीब

फलों का भोग
भूखों मरे ईश्वर
खाएँ बंदर

क्या उत्तर दें
राम कृष्ण से बन
सीता राधा को

पहाड़ उठे
खाई की गर्दन पे
पाँव रखके

माँ का आँचल
है कष्टों की घूप में
नन्हा बादल

आँखें हैं झील
पलकें जमीं बर्फ
मछली सा मैं

हवा में आके
समझा मछली ने
पानी का मोल

रविवार, 2 जनवरी 2011

ग़ज़ल : ग़ज़ल पर ग़ज़ल क्या कहूँ मैं

बहर : फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
बहरे मुतकारिब मुसद्दस सालिम

ग़ज़ल पर ग़ज़ल क्या कहूँ मैं
यही बेहतर चुप रहूँ मैं

तेरे रूप की धूप गोरी
तेरे गेसुओं से सहूँ मैं

न तेजाब है ना अगन तू
तुझे छूके फिर क्यूँ दहूँ मैं

न चिंता मुझे दोजखों की
जमीं पर ही जन्नत लहूँ मैं

जो दीवार बन तुझको रोकूँ
कसम मुझको फौरन ढहूँ मैं

तेरे प्यार की धार में ही
मरूँ या बचूँ पर बहूँ मैं

शनिवार, 1 जनवरी 2011

गीत : साल जाता है पुराना

काँपता सा वर्ष नूतन
आ रहा, पग डगमगाएँ
साल जाता है
पुराना सौंप कर घायल दुआएँ

आरती है अधमरी सी
रोज बम की चोट खाकर
मंदिरों के गर्भगृह में
छुप गए भगवान जाकर
काम ने निज पाश डाला
सब युवा बजरंगियों पर
साहसों को
जकड़ बैठीं वृद्ध मंगल कामनाएँ

है प्रगति बंदी विदेशी
बैंक के लॉकर में जाकर
रोज लूटें लाज घोटाले
गरीबी की यहाँ पर
न्याय सोया है समितियों
की सुनहली ओढ़ चादर
दमन के हैं
खेल निर्मम क्रांति हम कैसे जगाएँ

लपट लहराकर उठेगी
बंदिनी इस आग से जब
जलेंगे सब दनुज निर्मम
स्वर्ण लंका गलेगी तब
पर न जाने राम का वह
राज्य फिर से आएगा कब
जब कहेगा
समय आओ वर्ष नूतन मिल मनाएँ