गुरुवार, 2 जनवरी 2014

ग़ज़ल : इश्क जबसे वो करने लगे

बह्र : २१२ २१२ २१२
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इश्क जबसे वो करने लगे
रोज़ घंटों सँवरने लगे

गाल पे लाल बत्ती हुई
और लम्हे ठहरने लगे

दिल की सड़कों पे बारिश हुई
जख़्म फिर से उभरने लगे

प्यार आखिर हमें भी हुआ
और हम भी सुधरने लगे

इश्क रब है ये जाना तो हम
प्यार हर शै से करने लगे

कर्म अच्छे किये हैं तो क्यूँ
भूत से आप डरने लगे

रविवार, 8 दिसंबर 2013

ग़ज़ल : तेज धुन झूठ की वो बजाने लगा

बह्र : 212 212 212 212
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तेज धुन झूठ की वो बजाने लगा
ताल पर उसकी सबको नचाने लगा

उसके चेहरे से नीयत न भाँपे कोई
इसलिये मूँछ दाढ़ी बढ़ाने लगा

सबसे कहकर मेरा धर्म खतरे में है
शेष धर्मों को भू से मिटाने लगा

वोट भूखे वतन का मिले इसलिए
गोल पत्थर को आलू बताने लगा

सुन चमत्कार को ही मिले याँ नमन
आँकड़ों से वो जादू दिखाने लगा

गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

ग़ज़ल : क्यूँ जाति की न अब भी दीवार टूटती है

बह्र : २२१ २१२२ २२१ २१२२
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इक दिन हर इक पुरानी दीवार टूटती है
क्यूँ जाति की न अब भी दीवार टूटती है

इसकी जड़ों में डालो कुछ आँसुओं का पानी
धक्कों से कब दिलों की दीवार टूटती है

हैं लोकतंत्र के अब मजबूत चारों खंभे
हिलती है जब भी धरती दीवार टूटती है

हथियार ले के आओ, औजार ले के आओ
कब प्रार्थना से कोई दीवार टूटती है

रिश्ते बबूल बनके चुभते हैं जिंदगी भर
शर्मोहया की जब भी दीवार टूटती है

शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

ग़ज़ल : क्यूँ वो अक्सर मशीन होते हैं

बह्र : २१२२ १२१२ २२

याँ जो बंदे ज़हीन होते हैं
क्यूँ वो अक्सर मशीन होते हैं

बीतना चाहते हैं कुछ लम्हे
और हम हैं घड़ी न होते हैं

प्रेम के वो न टूटते धागे
जिनके रेशे महीन होते हैं

वन में उगने से, वन में रहने से
पेड़ सब जंगली न होते हैं

उनको जिस दिन मैं देख लेता हूँ
रात सपने हसीन होते हैं

खट्टे मीठे घुले कई लम्हे

यूँ नयन शर्बती न होते हैं

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

ग़ज़ल : जब से हुई मेरे हृदय की संगिनी मेरी कलम

बह्र : २२१२ २२१२ २२१२ २२१२

जब से हुई मेरे हृदय की संगिनी मेरी कलम
हर पंक्ति में लिखने लगी आम आदमी मेरी कलम

जब से उलझ बैठी हैं उसकी ओढ़नी, मेरी कलम
करने लगी है रोज दिल में गुदगुदी मेरी कलम

कुछ बात सच्चाई में है वरना बताओ क्यों भला
दिन रात होती जा रही है साहसी मेरी कलम

यूँ ही गले मिल के हैलो क्या कह गई पागल हवा
तब से न जाने क्यूँ हुई है बावरी मेरी कलम

उठती नहीं जब भी किसी का चाहता हूँ मैं बुरा
क्या खत्म करने पर तुली है अफ़सरी मेरी कलम

सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

ग़ज़ल : वो पगली बुतों में ख़ुदा चाहती है

बह्र : फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन

मेरे संगदिल में रहा चाहती है
वो पगली बुतों में ख़ुदा चाहती है

सदा सच कहूँ वायदा चाहती है
वो शौहर नहीं आइना चाहती है

उतारू है करने पे सारी ख़ताएँ
नज़र उम्र भर की सजा चाहती है

बुझाने क्यूँ लगती है लौ कौन जाने
चरागों को जब जब हवा चाहती है

न दो दिल के बदले में दिल, बुद्धि कहती
मुई इश्क में भी नफ़ा चाहती है

शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

कविता : नोएडा

चिड़िया के दो बच्चों को
पंजों में दबाकर उड़ रहा है एक बाज

उबलने लगी हैं सड़कें
वातानुकूलित बहुमंजिली इमारतें सो रही हैं

छोटी छोटी अधबनी इमारतें
गरीबी रेखा को मिटाने का स्वप्न देख रही हैं
पच्चीस मंजिल की एक अधबनी इमारत हँस रही है

कीचड़ भरी सड़क पर
कभी साइकिल हाथी को ओवरटेक करती है
कभी हाथी साइकिल को

साइकिल के टायर पर खून का निशान है
जनता और प्रशासन ये मानने को तैयार नहीं हैं
कि साइकिल के नीचे दब कर कोई मर सकता है

अपने ही खून में लथपथ एक कटा हुआ पंजा
और मासूमों के खून से सना एक कमल
दोनों कीचड़ में पड़े-पड़े, आहिस्ता-आहिस्ता सड़ रहे हैं

कच्ची सड़क पर एक काली कार
सौ किलोमीटर प्रति घंटा की गति से भाग रही है
धूल ने छुपा रखी हैं उसकी नंबर प्लेटें

कंक्रीट की क्यारियाँ सींचने के लिए
उबलती हुई सड़क पर
ठंढे पानी से भरा हुआ टैंकर खींचते हुये
डगमगाता चला जा रहा है एक बूढ़ा ट्रैक्टर

शीशे की वातानुकूलित इमारत में
सबसे ऊपरी मंजिल पर बैठा महाप्रबंधक
अर्द्धपारदर्शी पर्दे के पीछे से झाँक रहा है
उसे सफेद चींटी जैसे नजर आ रहे हैं
सर पर कफ़न बाँधे
सड़क पर चलते दो इंसान

हरे रंग की टोपी और टी-शर्ट पहने
स्वच्छ पारदर्शक पानी से भरी
एक लीटर और आधा लीटर की
दो खूबसूरत पानी की बोतलें
महाप्रबंधक की मेज पर बैठी हैं
उनकी टी शर्ट पर लिखा है
पूरी तरह शुद्ध, बोतल बंद पीने का पानी
अतिरिक्त खनिजों के साथ

उनकी टी शर्ट पर पीछे की तरफ कुछ बेहूदे वाक्य लिखे हैं
जैसे
सूर्य के प्रकाश से दूर ठंढे स्थान पर रखें
छः महीने के भीतर ही प्रयोग में लायें
प्रयोग के बाद बोतल को कुचल दें

केंद्र में बैठा सूरज चुपचाप सब देख रहा है
पर सूरज या तो प्रलय कर सकता है
या कुछ नहीं कर सकता

सूरज छिपने का इंतजार कर रही है
रंग बिरंगी ठंढी रोशनी

सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

ग़ज़ल : सच वो थोड़ा सा कहता है

सच वो थोड़ा सा कहता है
बाकी सब अच्छा कहता है

दंगे ऐसे करवाता वो
काशी को मक्का कहता है

दौरे में जलते घर देखे
दफ़्तर में हुक्का कहता है

कर्मों को माया कहता वो
विधियों को पूजा कहता है

जबसे खून चखा है उसने
इंसाँ को मुर्गा कहता है

खेल रहा वो कीचड़ कीचड़
उसको ही चर्चा कहता है

चलता है जो खुद सर के बल
वो सबको उल्टा कहता है

तेरा क्या होगा रे ‘सज्जन’
अंधे को अंधा कहता है

बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

ग़ज़ल : जब से तू निकली दिल से हम सरकारी आवास हो गये

बह्र : मुस्तफ़्फैलुन मुस्तफ़्फैलुन मुस्तफ़्फैलुन मुस्तफ़्फैलुन
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जुड़ो जमीं से कहते थे जो वो खुद नभ के दास हो गये
आम आदमी की झूठी चिन्ता थी जिनको, खास हो गये

सबसे ऊँचे पेड़ों से भी ऊँचे होकर बाँस महोदय
आरक्षण पाने की खातिर सबसे लम्बी घास हो गये

तन में मन में पड़ीं दरारें, टपक रहा आँखों से पानी
जब से तू निकली दिल से हम सरकारी आवास हो गये

बात शुरू की थी अच्छे से सबने खूब सराहा भी था
लेकिन सबकुछ कह देने के चक्कर में बकवास हो गये

ऐसे डूबे आभासी दुनिया में हम सब कुछ मत पूछो
नाते, रिश्ते और दोस्ती सबके सब आभास हो गये

शब्द पुराने, भाव पुराने रहे ठूँसते हर मिसरे में
कायम रहे रवायत इस चक्कर में हम इतिहास हो गये

गुरुवार, 19 सितंबर 2013

ग़ज़ल : मिलजुल के जब कतार में चलती हैं चींटियाँ

बह्र : २२१ २१२१ १२२१ २१२

मिलजुल के जब कतार में चलती हैं चींटियाँ
महलों को जोर शोर से खलती हैं चींटियाँ

मौका मिले तो लाँघ ये जाएँ पहाड़ भी
तीखी ढलान पर न फिसलती हैं चींटियाँ

आँचल न माँ का सर पे न साया है बाप का
जीवन की तेज धूप में पलती हैं चींटियाँ

चलना सँभल के, राह में जाएँ न ये कुचल
खाने कमाने रोज निकलती हैं चींटियाँ

शायद कहीं मिठास है मुझमें बची हुई
अक्सर मेरे बदन पे टहलती हैं चींटियाँ