गुरुवार, 26 जनवरी 2012

नवगीत : मुफ़्त के संबंध मत दो

मुफ़्त के संबंध मत दो

बंधंनों का बोझ ढेरों
सह चुकी हूँ
तोड़कर मैं बाँध सारे
बह चुकी हूँ

कल मुझे जिससे घुटन हो
आज वह अनुबंध मत दो

पुत्र, भाई, तात सब
अधिकार चाहें
मित्र केवल शब्द ही
दो-चार चाहें

टूट जाऊँ भार से, वह
स्वर्ण का भुजबंध मत दो

क्या जरूरी है करें
संवाद पूरा
हो न पाया जो सहज
छोड़ें अधूरा

जिंदगी भर जो न टूटे
प्लीज, वह सौगंध मत दो

9 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर भावों से सुसज्जित यह नवगीत काफी पसंद आया. हार्दिक बधाई.

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  2. भाई धर्मेन्द्र जी बहुत सुंदर नवगीत बधाई |

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    1. शनिवार के चर्चा मंच पर
      आपकी रचना का संकेत है |

      आइये जरा ढूंढ़ निकालिए तो
      यह संकेत ||

      हटाएं
  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति ।
    बसंत पंचमी और माँ सरस्वती पूजा की हार्दिक शुभकामनाएँ । मेरे ब्लॉग "मेरी कविता" पर माँ शारदे को समर्पित 100वीं पोस्ट जरुर देखें ।

    "हे ज्ञान की देवी शारदे"

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  4. भाव विशेष को उभारती सुगढ़ रचना.. .

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  5. क्या आपकी उत्कृष्ट-प्रस्तुति

    शुक्रवारीय चर्चामंच

    की कुंडली में लिपटी पड़ी है ??

    charchamanch.blogspot.com

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  6. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति आज charchamanch.blogspot.com par है |

    जवाब देंहटाएं

जो मन में आ रहा है कह डालिए।