मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

ग़ज़ल : तभी जाके ग़ज़ल पर ये गुलाबी रंग आया है

बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२

महीनों तक तुम्हारे प्यार में इसको पकाया है
तभी जाके ग़ज़ल पर ये गुलाबी रंग आया है

अकेला देख जब जब सर्द रातों ने सताया है
तुम्हारा प्यार ही मैंने सदा ओढ़ा बिछाया है

किसी को साथ रखने भर से वो अपना नहीं होता
जो मेरे दिल में रहता है हमेशा, वो पराया है

तेरी नज़रों से मैं कुछ भी छुपा सकता नहीं हमदम
बदन से रूह तक तेरे लिए सबकुछ नुमाया है

कई दिन से उजाला रात भर सोने न देता था
बहुत मजबूर होकर दीप यादों का बुझाया है

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

ग़ज़ल : ढंग अलग हो करने का

बह्र : २२ २२ २२ २
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जीने का या मरने का
ढंग अलग हो करने का

सबका मूल्य बढ़ा लेकिन
भाव गिर गया धरने का

आज बड़े खुश मंत्री जी
मौका मिला मुकरने का

सिर्फ़ वोट देने भर से
कुछ भी नहीं सुधरने का

कूदो, मर जाओ `सज्जन'
नाम तो बिगड़े झरने का

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

कविता : पूँजीवादी ईश्वर

फल, फूल, धूप, दीप, नैवेद्य, अगरबत्ती, कर्पूर
मिठाई, पूजा, आरती, दक्षिणा
चुपचाप ये सबकुछ ग्रहण कर लेगा

अगर देना चाहोगे जानवरों या इंसानों की बलि
उसे भी ये चुपचाप स्वीकार कर लेगा

पर जब माँ बनते हुए बिगड़ जाएगी तुम्हारी बहू या बेटी की हालत
तब उसे छोड़कर किसी बड़े अस्पताल में किसी बड़े आदमी की
बहू या बेटी के सिरहाने डाक्टरों की फ़ौज बनकर खडा हो जाएगा

जब किसी झूठे केस में गिरफ़्तार कर लिया जाएगा तुम्हारा बेटा
तब उसे छोड़कर किसी अमीर बाप के बिगड़े बेटे को बचाने के लिए
वकीलों की फ़ौज बनकर खड़ा हो जाएगा

जब तुम स्वर्ग जाने की आशा में
किसी तरह अपनी जिन्दगी के अंतिम दिन काट रहे होगे
तब ये किसी अमीर बूढ़े के लिए
धरती पर स्वर्ग का इंतजाम कर रहा होगा
ये तुम्हारा ईश्वर नहीं है
तुम्हारा ईश्वर तो कब का मर चुका है

अब जो दुनिया चला रहा है
वो ईश्वर पूँजीवादी है

शनिवार, 5 अप्रैल 2014

ग़ज़ल : सदा सच बोलने वाला कभी अफ़सर नहीं होता

बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२

कहीं भी आसमाँ पे मील का पत्थर नहीं होता
भटक जाते परिंदे, गर ख़ुदा, रहबर नहीं होता

कहें कुछ भी किताबें, देश का हाकिम ही मालिक है
दमन की शक्ति जिसके पास हो, नौकर नहीं होता

बचा पाएँगी मच्छरदानियाँ मज़लूम को कैसे
यहाँ जो ख़ून पीता है महज़ मच्छर नहीं होता

मिलाकर झूठ में सच बोलना, देना जब इंटरव्यू
सदा सच बोलने वाला कभी अफ़सर नहीं होता

शज़र को फिर हरा कर ही नहीं पाता कोई मौसम
जो पीलापन मिटाने के लिए पतझर नहीं होता