धूल के कणों की एक अलग ही कहानी है
किसी जमाने में गर्व से सीना ताने
सिर ऊँचा उठाए खड़े
बड़े बड़े पहाड़ थे ये
प्रकृति को चुनौती देते हुए
प्रकृति की शक्तियों से लड़ते हुए
अपने आप को अजेय समझते थे
पर प्रकृति चुपचाप अपने काम में लगी रही
आहिस्ता आहिस्ता इन्हें काटती रही
तोड़ती रही
धीरे धीरे ये धूल के कण बन गए
और पाँवो की ठोकरों से इधर उधर बिखरने लगे
पर नए पहाड़ों ने इनसे कुछ नहीं सीखा
वो आज भी सीना ताने
प्रकृति को चुनौती देते
सर उठाए खड़े हैं
प्रकृति लगी हुई है
अपने काम में
आहिस्ता आहिस्ता
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
प्रकृति लगी हुई है,
जवाब देंहटाएंअपने काम में,
आहिस्ता आहिस्ता
-बहुत उम्दा!