मंगलवार, 27 मार्च 2012

कविता : ब्रह्मांड और समय बनाम महाकाव्य और उपन्यास

ब्रह्मांड कागज़ का गुब्बारा है
ऊर्जा और द्रव्य अक्षर हैं
हम सब शब्द हैं

कागज़ का गुब्बारा फूल रहा है
स्वर से अलग व्यंजन का अस्तित्व नहीं होता
समय बदल रहा है शब्दों के अर्थ
पैदा हो रहे हैं नए महाकाव्य और उपन्यास

कुछ भी नष्ट नहीं होता
शब्द अक्षरों में टूटकर करते हैं नई नई यात्राएँ

कुछ शब्दों को होता है होने का अहसास
समय हँसता है

फट जाएगा एक दिन कागज़ का गुब्बारा
नए गुब्बारे पर नया समय फिर से लिखेगा
महाकाव्य और उपन्यास
इस बात से बेखबर
कि ये सारे महाकाव्य और उपन्यास
पहले भी लिखे जा चुके हैं

10 टिप्‍पणियां:

  1. अरवीला रविकर धरे, चर्चक रूप अनूप |
    प्यार और दुत्कार से, निखरे नया स्वरूप ||

    आपकी टिप्पणियों का स्वागत है ||

    बुधवारीय चर्चा-मंच

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  2. yahi to samay chakra hai palat kar itihaas bhi racha jaata hai bas roop badal jaata hai parantu punaravratti hoti rahti hai.bahut achcha gubbaare ke bimb se rachna ko saarthak roop diya hai.

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  3. काव्य और विज्ञानं का अनूठा समन्वय ... लाजवाब रचना ...

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  4. सुन्दर रचना!

    कि ये सारे महाकाव्य और उपन्यास
    पहले भी लिखे जा चुके हैं
    ===दुनिया चक्रीय व्यवस्था है....य्ह विश्णु का चक्र है जो चलता रहता है

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  5. सृष्टि के जन्म सी कथा सुनाती है यह रचना ,सृष्टि सच मच विस्तार शील है बनती है बिगडती है बारहा .कथा यही बिग बैंग की .बढ़िया रचना .

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  6. ap kaise likh lete hai ???itna badhiya....wigyan aur sahitya ka adbhut sangam

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जो मन में आ रहा है कह डालिए।