रविवार, 14 सितंबर 2025

कविता : शोक-संदेश

अथाह दुःख और गहरी वेदना के साथ
आप सबको यह सूचित करना पड़ रहा है कि
आज हमारे बीच वह नहीं रहे
जिन्हें युगों से
ईश्वर, ख़ुदा, भगवान, परमात्मा इत्यादि कहकर पुकारा जाता था

उनकी कोई देह न थी,
पर उनकी अनुपस्थिति की धूल
हर आँगन, मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर में
बेआवाज़ बिखर चुकी है

उनकी मृत्यु पर
न मंदिरों में शंख बजे
न मस्जिदों में अज़ान उठी
न गिरजाघर की घंटियाँ बजीं
न आसमान गरजा
केवल एक अथाह, अंतहीन सन्नाटा
ब्रह्मांड की आत्मा में उतर गया

हम समस्त मानवजाति से विनम्र निवेदन करते हैं
कि वो पत्थर के मंदिरों, मस्जिदों और गिरिजाघरों में नहीं
बल्कि अपने हृदय के भीतर
भावों से बनी उस कोठरी में आयें
जो कभी विश्वास के सूरज से रोशन थी

अपनी अधूरी प्रार्थनाओं का दीपक जलाकर लाएँ
और आँसुओं से भीगे धर्मग्रंथों को चादर की तरह बिछाकर बैठें
और हाँ अपना विश्वास जरूर साथ लाएँ
क्योंकि वह बेचारा आज अनाथ हो गया

ईश्वर को श्रद्धांजलि देने के लिए
राजा-रंक सब एक पंक्ति में खड़े होंगे
किसी के हाथ में रामचरितमानस होगा
किसी के हाथ में कुरान
किसी के हाथ में बाइबल या गुरु ग्रंथ साहिब
धीरे धीरे सब किताबें
फूल-मालाएँ बन जाएँगी

अब शायद ईश्वर से रिक्त आकाश हमें सिखा दे
कि मनुष्य ही मनुष्य का सहारा है
सबसे पवित्र है एक-दूसरे का हाथ थाम लेना
सबसे बड़ा तीर्थ है किसी प्रियजन का कंधा
और सबसे बड़ा मंदिर है इंसान का दिल

गहन शोक सहित,
सम्पूर्ण संसार को समर्पित

रविवार, 7 सितंबर 2025

लेख : क्यों महान कवियों को अक्सर नॉबेल साहित्य पुरस्कार से वंचित रहना पड़ता है

 आइए देखें कि क्यों महान कवियों को अक्सर नॉबेल साहित्य पुरस्कार से वंचित रहना पड़ता है।

1. भाषाई बाधाएँ

  • कई महान कवि उन भाषाओं में लिखते हैं जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कम जानी-पहचानी हैं, जैसे मलयालम, तेलुगु, उर्दू, या स्थानीय अफ्रीकी और एशियाई भाषाएँ।

  • उनकी कविताओं का अंग्रेज़ी या स्वीडिश में अनुवाद कम होता है, जिससे जूरी तक उनकी वास्तविक प्रतिभा नहीं पहुँच पाती।

  • कविता में लय, अलंकार, शब्दों का खेल और सांस्कृतिक सूक्ष्मताएँ होती हैं, जो अनुवाद में अक्सर खो जाती हैं।

2. वैश्विक दृश्यता की कमी

  • कविताओं का पाठक वर्ग अपेक्षाकृत छोटा होता है।

  • कई कवियों की रचनाएँ अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं, एंथोलॉजी या साहित्यिक महोत्सवों तक नहीं पहुँच पाती।

  • उपन्यास और कहानियाँ व्यापक रूप से पढ़ी और प्रचारित होती हैं, जबकि कविता का प्रसार सीमित रहता है।

3. गद्य पर प्राथमिकता

  • नॉबेल समिति अक्सर उपन्यास, लघु-कथा, निबंध को प्राथमिकता देती है।

  • गद्य का मूल्यांकन आसान है क्योंकि इसकी पठनीयता और सांस्कृतिक संदर्भ समझना आसान होता है।

  • कविता संक्षिप्त और अत्यधिक व्यक्तिगत होती है, इसलिए तुलना करना कठिन होता है।

4. कविता का व्यक्तिगत और विषयगत स्वरूप

  • कविता का मूल्यांकन अत्यंत व्यक्तिगत होता है।

  • जूरी के सांस्कृतिक और साहित्यिक रुचियों का कविता के चयन में प्रभाव पड़ता है।

  • कुछ कविताएँ जूरी को भावनात्मक या बौद्धिक रूप से पूरी तरह प्रभावित नहीं कर पाती।

5. सामाजिक और राजनीतिक संवेदनाएँ

  • जो कवि सामाजिक आलोचना, विरोध या विवादास्पद विषय उठाते हैं, उन्हें अक्सर नजरअंदाज किया जाता है।

  • वहीं, जो कविताएँ स्थापित सामाजिक या राजनीतिक परिप्रेक्ष्य से मेल खाती हैं, उन्हें प्राथमिकता मिल सकती है।

6. रचनाओं तक सीमित पहुँच 

  • कई कवियों की रचनाएँ स्थानीय पत्रिकाओं या छोटे प्रकाशनों में प्रकाशित होती हैं।

  • जूरी के लिए इन्हें ढूँढना कठिन होता है।

  • डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म और अंतरराष्ट्रीय वितरण की कमी भी एक बाधा है।

7. समिति की प्राथमिकताएँ 

  • नॉबेल पुरस्कार का निर्णय एक छोटी समिति के व्यक्तिगत स्वाद और प्राथमिकताओं पर निर्भर होता है।

  • समिति कभी-कभी परिचित भाषाओं और साहित्यिक परंपराओं को प्राथमिकता देती है, जिससे विविध भाषाओं के कवियों की अनदेखी हो सकती है।

8. अनुवाद की गुणवत्ता 

  • कविता का प्रभाव अनुवाद की गुणवत्ता पर निर्भर करता है।

  • कई बार अनुवाद में कविता की लय, भावनात्मक गहराई, प्रतीकात्मकता और सांस्कृतिक संदर्भ खो जाते हैं।

  • खराब या अधूरा अनुवाद कवि की वास्तविक प्रतिभा को प्रभावित करता है।

9. वैश्विक साहित्यिक राजनीति 

  • कुछ क्षेत्रों और भाषाओं के कवियों को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रचारित किया जाता है।

  • बहुसंख्यक भाषाओं के कवियों के पास प्रकाशन, अनुवाद और नेटवर्किंग के अवसर कम होते हैं।

  • यह कवियों के वैश्विक पहचान में कमी का कारण बनता है।

10. कविता के प्रभाव के प्रति धारणा

  • कभी-कभी कविता को कम प्रभावशाली और व्यक्तिगत समझा जाता है।

  • उपन्यास या कथा साहित्य को व्यापक सामाजिक या व्यावसायिक प्रभाव के कारण प्राथमिकता दी जाती है।

कविता का नॉबेल पुरस्कार न मिलना प्रतिभा की कमी के कारण नहीं, बल्कि अनेक बाहरी और संरचनात्मक कारणों से होता है जो यह दर्शाता है की नोबल पुरस्कार का निर्णय लेने वाली समिति की अपनी सीमाएं हैं।

लेख : बाबा संस्कृति - ओशो से इंस्टाग्राम तक

ओशो ने अपने वक्तव्यों में परंपरागत धर्म, व्यवस्था और सामाजिक ढकोसलों पर तीखा प्रहार किया। उन्होंने ‘स्वतंत्र सोच’ और ‘स्वानुभव’ पर बल दिया, परंतु विडंबना यह रही कि उनके इर्द-गिर्द वही ‘भक्तिवाद’ उग आया जिसे वे तोड़ना चाहते थे। उन्होंने कहा था – “किसी के पीछे मत चलो”, पर आज उनके पीछे पूरी की पूरी पीढ़ियाँ चल रही हैं।

ओशो स्वयं में एक बौद्धिक विद्रोही थे, लेकिन उनकी शैली, रहन-सहन, बोलने का अंदाज़ और उनके शब्दों की आग ने भारत में एक ऐसी परंपरा को जन्म दिया जो अब ‘बाबा संस्कृति’ के रूप में हमारे समाज को दीमक की तरह खा रही है।

बाबा संस्कृति क्या है? यह वह सांस्कृतिक ढांचा है जिसमें तर्क को त्याग कर किसी व्यक्ति की वाणी को ‘सत्य’ मान लिया जाता है। जहाँ प्रश्न पूछना अपराध है और श्रद्धा का अर्थ है – आँख मूँद लेना। यह संस्कृति अब सिर्फ आश्रमों तक सीमित नहीं रही, यह इंस्टाग्राम, यूट्यूब, ऑनलाइन सेमिनारों और प्रीमियम मेडिटेशन कोर्सों तक फैल चुकी है।

हर दूसरा आदमी ‘जिंदगी कैसे जिएँ’ सिखा रहा है, और हर तीसरा आदमी उसके वीडियो पर ‘धन्य हो बाबा’ लिख रहा है। ओशो के नाम पर आज जो लोग ज्ञान बेच रहे हैं, वे अक्सर उन्हीं बातों को दोहराते हैं – बस अंदाज़ नया है, प्लेटफॉर्म डिजिटल है, और भक्त ज्यादा कॉर्पोरेट हैं।

सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि असली ‘आत्मचिंतन’ और ‘जिज्ञासा’ को इसने सतही ‘हीलिंग’, ‘वाइब्स’ और ‘एनर्जी’ से बदल दिया है। जीवन की गहराइयों की जगह अब सतही पॉजिटिविटी बिक रही है।

यह बाबा संस्कृति अब न सिर्फ व्यक्ति की चेतना को कुंद कर रही है, बल्कि समाज को भी एक भीड़ में बदल रही है – जहाँ हर कोई जवाब सुनना चाहता है, पर सवाल पूछने की हिम्मत नहीं रखता।

ओशो ने शायद कल्पना नहीं की होगी कि उनका विचार संसार एक दिन उस अंधभक्ति की फैक्ट्री बन जाएगा जिससे वे जीवन भर लड़ते रहे। पर ऐसा हुआ – और आज यह बाबा संस्कृति हमारे विवेक को निगल रही है।

हमें तय करना होगा – हम विचार को अपनाएँगे या व्यक्ति को पूजेंगे। अन्यथा हर पीढ़ी एक नया बाबा गढ़ेगी, और हर बाबा एक नई भीड़ बनाएगा।


रविवार, 23 फ़रवरी 2025

लेख: क्या भारत गृहयुद्ध के कगार पर है?

 भारत इस समय एक गंभीर सामाजिक, राजनीतिक और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के दौर से गुजर रहा है। हालाँकि देश अभी पूर्ण रूप से गृहयुद्ध की स्थिति में नहीं है, लेकिन कई संकेतक अंदरूनी संघर्ष और हिंसा की ओर इशारा कर रहे हैं। यदि इन्हें समय रहते नियंत्रित नहीं किया गया, तो भारत एक बड़े सामाजिक टकराव या गृहयुद्ध की चपेट में आ सकता है।

आइए इस स्थिति का गहन विश्लेषण करें और समझें कि इसे रोकने के लिए क्या किया जा सकता है।

1. भारत में गृहयुद्ध की संभावनाएँ: क्या संकेत मिल रहे हैं?

(क) बढ़ता सांप्रदायिक ध्रुवीकरण

  • 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण तेज़ी से बढ़ा है।

  • नागरिकता संशोधन कानून (CAA), लव जिहाद कानून, गोहत्या प्रतिबंध, धारा 370 की समाप्ति जैसी नीतियों ने मुसलमानों को हाशिए पर धकेल दिया है।

  • मॉब लिंचिंग, सांप्रदायिक हिंसा और नफरत भरे भाषणों में इज़ाफा हुआ है।

  • मुसलमानों को देशविरोधी, आतंकवादी, या विदेशी कहकर निशाना बनाया जा रहा है।

⚠ खतरा क्यों है?

  • जब कोई बहुसंख्यक समूह (हिंदू) कट्टरपंथ की ओर झुकता है और अल्पसंख्यक समुदाय (मुसलमान) खुद को असुरक्षित महसूस करता है, तो इसका परिणाम लंबे समय तक चलने वाले दंगों या विद्रोह के रूप में हो सकता है।

  • इतिहास बताता है कि इस तरह की धार्मिक ध्रुवीकरण की स्थिति युगांडा, बोस्निया और श्रीलंका जैसे देशों में गंभीर गृहयुद्ध में बदल गई थी।

(ख) लोकतंत्र की गिरावट और राजनीतिक अधिनायकवाद

  • भारत की स्वतंत्र संस्थाएँ (न्यायपालिका, चुनाव आयोग, मीडिया) सरकारी दबाव में आ रही हैं।

  • विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी और दमन हो रहा है।

  • लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमले हो रहे हैं—अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध, पत्रकारों की गिरफ्तारी, और विरोध प्रदर्शनों को दबाने की घटनाएँ बढ़ रही हैं।

⚠ खतरा क्यों है?

  • जब संस्थाएँ स्वतंत्र रूप से काम नहीं करतीं, तो जनता का लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर भरोसा टूटने लगता है।

  • यदि चुनावों को धांधली वाला या पक्षपाती माना जाता है, तो सड़कों पर संघर्ष और हिंसा का खतरा बढ़ जाता है।

(ग) आर्थिक असमानता और सामाजिक असंतोष

  • बेरोज़गारी दर उच्चतम स्तर पर है, जिससे युवा हताश हो रहे हैं।

  • गरीब और अमीर के बीच की खाई बढ़ रही है—कुछ उद्योगपति पूरी अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण कर रहे हैं।

  • किसान आंदोलन (2020-21) ने दिखाया कि सरकार की नीतियों को लेकर ग्रामीण भारत में गहरा असंतोष है।

  • दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्गों की उपेक्षा बढ़ रही है।

⚠ खतरा क्यों है?

  • आर्थिक और सामाजिक असमानता लंबे समय तक असंतोष को जन्म देती है, जिससे बगावत या हिंसक आंदोलनों की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।

  • यदि यह असंतोष सांप्रदायिक तनाव से जुड़ गया, तो स्थिति विस्फोटक हो सकती है।

(घ) क्षेत्रीय और जातीय संघर्षों का बढ़ना

  1. मणिपुर हिंसा (2023-24) – मैतेई और कुकी समुदायों के बीच जातीय संघर्ष।

  2. कश्मीर में असंतोष – धारा 370 हटाने के बाद कश्मीर में अलगाववाद की भावना बढ़ी।

  3. पंजाब में खालिस्तान आंदोलन का पुनरुत्थान – विदेशों में सक्रिय खालिस्तानी समूह भारत में भी उग्रवादी गतिविधियाँ बढ़ा रहे हैं।

  4. नक्सलवाद और पूर्वोत्तर विद्रोह – नागालैंड, असम और अरुणाचल प्रदेश में असंतोष गहराता जा रहा है।

⚠ खतरा क्यों है?

  • भारत एक एकीकृत राष्ट्र नहीं बल्कि विभिन्न भाषाओं, संस्कृतियों और जातीय पहचानों का समूह है। यदि केंद्र सरकार अलग-अलग समुदायों को साथ लेकर नहीं चलेगी, तो देश में आंतरिक बिखराव की संभावना बढ़ जाएगी।

2. गृहयुद्ध को रोकने के उपाय

(क) लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत करना

✅ न्यायपालिका और मीडिया की स्वतंत्रता सुनिश्चित की जाए।
✅ सीबीआई, ईडी और पुलिस का राजनीतिक उपयोग रोका जाए।
✅ चुनाव प्रक्रिया को पारदर्शी और निष्पक्ष बनाया जाए।

(ख) सांप्रदायिक तनाव को कम करना

✅ हेट स्पीच और सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ सख्त कानून लागू हों।
✅ धार्मिक मुद्दों को राजनीति से दूर रखा जाए।
✅ हिंदू-मुस्लिम भाईचारे को मजबूत करने के लिए सामाजिक संवाद को बढ़ावा दिया जाए।

(ग) आर्थिक असमानता को कम करना

✅ रोज़गार सृजन को प्राथमिकता दी जाए।
✅ गरीबों के लिए सरकारी योजनाएँ लागू की जाएँ।
✅ कृषि सुधार और ग्रामीण विकास पर ध्यान दिया जाए।

(घ) क्षेत्रीय और जातीय संघर्षों को शांत करना

✅ पूर्वोत्तर और कश्मीर के नेताओं के साथ सार्थक संवाद किया जाए।
✅ राज्यों को अधिक स्वायत्तता देकर संघीय ढाँचे को मजबूत किया जाए।
✅ मणिपुर और पंजाब जैसे संवेदनशील इलाकों में शांति प्रयास तेज किए जाएँ।

(च) जनता में जागरूकता फैलाना

✅ फेक न्यूज़ और धार्मिक कट्टरता के खिलाफ अभियान चलाया जाए।
✅ संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के लिए नागरिक शिक्षा को बढ़ावा दिया जाए।
✅ नेताओं से जवाबदेही की माँग हो—विकास और रोजगार पर ध्यान दिया जाए, न कि धार्मिक उन्माद पर।

भारत इस समय एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है। यदि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, लोकतांत्रिक गिरावट, आर्थिक असमानता और क्षेत्रीय संघर्षों को समय रहते नहीं रोका गया, तो देश गृहयुद्ध जैसी स्थिति में पहुँच सकता है। लेकिन अगर हम सही कदम उठाएँ, तो भारत को इस संकट से बचाया जा सकता है।

अब सवाल यह है कि क्या हमारी सरकार और समाज इस खतरे को गंभीरता से लेंगे?