सोमवार, 6 अप्रैल 2015

ग़ज़ल : जैसे मछली की हड्डी खाने वाले को काँटा है

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

जैसे मछली की हड्डी खाने वाले को काँटा है
वैसे मज़लूमों का साहस पूँजीपथ का रोड़ा है

सारे झूट्ठे जान गए हैं धीरे धीरे ये मंतर
जिसकी नौटंकी अच्छी हो अब तो वो ही सच्चा है

चुँधियाई आँखों को पहले जैसा तो हो जाने दो
देखोगे ख़ुद लाखों के कपड़ों में राजा नंगा है

खून हमारा कैसे खौलेगा पूँजी के आगे जब
इसमें घुला नमक है जो उसका उत्पादक टाटा है

छोड़ रवायत भेद सभी का खोल रहे हैं ‘सज्जन’ जी
जल्दी ही अब इनका भी कारागृह जाना पक्का है

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015

ग़ज़ल : नीली लौ सी तेरी आँखों में शायद पकता है मन

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

यूँ तो जो जी में आए वो करता है, राजा है मन
पर उनके आगे झटपट बन जाता भिखमंगा है मन

उनसे मिलने के पहले यूँ लगता था घोंघा है मन
अब तो ऐसा लगता है जैसे अरबी घोड़ा है मन

उनके बिन खाली रहता है, कानों में बजता है मन
जिसमें भरकर उनको पीता हूँ वो पैमाना है मन

पहले अक़्सर मुझको लगता था शायद काला है मन
पर उनसे लिपटा जबसे तबसे गोरा गोरा है मन

मुझको इनसे अक्सर भीनी भीनी ख़ुशबू आती है
नीली लौ सी तेरी आँखों में शायद पकता है मन

शनिवार, 28 मार्च 2015

ग़ज़ल : ज़ुल्फ़ का घन घुमड़ता रहा रात भर

बह्र : २१२ २१२ २१२ २१२

ज़ुल्फ़ का घन घुमड़ता रहा रात भर
बिजलियों से मैं लड़ता रहा रात भर

घाव ठंडी हवाओं से दिनभर मिले
जिस्म तेरा चुपड़ता रहा रात भर

जिस्म पर तेरे हीरे चमकते रहे
मैं भी जुगनू पकड़ता रहा रात भर

पी लबों से, गिरा तेरे आगोश में
मुझ पे संयम बिगड़ता रहा रात भर

जिस भी दिन तुझसे अनबन हुई जान-ए-जाँ
आ के ख़ुद से झगड़ता रहा रात भर

शनिवार, 21 मार्च 2015

ग़ज़ल : और क्या कहने को रहता है इस अफ़साने के बाद

बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २१२

रूह को सब चाहते हैं जिस्म दफ़नाने के बाद
दास्तान-ए-इश्क़ बिकती खूब दीवाने के बाद

शर्बत-ए-आतिश पिला दे कोई जल जाने के बाद
यूँ कयामत ढा रहे वो गर्मियाँ आने के बाद

कुछ दिनों से है बड़ा नाराज़ मेरा हमसफ़र
अब कोई गुलशन यकीनन होगा वीराने के बाद

जब वो जूड़ा खोलते हैं वक्त जाता है ठहर
फिर से चलता जुल्फ़ के साये में सुस्ताने के बाद

एक वो थी एक मैं था एक दुनिया जादुई
और क्या कहने को रहता है इस अफ़साने के बाद

बुधवार, 18 मार्च 2015

ग़ज़ल : सदा पर्वत से ऊँचा हौसला रखना

बह्र : १२२२ १२२२ १२२२

पड़े चंदन के तरु पर घोसला रखना
तो जड़ के पास भूरा नेवला रखना

न जिससे प्रेम हो तुमको, सदा उससे
जरा सा ही सही पर फासला रखना

बचा लाया वतन को रंगभेदों से
ख़ुदा अपना हमेशा साँवला रखना

नचाना विश्व हो गर ताल पर इनकी
विचारों को हमेशा खोखला रखना

अगर पर्वत पे चढ़ना चाहते हो तुम
सदा पर्वत से ऊँचा हौसला रखना

सोमवार, 16 मार्च 2015

ग़ज़ल : वक़्त क़साई के हाथों मैं इतनी बार कटा हूँ

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२

वक़्त क़साई के हाथों मैं इतनी बार कटा हूँ
जाने कितने टुकड़ों में किस किस के साथ गया हूँ

हल्के आघातों से भी मैं टूट बिखर जाता हूँ
इतनी बार हुआ हूँ ठंडा इतनी बार तपा हूँ

जाने क्या आकर्षण, क्या जादू होता है इनमें
झूठे वादों की कीमत पर मैं हर बार बिका हूँ

अब दोनों में कोई अन्तर समझ नहीं आता है
सुख में दुख में आँसू बनकर इतनी बार बहा हूँ

मुझमें ही शैतान कहीं है और कहीं है इन्साँ
माने या मत माने दुनिया मैं ही कहीं ख़ुदा हूँ

गुरुवार, 12 मार्च 2015

ग़ज़ल : कब तुमने इंसान पढ़ा

बह्र : २२ २२ २२ २

शास्त्र  पढ़े विज्ञान पढ़ा
कब तुमने इंसान पढ़ा

बस उसका गुणगान पढ़ा
कब तुमने भगवान पढ़ा

गीता पढ़ी कुरान पढ़ा
कब तुमने ईमान पढ़ा

कब संतान पढ़ा तुमने
बस झूठा सम्मान पढ़ा

जिनके थे विश्वास अलग
उन सबको शैतान पढ़ा

जिसने सच बोला तुमसे
उसको ही हैवान पढ़ा

सूरज निगला जिस जिस ने
उस उस को हनुमान पढ़ा

मंगलवार, 3 मार्च 2015

ग़ज़ल : गाँव कम हैं प्रधान ज्यादा हैं

बह्र : २१२२ १२१२ २२

फ़स्ल कम है किसान ज्यादा हैं
ये ज़मीनें मसान ज्यादा हैं

टूट जाएँगे मठ पुराने सब
देश में नौजवान ज़्यादा हैं

हर महल की यही कहानी है
द्वार कम नाबदान ज़्यादा हैं

आ गई राजनीति जंगल में
जानवर कम, मचान ज़्यादा हैं

हाल मत पूछ देश का ‘सज्जन’
गाँव कम हैं प्रधान ज्यादा हैं

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

ग़ज़ल : ख़ुदा मिटा करते हैं अक़्सर कलम नहीं मिटती

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

माना मिट जाते हैं अक्षर कलम नहीं मिटती
मारो बम गोली या पत्थर कलम नहीं मिटती

जितने रोड़े आते उतना ज़्यादा चलती है
लुटकर, पिटकर, दबकर, घुटकर कलम नहीं मिटती

इसे मिटाने की कोशिश करते करते इक दिन
मिट जाते हैं सारे ख़ंजर कलम नहीं मिटती

पंडित, मुल्ला और पादरी सब मिट जाते हैं
मिट जाते मज़हब के दफ़्तर कलम नहीं मिटती

जब से कलम हुई पैदा सबने ये देखा है
ख़ुदा मिटा करते हैं अक़्सर कलम नहीं मिटती

शनिवार, 21 फ़रवरी 2015

ग़ज़ल : ख़ुद को दुहराने से है अच्छा रुक जाना

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२

फिर मिल जाये तुम्हें वही रस्ता रुक जाना
ख़ुद को दुहराने से है अच्छा रुक जाना

उनके दो ही काम दिलों पर भारी पड़ते
एक तो उनका चलना औ’ दूजा रुक जाना

दिल बंजर हो जाएगा आँसू मत रोको
ख़तरनाक है खारे पानी का रुक जाना

तोड़ रहे तो सारे मंदिर मस्जिद तोड़ो
नफ़रत फैलाएगा एक ढाँचा रुक जाना

पंडित, मुल्ला पहुँच गये हैं लोकसभा में
अब तो मुश्किल है ‘सज्जन’ दंगा रुक जाना

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015

ग़ज़ल : कैसे कैसे ख़ुशी ढूँढ़ते हैं

बह्र : २१२२ १२२१ २२

दूसरों में कमी ढूँढ़ते हैं
कैसे कैसे ख़ुशी ढूँढ़ते हैं

प्रेमिका उर्वशी ढूँढ़ते हैं
पर वधू जानकी ढूँढ़ते हैं

हर जगह गुदगुदी ढूँढ़ते हैं
घास भी मखमली ढूँढ़ते हैं

वोदका पीजिए आप, हम तो
दो नयन शर्बती ढूँढ़ते हैं

वो तो शैतान है जिसके बंदे
क़त्ल में बंदगी ढूँढ़ते हैं

आज भी हम समय की नदी में
बह गई ज़िन्दगी ढूँढ़ते हैं

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

ग़ज़ल : भाव मिले जीवन-कविता में तो तुक जाता है

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

रोज़ बदलती इस दुनिया में जो रुक जाता है
तन से मन से रिसते रिसते वो चुक जाता है

आँधी आती है तो जान बचाने की ख़ातिर
जो जितना ऊँचा उतनी जल्दी झुक जाता है

दो के झगड़े में होता नुकसान तीसरे का
आँखें लड़ती हैं आपस में दिल ठुक जाता है

अपने ही देते हैं सबसे ज़्यादा दर्द हमें
चमड़ी के दिल तक चमड़े का चाबुक जाता है

माँ, पत्नी अब साथ नहीं रह सकती हैं ‘सज्जन’
भाव मिले जीवन-कविता में तो तुक जाता है

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015

गीत : पैसा, ख़तरा, ख़ून हमारा सारा लाभ तुम्हारा

पैसा, ख़तरा, ख़ून हमारा
सारा लाभ तुम्हारा

तिल तिल कर वो मरा सदा
जो रहा अछूता तुमसे
चारों खम्भे लोकतंत्र के
चरण वन्दना करते

सारी ख़बरों में बजता है
तुम्हरा ही इकतारा

नायक खलनायक अधिनायक
खेल खिलाड़ी सारे
देव, दैव, इंसान, दरिन्दे
सब हैं दास तुम्हारे

मन्दिर मस्जिद गिरिजाघर में
गूँज रहा जयकारा

ऐसा क्या है इस दुनिया में
जिसे न तुमने जीता
साम, दाम, औ’ दंड, भेद से
फल पाया मनचीता

पूँजी तुम्हरे रामबाण से
सारा भारत हारा

शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

ग़ज़ल : हम हों न हों दिक्काल में, इंसानियत लेकिन रहे

सूरज मिटे, चंदा मिटे, धरती बनी जोगिन रहे
हम हों न हों दिक्काल में, इंसानियत लेकिन रहे

सूरत अगर बद हो तो हो सीरत मगर कमसिन रहे
फिर चार दिन की जिन्दगी दो दिन रहे इक दिन रहे

रोबोट हो या जानवर तब तो न कोई बात है
इंसान को संभव कहाँ इंसानियत के बिन रहे

हों पक्ष में सब या ख़िलाफ़त हो मिरी मंजूर है
हो फ़ैसला जो भी मगर हर पल बहस मुमकिन रहे

गर एक भाषा हो सभी की जीत लाएँ स्वर्ग हम
क्या फ़र्क़ पड़ता है कि वो हिन्दी रहे लैटिन रहे

बुधवार, 28 जनवरी 2015

नवगीत : ब्राह्मणवाद हँसा

सुनकर मज़्लूमों की आहें
ब्राह्मणवाद हँसा

धर्म, वेद के गार्ड बिठाकर
जाति, गोत्र की जेल बनाई
चंद बुद्धिमानों से मिलकर
मज़्लूमों की रेल बनाई

गणित, योग, विज्ञान सभी में
जाकर धर्म घुसा

स्वर्ग-नर्क गढ़ दिये शून्य में
अतल, वितल, पाताल रच दिया
भाँति भाँति के तंत्र-मंत्र से
भरतखण्ड का भाल रच दिया

कवियों के कल्पित जालों में
मानव-मात्र फँसा

सत्ता का गुरु बनकर बैठा
पूँजी को निज दास बनाया
शक्ति जहाँ देखी
चरणों में गिरकर अपने साथ मिलाया

मानवता की साँसें फूलीं
फंदा और कसा

सोमवार, 26 जनवरी 2015

ग़ज़ल : समझा था जिसको आम वो बंदा खजूर था

बह्र : २२१२ १२११ २२१२ १२

अपनी मिठास पे उसे बेहद गुरूर था
समझा था जिसको आम वो बंदा खजूर था

मृगया में लिप्त शेर को देखा जरूर था
बकरी के खानदान का इतना कुसूर था

दिल्ली से दिल मिला न ही दिल्ली में दिल मिला
दिल्ली में रह के भी मैं यूँ दिल्ली से दूर था

शब्दों से विश्व जीत के शब्दों में छुप गया
लगता था जग को वीर जो, शब्दों का शूर था

हीरे बिके थे कल भी बहुत, आज भी बिकें
लेकिन नहीं बिका जो कभी, कोहिनूर था

शब भर मैं गहरी नींद में कहता रहा ग़ज़ल
दिन में पिये जो अश्क़ ये उनका सुरूर था

सोमवार, 19 जनवरी 2015

गीत : अनपढ़ बाबा

अनपढ़ बाबा
सारे जग को
बाँट रहे हैं ज्ञान

भ्रष्टाचारी की सुख सुविधा
और गरीबों की लाचारी
पूर्वजन्म के कर्मों का फल
पाते राजा और भिखारी

सारे प्रश्नों का उत्तर वो
देते एक समान

ध्यान मग्न हो पूजा करना
दान दक्षिणा देना जम कर
व्रत उपवास हमेशा रखना
प्रभु देंगे तुमको घर भर कर

बाबा जी का गणित यही है
और यही विज्ञान

भूत भविष्य इन्हें दिखता है
सबका भाग्य बताते हैं ये
गुरु ईश्वर से भी बढ़कर है
सबको यही सिखाते हैं ये

भगवा वस्त्र पहनकर खुद को
बता रहे भगवान

शनिवार, 17 जनवरी 2015

ग़ज़ल : एक फूल को सौ सौ काँटे

बह्र : २२ २२ २२ २२

क्या जोड़े तू, कैसे बाँटे
एक फूल को सौ सौ काँटे

अरबों भक्तों की दुनिया में
कुछ पूँजीपति कैसे छाँटे

आशिक तेरे दोनों हैं पर
इसको चुम्बन उसको चाँटे

धरती भी तो आखिर माँ है
सबको चूमे सबको डाँटे

ले तेरा तुझको अर्पित है
दुख, लाचारी, काँटे, चाँटे

बुधवार, 14 जनवरी 2015

ग़ज़ल : मैं तुमसे ऊब न जाऊँ न बार बार मिलो

बह्र : १२१२ ११२२ १२१२ ११२

मैं तुमसे ऊब न जाऊँ न बार बार मिलो
बनी रहेगी मुहब्बत, कभी कभार मिलो

महज़ हो साथ टहलना तो आर पार मिलो
अगर हो डूब के मिलना तो बीच धार मिलो

मुझे भी खुद सा ही तुम बेकरार पाओगे
कभी जो शर्म-ओ-हया कर के तार तार मिलो

प्रकाश, गंध, छुवन, स्वप्न, दर्द, इश्क़, मिलन
मुझे मिलो तो सनम यूँ क्रमानुसार मिलो

दिमाग, हुस्न कभी साथ रह नहीं सकते
इसी यकीन पे बन के कड़ा प्रहार मिलो

शनिवार, 10 जनवरी 2015

ग़ज़ल : मैं भी आदम का बच्चा हूँ मैंने कब इनकार किया है

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२

हाँ मैं भी गलती करता हूँ मैंने कब इनकार किया है
मैं भी आदम का बच्चा हूँ मैंने कब इनकार किया है

जब गुस्से में हूँ, तीख़ा हूँ, मैंने कब इनकार किया है
जब आँसू हूँ, तो खारा हूँ मैंने कब इनकार किया है

अनुभव के आगे बच्चा हूँ मैंने कब इनकार किया है
बचपन के आगे बूढ़ा हूँ मैंने कब इनकार किया है

मजलूमों का खून चलाता है जिन यंत्रों को उनका ही
मैं भी छोटा सा पुर्जा हूँ मैंने कब इनकार किया है

दफ़्तर से घर, घर से दफ़्तर, ऐसे सभ्य हुआ हूँ मैं भी
लेकिन मन का बंजारा हूँ मैंने कब इनकार किया है

मज़लूमों की ख़ातिर मन में दर्द बहुत है फिर भी ‘सज्जन’
तन की सुविधा का चमचा हूँ मैंने कब इनकार किया है

मंगलवार, 6 जनवरी 2015

कविता : तुम्हारे प्रेम के बिना

चित्र : चुम्बन (पाब्लो पिकासो)

हमारे होंठ हमारा प्यार हैं
खाते समय कभी न कभी होंठ कट ही जाते हैं
शुक्र है कि लार में जीवित नहीं रह पाते सड़न पैदा करने वाले विषाणु
इसलिए होंठों पर लगे घाव जल्दी भर जाते हैं
क्रमिक विकास में हमने
होंठों को बचा कर रखना सीख लिया है

कितनी सारी ग़ज़लें जबरन कहे गए मत्ले के साथ जीती हैं
कितने सारे मत्ले भर्ती के अश’आर संग निबाहते हैं
मुकम्मल ग़ज़लें दुनियाँ में होती ही कितनी हैं

हमारा प्यार मुकम्मल ग़ज़ल हो
मैंने इतनी बड़ी ख़्वाहिश कभी नहीं की
बस एक शे’र ऐसा हो
जिसे दुनिया अपने दिल--दिमाग से निकाल न सके
जिसका मिसरा--ऊला मैं होऊँ और मिसरा--सानी तुम

तुम्हारा जिस्म एक भूलभुलैया है
हर बार तुम्हारी आत्मा तक पहुँचते पहुँचते मैं राह भटक जाता हूँ

तुम्हारे हाथों पर किसी और की लगाई मेरे नाम की मेंहदी नहीं हूँ मैं
जिसे चार कपड़े और चार बर्तन, चार दिन में हमेशा के लिए मिटा देंगे

मैं तुम्हारी आत्मा की तलाश में निकला वो मुसाफिर हूँ
जो कभी अपनी मंजिल तक नहीं पहुँच पाएगा
लेकिन ये जानते हुए भी तुम्हारी आत्मा हमेशा जिसका इंतजार करेगी

तुमको छू कर आता हुआ प्रकाश
मेरी आँख का पानी है

बादल आँसू बहाते हैं और रेगिस्तान रोता है
रोने वालों की आँखें अक्सर सूखी रहती हैं
आँसू बहाने वाले अक्सर रोते नहीं

तुमको सोते हुए देखना
तुममें घुलना है

कपड़े तुम्हारे जिस्म से उतरते ही मर जाते हैं
साँस तुम्हारे जिस्म से निकलते ही भभक उठती है
चूड़ियाँ तुम्हारे हाथों से निकलकर गूँगी हो जाती हैं
तुम गहने पहनना छोड़ दो तो क्या इस्तेमाल रह जाएगा अनमोल पत्थरों का
तुम न होती तो पुरुष अपने झूठे अहंकार के लिए लड़ भिड़ कर कब का खत्म हो गए होते

तुम्हारे छूने भर से बेजुबान चीजें गुनगुनाने लगती हैं
जीवन तुम्हारी छुवन में है

ईश्वर तक पहुँचने के रास्ते का एकमात्र द्वार तुम्हारे दिल में है

तुम्हारे दिल तक पहुँचने के रास्ते में ढेर सारे मंदिर, मस्जिद, धर्मग्रंथ, धर्मगुरु
ईश्वर ले लो, ईश्वर ले लो, सस्ता सुंदर और टिकाऊ ईश्वर ले लो” की आवाज लगाते रहते हैं

नारी नरक का द्वार है” मानव इतिहास का सबसे भयानक झूठ है

हर शिव ये जानता है कि कामदेव के बिना सृष्टि का चलना असंभव है
किंतु हर शिव कामदेव को भस्म करने का नाटक रचता है
परिणाम?
कामदेव अदृश्य और अजेय हो कर वापस आता है

एक गाँव में किसी घर के पिछवाड़े एक कुआँ था। न जाने कौन घर की चीजें जैसे कपड़े, खाना इत्यादि ले जाकर कुएँ में डाल देता था। सब खोज खोजकर हार गए लेकिन कारण का पता नहीं चला। अंत में सबने मान लिया कि उस कुएँ में कोई भूत रहता है। कई भूत भगाने वाले बुलाये गये पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा। कुछ सालों बाद घरवालों ने वो कुआँ ही बंद करवा दिया। ये प्रेत कथा उस गाँव के लोग तरह तरह से सुनते सुनाते थे और बच्चों को डराते थे। पर उस गाँव की एक औरत ऐसी थी जो इस कहानी का सच जानती थी। दर’असल जिस घर के पिछवाड़े वो कुआँ था उस घर की एक लड़की गाँव के ही एक लड़के से प्रेम करती थी। जब घर वालों को पता चला तो उन्होंने लड़की का घर से निकलना बंद करवा दिया और लड़के को बहुत मारा पीटा। लेकिन प्रेम फिर भी बढ़ता गया और उसके साथ ही बढ़ते गए घर वालों के अत्याचार। तंग आकर लड़की ने उसी कुएँ में कूदकर अपनी जान दे दी। लड़की की माँ को लगता था कि अकाल मृत्यु मरने के कारण उसकी बेटी की आत्मा कुएँ में भटकती रहती है इसलिए वो सबसे छुपाकर उसके लिए जब तब कपड़े, खाना और अन्य जरूरत के सामान उस कुएँ में डाल आती थी।

प्रेत कथाएँ दर’असल विकृत प्रेम कथाएँ है। प्रेत कथाओं पर यकीन मत करना।

जैसे नाभिक का सारा आकर्षण अर्थहीन है इलेक्ट्रान के बिना
जैसे सूर्य का सारा प्रकाश बेमतलब है धरती के बिना
जैसे ये ब्रह्मांड निरर्थक है इंसान के बिना
वैसे ही मेरे होने का कोई मतलब नहीं है

तुम्हारे प्रेम के बिना