रविवार, 10 जून 2012

ग़ज़ल : डाकू भी जब चुनाव के दंगल में आ गए


डाकू भी जब चुनाव के दंगल में आ गए
बंदूक ले मजदूर ही चंबल में आ गए

हर भूल चूक तेरी जलेगी या गड़ेगी
उल्लू गधे भी सुन के ये मेडिकल आ गए

हो भीड़ तो चुपचाप सहें फूल हर सितम
भँवरों ने ये सुना तो वो लोकल में आ गए

तुलसी लगा के घर में सभी गाँव के सपूत
खाने कबाब शहर के होटल में आ गए

अनपढ़ गँवार थे तो खड़े थे जमीन पर
पढ़ लिख के हम भी ज्ञान के दलदल में आ गए

गुरुवार, 7 जून 2012

कविता : प्रेमियों का शब्दकोश


साँस का अर्थ जुबान है
आँख का अर्थ होंठ है
चेहरे का अर्थ किताब है
होंठों का अर्थ त्वचा है
त्वचा का अर्थ आत्मा है
मैं, तुम निरर्थक शब्द हैं
हम का अर्थ दुनिया है
प्रेम का अर्थ ईश्वर है

कल ही मैंने कबाड़ी से प्रेमियों का शब्दकोश खरीदा है

रविवार, 3 जून 2012

ग़ज़ल : जितना ज्यादा हम लिखते हैं


जितना ज्यादा हम लिखते हैं
सच उतना ही कम लिखते हैं

दुनिया के घायल माथे पर
माँ के लब मरहम लिखते हैं

अब तो सारे बैद मुझे भी
रोज दवा में रम लिखते हैं

जेहन से रिसकर निकलोगी
सोच, तुम्हें हरदम लिखते हैं

जफ़ा मिली दुनिया से इतनी
इसको भी जानम लिखते हैं

बुधवार, 30 मई 2012

ग़ज़ल : मैं बड़ा बदनाम होने जा रहा हूँ

आज सारे राज खोने जा रहा हूँ
मैं बड़ा बदनाम होने जा रहा हूँ

एक तिनका याद का आकर गिरा है
मयकदे में आँख धोने जा रहा हूँ

बेवफ़ा के साथ सोता था अभी तक
मौत के अब संग सोने जा रहा हूँ

फिर बनाया बाप मुझको आज उसने
फिर उसी का बोझ ढोने जा रहा हूँ

भोर में मुझको डराकर ये जगा दें
इसलिए सपने सँजोने जा रहा हूँ

गुल खिलेंगे स्वर्ग में इनको बताकर
झुग्गियों में खार बोने जा रहा हूँ

रेप खुद के साथ मैंने फिर किया है
आइने के पास रोने जा रहा हूँ

शनिवार, 26 मई 2012

नवगीत (हास्य व्यंग्य) : ये टिपियाने की खुजली


ये टिपियाने की खुजली, ऐसे न मिटेगी, आ
मैं तेरी पीठ खुजाऊँ, तू मेरी पीठ खुजा

किसने भाषा को तोला, किसने भावों को नापा
कूड़ा कचरा जो पाया, झट इंटरनेट पर चाँपा
पढ़ने कुछ तो आएँगें
टिपियाकर भी जाएँगे
दुनिया को दुनियाभर के, दिनभर दुख दर्द सुना

पढ़ रोज सुबह का पेपर, फिर गढ़ इक छंद पुराना
बन छंद न भी पाए तो, बस इंटर खूब दबाना
पल में खेती कविता की
जोती, बोई औ’ काटी
कुछ खोज शब्द तुक वाले, फिर कुछ बेतुका मिला

कुछ माल विदेशी लाकर, देशी कपड़े पहना दे
बातों की बना जलेबी, सबको भर पेट खिला दे
कर सके न इतना खर्चा
तो कर मित्रों की चर्चा
या प्रगतिशील कह कर तू, पिछड़ों का संघ बना

रविवार, 20 मई 2012

नवगीत : जैसे इंटरनेट पर यूँ ही मिले पाठ्य पुस्तक की रचना

भीड़ भरे
इस चौराहे पर
आज अचानक उसका मिलना
जैसे इंटरनेट पर 
यूँ ही
मिले पाठ्य पुस्तक की रचना

यूँ तो मेरे 
प्रश्नपत्र में 
यह रचना भी आई थी, पर
इसके हल से 
कभी न मिलते
मुझको वे मनचाहे नंबर

सुंदर, सरल
कमाऊ भी था
तुलसी बाबा को हल करना

रचना थी ये 
मुक्तिबोध की
छोड़ गया पर भूल न पाया
आखिर इस
चौराहे पर 
आकर मैं इससे फिर टकराया

आई होती 
तभी समझ में
आज न घटती ये दुर्घटना