शुक्रवार, 2 मई 2014

कविता : पूँजीवादी मशीनरी का पुर्ज़ा

मैं पूँजीवादी मशीनरी का चमचमाता हुआ पुर्ज़ा हूँ

मेरे देश की शिक्षा पद्धति ने
मेरे भीतर मौजूद लोहे को वर्षों पहले पहचान लिया था
इसलिए जल्द ही सुनहरे सपनों के चुम्बक से खींचकर
मुझे मेरी जमीन से अलग कर दिया गया

अध्यापकों ने कभी डरा-धमका कर तो कभी बहला-फुसला कर
मेरी अशुद्धियों को दूर किया
अशुद्धियाँ जैसे मिट्टी, हवा और पानी
जो मेरे शरीर और मेरी आत्मा का हिस्सा थे

तरह तरह की प्रतियोगिताओं की आग में गलाकर
मेरे भीतर से निकाल दिया गया भावनाओं का कार्बन
(वही कार्बन जो पत्थर और इंसान के बीच का एक मात्र फर्क़ है)

मुझमें मिलाया गया तरह तरह की सूचनाओं का क्रोमियम
ताकि हवा, पानी और मिट्टी
मेरी त्वचा तक से कोई अभिक्रिया न कर सकें

अंत में मूल वेतन और मँहगाई भत्ते से बने साँचे में ढालकर
मुझे बनाया गया सही आकार और सही नाप का

मैं अपनी निर्धारित आयु पूरी करने तक
लगातार, जी जान से इस मशीनरी की सेवा करता रहूँगा
बदले में मुझे इस मशीनरी के
और ज्यादा महत्वपूर्ण हिस्सों में काम करने का अवसर मिलेगा

मेरे बाद ठीक मेरे जैसा एक और पुर्जा आकर मेरा स्थान ले लेगा

मैं पूँजीवादी मशीनरी का चमचमाता हुआ पुर्ज़ा हूँ
मेरे लिए इंसान में मौजूद कार्बन
ऊर्जा का स्रोत भर है।

मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

ग़ज़ल : तभी जाके ग़ज़ल पर ये गुलाबी रंग आया है

बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२

महीनों तक तुम्हारे प्यार में इसको पकाया है
तभी जाके ग़ज़ल पर ये गुलाबी रंग आया है

अकेला देख जब जब सर्द रातों ने सताया है
तुम्हारा प्यार ही मैंने सदा ओढ़ा बिछाया है

किसी को साथ रखने भर से वो अपना नहीं होता
जो मेरे दिल में रहता है हमेशा, वो पराया है

तेरी नज़रों से मैं कुछ भी छुपा सकता नहीं हमदम
बदन से रूह तक तेरे लिए सबकुछ नुमाया है

कई दिन से उजाला रात भर सोने न देता था
बहुत मजबूर होकर दीप यादों का बुझाया है

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

ग़ज़ल : ढंग अलग हो करने का

बह्र : २२ २२ २२ २
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जीने का या मरने का
ढंग अलग हो करने का

सबका मूल्य बढ़ा लेकिन
भाव गिर गया धरने का

आज बड़े खुश मंत्री जी
मौका मिला मुकरने का

सिर्फ़ वोट देने भर से
कुछ भी नहीं सुधरने का

कूदो, मर जाओ `सज्जन'
नाम तो बिगड़े झरने का

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

कविता : पूँजीवादी ईश्वर

फल, फूल, धूप, दीप, नैवेद्य, अगरबत्ती, कर्पूर
मिठाई, पूजा, आरती, दक्षिणा
चुपचाप ये सबकुछ ग्रहण कर लेगा

अगर देना चाहोगे जानवरों या इंसानों की बलि
उसे भी ये चुपचाप स्वीकार कर लेगा

पर जब माँ बनते हुए बिगड़ जाएगी तुम्हारी बहू या बेटी की हालत
तब उसे छोड़कर किसी बड़े अस्पताल में किसी बड़े आदमी की
बहू या बेटी के सिरहाने डाक्टरों की फ़ौज बनकर खडा हो जाएगा

जब किसी झूठे केस में गिरफ़्तार कर लिया जाएगा तुम्हारा बेटा
तब उसे छोड़कर किसी अमीर बाप के बिगड़े बेटे को बचाने के लिए
वकीलों की फ़ौज बनकर खड़ा हो जाएगा

जब तुम स्वर्ग जाने की आशा में
किसी तरह अपनी जिन्दगी के अंतिम दिन काट रहे होगे
तब ये किसी अमीर बूढ़े के लिए
धरती पर स्वर्ग का इंतजाम कर रहा होगा
ये तुम्हारा ईश्वर नहीं है
तुम्हारा ईश्वर तो कब का मर चुका है

अब जो दुनिया चला रहा है
वो ईश्वर पूँजीवादी है

शनिवार, 5 अप्रैल 2014

ग़ज़ल : सदा सच बोलने वाला कभी अफ़सर नहीं होता

बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२

कहीं भी आसमाँ पे मील का पत्थर नहीं होता
भटक जाते परिंदे, गर ख़ुदा, रहबर नहीं होता

कहें कुछ भी किताबें, देश का हाकिम ही मालिक है
दमन की शक्ति जिसके पास हो, नौकर नहीं होता

बचा पाएँगी मच्छरदानियाँ मज़लूम को कैसे
यहाँ जो ख़ून पीता है महज़ मच्छर नहीं होता

मिलाकर झूठ में सच बोलना, देना जब इंटरव्यू
सदा सच बोलने वाला कभी अफ़सर नहीं होता

शज़र को फिर हरा कर ही नहीं पाता कोई मौसम
जो पीलापन मिटाने के लिए पतझर नहीं होता

बुधवार, 26 मार्च 2014

कविता : कालजयी कचरा

ध्यान से देखो
वो पॉलीथीन जैसी रचना है
हल्की, पतली, पारदर्शी

पॉलीथीन में उपस्थित परमाणुओं की तरह
उस रचना के शब्द भी वही हैं
जो अत्यन्त विस्फोटक और ज्वलनशील वाक्यों में होते हैं

वो रचना
किसी बाजारू विचार को
घर घर तक पहुँचाने के लिए इस्तेमाल की जायेगी

उस पर बेअसर साबित होंगे आलोचना के अम्ल और क्षार
समय जैसा पारखी भी धोखा खा जाएगा
प्रकृति की सारी विनाशकारी शक्तियाँ मिलकर भी
उसे नष्ट नहीं कर सकेंगी

वो पॉलीथीन जैसी रचना
एक दिन कालजयी कचरा बन जाएगी
और सामाजिक पर्यावरण को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाएगी 

शनिवार, 22 मार्च 2014

ग़ज़ल : सत्य लेकिन हजम नहीं होता

बह्र : २१२२ १२१२ २२

झूठ में कोई दम नहीं होता
सत्य लेकिन हज़म नहीं होता

अश्क बहना ही कम नहीं होता
दर्द, माँ की कसम नहीं होता

मैं अदम* से अगर न टकराता
आज खुद भी अदम नहीं होता

दर्द--दिल की दवा जो रखते हैं
उनके दिल में रहम नहीं होता

शेर में बात अपनी कह देते
आपका सर कलम नहीं होता

*अदम = शून्य, अदम गोंडवी

गुरुवार, 20 मार्च 2014

ग़ज़ल : जाति की बात करने से क्या फ़ायदा

बह्र  : २१२ २१२ २१२ २१२

ये ख़ुराफ़ात करने से क्या फ़ायदा
जाति की बात करने से क्या फ़ायदा

हाय से बाय तक चंद पल ही लगें
यूँ मुलाकात करने से क्या फ़ायदा

हार कर जीत ले जो सभी का हृदय
उसकी शहमात करने से क्या फ़ायदा

आँसुओं का लिखा कौन समझा यहाँ?
आँख दावात करने से क्या फ़ायदा

ये जमीं सह सके जो बस उतना बरस
और बरसात करने से क्या फ़ायदा

कुछ नया कह सको गर तो सज्जनसुने
फिर वही बात करने से क्या फ़ायदा

शनिवार, 8 मार्च 2014

ग़ज़ल : परों को खोलकर अपने, जो किस्मत आजमाते हैं

बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२

गगन का स्नेह पाते हैं, हवा का प्यार पाते हैं
परों को खोलकर अपने, जो किस्मत आजमाते हैं

फ़लक पर झूमते हैं, नाचते हैं, गीत गाते हैं
जो उड़ते हैं उन्हें उड़ने के ख़तरे कब डराते हैं

परिंदों की नज़र से एक पल गर देख लो दुनिया
न पूछोगे कभी, उड़कर परिंदे क्या कमाते है

फ़लक पर सब बराबर हैं यहाँ नाज़ुक परिंदे भी
लड़ें गर सामने से तो विमानों को गिराते हैं

जमीं कहती, नई पीढ़ी के पंक्षी भूल मत जाना
परिंदे शाम ढलते घोसलों में लौट आते हैं

मंगलवार, 4 मार्च 2014

कविता : विकास का कचरा

शराब की खाली बोतल के बगल में लेटी है
सरसों के तेल की खाली बोतल

दो सौ मिलीलीटर आयतन वाली
शीतल पेय की खाली बोतल के ऊपर लेटी है
पानी की एक लीटर की खाली बोतल

दो मिनट में बनने वाले नूडल्स के ढेर सारे खाली पैकेट बिखरे पड़े हैं
उनके बीच बीच में से झाँक रहे हैं सब्जियों और फलों के छिलके

डर से काँपते हुए चाकलेट और टाफ़ियों के तुड़े मुड़े रैपर
हवा के झोंके के सहारे भागकर
कचरे से मुक्ति पाने की कोशिश कर रहे हैं

सिगरेट और अगरबत्ती के खाली पैकेटों के बीच
जोरदार झगड़ा हो रहा है
दोनों एक दूसरे पर बदबू फैलाने का आरोप लगा रहे हैं

यहाँ आकर पता चलता है
कि सरकार की तमाम कोशिशों और कानूनों के बावजूद
धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रही हैं पॉलीथीन की थैलियाँ

एक गाय जूठन के साथ साथ पॉलीथीन की थैलियाँ भी खा रही है

एक आवारा कुत्ता बकरे की हड्डियाँ चबा रहा है
वो नहीं जानता कि जिसे वो हड्डियों का स्वाद समझ रहा है
वो दर’असल उसके अपने मसूड़े से रिस रहे खून का स्वाद है

कुछ मैले-कुचैले नर कंकाल कचरे में अपना जीवन खोज रहे हैं

पास से गुज़रने वाली सड़क पर
आम आदमी जल्द से जल्द इस जगह से दूर भाग जाने की कोशिश रहा है
क्योंकि कचरे से आने वाली बदबू उसके बर्दाश्त के बाहर है

एक कवि कचरे के बगल में खड़ा होकर उस पर थूकता है
और नाक मुँह सिकोड़ता हुआ आगे निकल जाता है
उस कवि से अगर कोई कह दे
कि उसके थूकने से थोड़ा सा कचरा और बढ़ गया है
तो कवि निश्चय ही उसका सर फोड़ देगा

ये विकास का कचरा है