मेरा पहला कहानी संग्रह अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित हो गया है। नीचे दिये गये पुस्तक के कवर पर क्लिक करके आप इसे 30% छूट के साथ अमेजन (www.amazon.in) से मँगा सकते हैं।
यकीनन ग्रेविटॉन जैसा ही होता है प्रेम का कण। तभी तो ये मोड़ देता है दिक्काल को / कम कर देता है समय की गति / इसे कैद करके नहीं रख पातीं / स्थान और समय की विमाएँ। ये रिसता रहता है एक दुनिया से दूसरी दुनिया में / ले जाता है आकर्षण उन स्थानों तक / जहाँ कवि की कल्पना भी नहीं पहुँच पाती। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी तक नहीं मिला / लेकिन ब्रह्मांड का कण कण इसे महसूस करता है।
सोमवार, 16 अक्तूबर 2017
रविवार, 18 जून 2017
ग़ज़ल : जिस घड़ी बाज़ू मेरे चप्पू नज़र आने लगे
बह्र : फायलातुन फायलातुन फायलातुन फायलुन
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जिस घड़ी बाज़ू मेरे चप्पू नज़र आने लगे।
झील सागर ताल सब चुल्लू नज़र आने लगे।
ज़िंदगी के बोझ से हम झुक गये थे क्या ज़रा,
लाट साहब को निरे टट्टू नज़र आने लगे।
हर पुलिस वाला अहिंसक हो गया अब देश में,
पाँच सौ के नोट पे बापू नज़र आने लगे।
कल तलक तो ये नदी थी आज ऐसा क्या हुआ,
स्वर्ग जाने को यहाँ तंबू नज़र आने लगे।
शीघ्र ही करवाइये उपचार अपना यदि कभी,
सोन मछली आपको रोहू नज़र आने लगे।
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जिस घड़ी बाज़ू मेरे चप्पू नज़र आने लगे।
झील सागर ताल सब चुल्लू नज़र आने लगे।
ज़िंदगी के बोझ से हम झुक गये थे क्या ज़रा,
लाट साहब को निरे टट्टू नज़र आने लगे।
हर पुलिस वाला अहिंसक हो गया अब देश में,
पाँच सौ के नोट पे बापू नज़र आने लगे।
कल तलक तो ये नदी थी आज ऐसा क्या हुआ,
स्वर्ग जाने को यहाँ तंबू नज़र आने लगे।
शीघ्र ही करवाइये उपचार अपना यदि कभी,
सोन मछली आपको रोहू नज़र आने लगे।
शनिवार, 10 जून 2017
ग़ज़ल : मिल नगर से न फिर वो नदी रह गई।
मिल नगर से न फिर वो नदी रह गई।
लुट गया शुद्ध जल, गंदगी रह गई।
लाल जोड़ा पहन साँझ बिछड़ी जहाँ,
साँस दिन की वहीं पर थमी रह गई।
कुछ पलों में मिटी बिजलियों की तपिश,
हो के घायल हवा चीखती रह गई।
रात ने दर्द-ए-दिल को छुपाया मगर,
दूब की शाख़ पर कुछ नमी रह गई।
करके जूठा फलों को पखेरू उड़ा,
रूह तक शाख़ की काँपती रह गई।
लुट गया शुद्ध जल, गंदगी रह गई।
लाल जोड़ा पहन साँझ बिछड़ी जहाँ,
साँस दिन की वहीं पर थमी रह गई।
कुछ पलों में मिटी बिजलियों की तपिश,
हो के घायल हवा चीखती रह गई।
रात ने दर्द-ए-दिल को छुपाया मगर,
दूब की शाख़ पर कुछ नमी रह गई।
करके जूठा फलों को पखेरू उड़ा,
रूह तक शाख़ की काँपती रह गई।
सोमवार, 13 फ़रवरी 2017
प्रेमगीत : बिना तुम्हारे, हे मेरी तुम, सब आधा है
बिना तुम्हारे
हे मेरी तुम
सब आधा है
सूरज आधा, चाँद अधूरा
आधे हैं ग्रह सारे
दिन हैं आधे, रातें आधी
आधे हैं सब तारे
धरती आधी
सृष्टि अधूरी
रब आधा है
आधा नगर, डगर है आधी
आधे हैं घर, आँगन
कलम अधूरी, आधा काग़ज़
आधा मेरा तन-मन
भाव अधूरे
कविता का
मतलब आधा है
फागुन आधा, मधुऋतु आधी
आया आधा सावन
आधी साँसें, आधा है दिल
आधी है घर धड़कन
जीवन आधा
पर मेरा दुख
कब आधा है?
हे मेरी तुम
सब आधा है
सूरज आधा, चाँद अधूरा
आधे हैं ग्रह सारे
दिन हैं आधे, रातें आधी
आधे हैं सब तारे
धरती आधी
सृष्टि अधूरी
रब आधा है
आधा नगर, डगर है आधी
आधे हैं घर, आँगन
कलम अधूरी, आधा काग़ज़
आधा मेरा तन-मन
भाव अधूरे
कविता का
मतलब आधा है
फागुन आधा, मधुऋतु आधी
आया आधा सावन
आधी साँसें, आधा है दिल
आधी है घर धड़कन
जीवन आधा
पर मेरा दुख
कब आधा है?
गुरुवार, 9 फ़रवरी 2017
लघुकथा : कथा लिखो
महाबुद्ध से शिष्य ने पूछा, “भगवन! समाज में असत्य का रोग फैलता ही जा रहा है। अब तो इसने बच्चों को भी अपनी गिरफ्त में लेना शुरू कर दिया है। आप सत्य की दवा से इसे ठीक क्यों नहीं कर देते?”
महाबुद्ध ने शिष्य को एक गोली दी और कहा, “शीघ्र एवं सम्पूर्ण असर के लिये इसे चबा-चबाकर खाओ, महाबुद्धि।”
महाबुद्धि ने गोली अपने मुँह में रखी और चबाने लगा। कुछ ही क्षण बाद उसे जोर की उबकाई आई और वो उल्टी करने लगा। गोली के साथ साथ उसका खाया पिया भी बाहर आ गया। वो बोला, “प्रभो ये गोली तो नीम से भी लाख गुना कड़वी थी। ये कैसी ठिठोली थी प्रभो।”
महाबुद्ध बोले, “सच भी ऐसा ही है। यदि मैं समाज को सब कुछ सच सच बता दूँ तो भी वो उस पर कभी विश्वास नहीं करेगा और जो थोड़ा बहुत सच वो जानता और मानता है उस पर से भी उसका विश्वास उठ जायेगा।”
“तो असत्य का ये रोग समाज से कैसे मिटेगा प्रभो।”
“हमें झूठ के खोल में लपेटकर सच समाज तक पहुँचाना होगा। ताकि उसका कड़वापन खत्म हो जाय।”
“कैसे भगवन?”
“कथा लिखो महाबुद्धि। कथा लिखो।”
महाबुद्ध ने शिष्य को एक गोली दी और कहा, “शीघ्र एवं सम्पूर्ण असर के लिये इसे चबा-चबाकर खाओ, महाबुद्धि।”
महाबुद्धि ने गोली अपने मुँह में रखी और चबाने लगा। कुछ ही क्षण बाद उसे जोर की उबकाई आई और वो उल्टी करने लगा। गोली के साथ साथ उसका खाया पिया भी बाहर आ गया। वो बोला, “प्रभो ये गोली तो नीम से भी लाख गुना कड़वी थी। ये कैसी ठिठोली थी प्रभो।”
महाबुद्ध बोले, “सच भी ऐसा ही है। यदि मैं समाज को सब कुछ सच सच बता दूँ तो भी वो उस पर कभी विश्वास नहीं करेगा और जो थोड़ा बहुत सच वो जानता और मानता है उस पर से भी उसका विश्वास उठ जायेगा।”
“तो असत्य का ये रोग समाज से कैसे मिटेगा प्रभो।”
“हमें झूठ के खोल में लपेटकर सच समाज तक पहुँचाना होगा। ताकि उसका कड़वापन खत्म हो जाय।”
“कैसे भगवन?”
“कथा लिखो महाबुद्धि। कथा लिखो।”
रविवार, 22 जनवरी 2017
ग़ज़ल : है अंग अंग तेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल
बह्र : मफऊलु फायलातुन मफऊलु फायलुन (221 2122 221 212)
है अंग अंग तेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल
पढ़ता हूँ कर अँधेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल
देखा है तुझको जबसे मेरे मन के आसपास,
डाले हुए हैं डेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल।
अलफ़ाज़ तेरा लब छू अश’आर बन रहे,
कर दे बदन ये मेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल।
नागिन समझ के जुल्फें लेकर गया, सो अब,
गाता फिरे सपेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल।
आया जो तेरे घर तो सब छोड़छाड़ कर,
लेकर गया लुटेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल।
है अंग अंग तेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल
पढ़ता हूँ कर अँधेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल
देखा है तुझको जबसे मेरे मन के आसपास,
डाले हुए हैं डेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल।
अलफ़ाज़ तेरा लब छू अश’आर बन रहे,
कर दे बदन ये मेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल।
नागिन समझ के जुल्फें लेकर गया, सो अब,
गाता फिरे सपेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल।
आया जो तेरे घर तो सब छोड़छाड़ कर,
लेकर गया लुटेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल।
शनिवार, 14 जनवरी 2017
नवगीत : ये दुनिया है भूलभुलैया
ये दुनिया है भूलभुलैया
रची भेड़ियों ने
भेड़ों की खातिर
पढ़े लिखे चालाक भेड़िये
गाइड बने हुए हैं इसके
ओढ़ भेड़ की खाल
जिन भेड़ों की स्मृति अच्छी है
उन सबको बागी घोषित कर
रंग दिया है लाल
फिर भी कोई राह न पाये
इस डर के मारे
छोड़ रखे मुखबिर
भेड़ समझती अपने तन पर
खून पसीने से खेती कर
उगा रही जो ऊन
जब तक राह नहीं मिल जाती
उसे बेचकर अपना चारा
लायेगी दो जून
पर पकते ही फसल भेड़िये
दाम गिरा देते
हैं कितने शातिर
ऊन मांस की ये सप्लाई
ऐसे ही पीढ़ी दर पीढ़ी
सदा रहे कायम
भाँति भाँति का नशा बाँटकर
इसीलिए सारी भेड़ों को
किया हुआ बेदम
सब तो साथ भेड़ियों के हैं
तंत्र और संसद
मस्जिद और मंदिर
रची भेड़ियों ने
भेड़ों की खातिर
पढ़े लिखे चालाक भेड़िये
गाइड बने हुए हैं इसके
ओढ़ भेड़ की खाल
जिन भेड़ों की स्मृति अच्छी है
उन सबको बागी घोषित कर
रंग दिया है लाल
फिर भी कोई राह न पाये
इस डर के मारे
छोड़ रखे मुखबिर
भेड़ समझती अपने तन पर
खून पसीने से खेती कर
उगा रही जो ऊन
जब तक राह नहीं मिल जाती
उसे बेचकर अपना चारा
लायेगी दो जून
पर पकते ही फसल भेड़िये
दाम गिरा देते
हैं कितने शातिर
ऊन मांस की ये सप्लाई
ऐसे ही पीढ़ी दर पीढ़ी
सदा रहे कायम
भाँति भाँति का नशा बाँटकर
इसीलिए सारी भेड़ों को
किया हुआ बेदम
सब तो साथ भेड़ियों के हैं
तंत्र और संसद
मस्जिद और मंदिर
मंगलवार, 10 जनवरी 2017
ग़ज़ल : जो करा रहा है पूजा बस उसी का फ़ायदा है
बह्र : ११२१ २१२२ ११२१ २१२२
जो करा रहा है पूजा बस उसी का फ़ायदा है
न यहाँ तेरा भला है न वहाँ तेरा भला है
अभी तक तो आइना सब को दिखा रहा था सच ही
लगा अंडबंड बकने ये स्वयं से जब मिला है
न कोई पहुँच सका है किसी एक राह पर चल
वही सच तलक है पहुँचा जो सभी पे चल सका है
इसी भोर में परीक्षा मेरी ज़िंदगी की होगी
सो सनम ये जिस्म तेरा मैंने रात भर पढ़ा है
यदि ब्लैकहोल को हम न गिनें तो इस जगत में
वो लगा लुटाने फ़ौरन यहाँ जब भी जो भरा है
चलो अब तो हम भी चलकर उसे बेक़ुसूर कह दें
वो भरी सभा में रोकर सभी को दिखा रहा है
जो करा रहा है पूजा बस उसी का फ़ायदा है
न यहाँ तेरा भला है न वहाँ तेरा भला है
अभी तक तो आइना सब को दिखा रहा था सच ही
लगा अंडबंड बकने ये स्वयं से जब मिला है
न कोई पहुँच सका है किसी एक राह पर चल
वही सच तलक है पहुँचा जो सभी पे चल सका है
इसी भोर में परीक्षा मेरी ज़िंदगी की होगी
सो सनम ये जिस्म तेरा मैंने रात भर पढ़ा है
यदि ब्लैकहोल को हम न गिनें तो इस जगत में
वो लगा लुटाने फ़ौरन यहाँ जब भी जो भरा है
चलो अब तो हम भी चलकर उसे बेक़ुसूर कह दें
वो भरी सभा में रोकर सभी को दिखा रहा है
शनिवार, 31 दिसंबर 2016
नवगीत : नव वर्ष ऐसा हो
है यही विनती प्रभो
नव वर्ष ऐसा हो
एक डॉलर के बराबर
एक पैसा हो
ऊसरों में धान हो पैदा
रूपया दे पाव भर मैदा
हर नदी को तू रवानी दे
हर कुआँ तालाब पानी दे
लौट आए गाँव शहरों से
हों न शहरी लोग बहरों से
खूब ढोरों के लिये
चोकर व भूसा हो
कैद हो आतंक का दानव
और सब दानव, बनें मानव
ताप धरती का जरा कम हो
रेत की छाती जरा नम हो
घाव सब ओजोन के भर दो
तेल पर ना युद्ध कोई हो
साल ये भगवन! धरा पर
स्वर्ग जैसा हो
सूर्य पर विस्फोट हों धीरे
भूध्रुवों पर चोट हो धीरे
अब कहीं भूकंप ना आएँ
संलयन हम मंद कर पाएँ
अब न काले द्रव्य उलझाएँ
सब समस्याएँ सुलझ जाएँ
चाहता जो भी हृदय ये
ठीक वैसा हो
नव वर्ष ऐसा हो
एक डॉलर के बराबर
एक पैसा हो
ऊसरों में धान हो पैदा
रूपया दे पाव भर मैदा
हर नदी को तू रवानी दे
हर कुआँ तालाब पानी दे
लौट आए गाँव शहरों से
हों न शहरी लोग बहरों से
खूब ढोरों के लिये
चोकर व भूसा हो
कैद हो आतंक का दानव
और सब दानव, बनें मानव
ताप धरती का जरा कम हो
रेत की छाती जरा नम हो
घाव सब ओजोन के भर दो
तेल पर ना युद्ध कोई हो
साल ये भगवन! धरा पर
स्वर्ग जैसा हो
सूर्य पर विस्फोट हों धीरे
भूध्रुवों पर चोट हो धीरे
अब कहीं भूकंप ना आएँ
संलयन हम मंद कर पाएँ
अब न काले द्रव्य उलझाएँ
सब समस्याएँ सुलझ जाएँ
चाहता जो भी हृदय ये
ठीक वैसा हो
शुक्रवार, 23 दिसंबर 2016
ग़ज़ल : दिल ये करता है के अब साँप ही पाला जाए
बह्र : 2122 1122 1122 22
दिल के जख्मों को चलो ऐसे सम्हाला जाए
इसकी आहों से कोई शे’र निकाला जाए
अब तो ये बात भी संसद ही बताएगी हमें
कौन मस्जिद को चले कौन शिवाला जाए
आजकल हाल बुजुर्गों का हुआ है ऐसा
दिल ये करता है के अब साँप ही पाला जाए
दिल दिवाना है दिवाने की हर इक बात का फिर
क्यूँ जरूरी है कोई अर्थ निकाला जाए
दाल पॉलिश की मिली है तो पकाने के लिए
यही लाजिम है इसे और उबाला जाए
दो विकल्पों से कोई एक चुनो कहते हैं
या अँधेरा भी रहे या तो उजाला जाये
दिल के जख्मों को चलो ऐसे सम्हाला जाए
इसकी आहों से कोई शे’र निकाला जाए
अब तो ये बात भी संसद ही बताएगी हमें
कौन मस्जिद को चले कौन शिवाला जाए
आजकल हाल बुजुर्गों का हुआ है ऐसा
दिल ये करता है के अब साँप ही पाला जाए
दिल दिवाना है दिवाने की हर इक बात का फिर
क्यूँ जरूरी है कोई अर्थ निकाला जाए
दाल पॉलिश की मिली है तो पकाने के लिए
यही लाजिम है इसे और उबाला जाए
दो विकल्पों से कोई एक चुनो कहते हैं
या अँधेरा भी रहे या तो उजाला जाये
गुरुवार, 15 दिसंबर 2016
ग़ज़ल : ख़ुदा की खोज में निकले जो, राम तक पहुँचे
बह्र : 1212 1122 1212 22
प्रगति की होड़ न ऐसे मकाम तक पहुँचे
ज़रा सी बात जहाँ कत्ल-ए-आम तक पहुँचे
गया है छूट कहीं कुछ तो मानचित्रों में
चले तो पाक थे लेकिन हराम तक पहुँचे
वो जिन का क्लेम था उनको है प्रेम रोग लगा
गले के दर्द से केवल जुकाम तक पहुँचे
न इतना वाम था उनमें के जंगलों तक जायँ
नगर से ऊब के भागे तो ग्राम तक पहुँचे
जिन्हें था आँखों से ज़्यादा यकीन कानों पर
चले वो भक्त से लेकिन गुलाम तक पहुँचे
वतन कबीर का जाने कहाँ गया के जहाँ
ख़ुदा की खोज में निकले जो, राम तक पहुँचे
प्रगति की होड़ न ऐसे मकाम तक पहुँचे
ज़रा सी बात जहाँ कत्ल-ए-आम तक पहुँचे
गया है छूट कहीं कुछ तो मानचित्रों में
चले तो पाक थे लेकिन हराम तक पहुँचे
वो जिन का क्लेम था उनको है प्रेम रोग लगा
गले के दर्द से केवल जुकाम तक पहुँचे
न इतना वाम था उनमें के जंगलों तक जायँ
नगर से ऊब के भागे तो ग्राम तक पहुँचे
जिन्हें था आँखों से ज़्यादा यकीन कानों पर
चले वो भक्त से लेकिन गुलाम तक पहुँचे
वतन कबीर का जाने कहाँ गया के जहाँ
ख़ुदा की खोज में निकले जो, राम तक पहुँचे
रविवार, 4 दिसंबर 2016
ग़ज़ल : उस्तरा हमने दिया है बंदरों के हाथ में
बह्र : 2122 2122 2122 212
आदमी की ज़िन्दगी है दफ़्तरों के हाथ में
और दफ़्तर जा फँसे हैं अजगरों के हाथ में
आइना जब से लगा है पत्थरों के हाथ में
प्रश्न सारे खेलते हैं उत्तरों के हाथ में
जोड़ लूँ रिश्तों के धागे रब मुझे भी बख़्श दे
वो कला तूने जो दी है बुनकरों के हाथ में
छोड़िये कपड़े, बदन पर बच न पायेगी त्वचा
उस्तरा हमने दिया है बंदरों के हाथ में
ख़ून पीना है ज़रूरत मैं तो ये भी मान लूँ
पर हज़ारों वायरस हैं मच्छरों के हाथ में
काट दो जो हैं असहमत शोर है चारों तरफ
आदमी अब आ गया है ख़ंजरों के हाथ में
आदमी की ज़िन्दगी है दफ़्तरों के हाथ में
और दफ़्तर जा फँसे हैं अजगरों के हाथ में
आइना जब से लगा है पत्थरों के हाथ में
प्रश्न सारे खेलते हैं उत्तरों के हाथ में
जोड़ लूँ रिश्तों के धागे रब मुझे भी बख़्श दे
वो कला तूने जो दी है बुनकरों के हाथ में
छोड़िये कपड़े, बदन पर बच न पायेगी त्वचा
उस्तरा हमने दिया है बंदरों के हाथ में
ख़ून पीना है ज़रूरत मैं तो ये भी मान लूँ
पर हज़ारों वायरस हैं मच्छरों के हाथ में
काट दो जो हैं असहमत शोर है चारों तरफ
आदमी अब आ गया है ख़ंजरों के हाथ में
सोमवार, 28 नवंबर 2016
ग़ज़ल : उतर जाए अगर झूठी त्वचा तो
बह्र : १२२२ १२२२ १२२
उतर जाए अगर झूठी त्वचा तो।
सभी हैं एक से साबित हुआ, तो।
शरीअत में हुई झूठी कथा, तो।
न मर कर भी दिखा मुझको ख़ुदा, तो।
वो दोहों को ही दुनिया मानता है,
कहा गर जिंदगी ने सोरठा, तो।
समझदारी है उससे दूर जाना,
अगर हो बैल कोई मरखना तो।
जिसे मशरूम का हो मानते तुम,
किसी मज़लूम का हो शोरबा, तो।
न तुम ज़िन्दा न तुममें रूह ‘सज्जन’
किसी दिन गर यही साबित हुआ, तो।
उतर जाए अगर झूठी त्वचा तो।
सभी हैं एक से साबित हुआ, तो।
शरीअत में हुई झूठी कथा, तो।
न मर कर भी दिखा मुझको ख़ुदा, तो।
वो दोहों को ही दुनिया मानता है,
कहा गर जिंदगी ने सोरठा, तो।
समझदारी है उससे दूर जाना,
अगर हो बैल कोई मरखना तो।
जिसे मशरूम का हो मानते तुम,
किसी मज़लूम का हो शोरबा, तो।
न तुम ज़िन्दा न तुममें रूह ‘सज्जन’
किसी दिन गर यही साबित हुआ, तो।
बुधवार, 9 नवंबर 2016
कविता : हम ग्यारह हैं
हमें साथ रहते दस वर्ष बीत गये
दस बड़ी अजीब संख्या है
ये कहती है कि दायीं तरफ बैठा एक
मैं हूँ
तुम शून्य हो
मिलकर भले ही हम एक दूसरे से बहुत अधिक हैं
मगर अकेले तुम अस्तित्वहीन हो
हम ग्यारह वर्ष बाद उत्सव मनाएँगें
क्योंकि अगर कोई जादूगर हमें एक संख्या में बदल दे
तो हम ग्यारह होंगे
दस नहीं
दस बड़ी अजीब संख्या है
ये कहती है कि दायीं तरफ बैठा एक
मैं हूँ
तुम शून्य हो
मिलकर भले ही हम एक दूसरे से बहुत अधिक हैं
मगर अकेले तुम अस्तित्वहीन हो
हम ग्यारह वर्ष बाद उत्सव मनाएँगें
क्योंकि अगर कोई जादूगर हमें एक संख्या में बदल दे
तो हम ग्यारह होंगे
दस नहीं
सोमवार, 31 अक्तूबर 2016
ग़ज़ल : उजाले के दरीचे खुल रहे हैं
बह्र : १२२२ १२२२ १२२
एल ई डी की क़तारें सामने हैं
बचे बस चंद मिट्टी के दिये हैं
दुआ सब ने चराग़ों के लिए की
फले क्यूँ रोशनी के झुनझुने हैं
रखो श्रद्धा न देखो कुछ न पूछो
अँधेरे के ये सारे पैंतरे हैं
अँधेरा दूर होगा तब दिखेगा
सभी बदनाम सच इसमें छुपे हैं
उजाला शुद्ध हो तो श्वेत होगा
वगरना रंग हम पहचानते हैं
करेंगे एक दिन वो भी उजाला
अभी केवल धुआँ जो दे रहे हैं
न अब तमशूल श्री को चुभ सकेगा
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं
एल ई डी की क़तारें सामने हैं
बचे बस चंद मिट्टी के दिये हैं
दुआ सब ने चराग़ों के लिए की
फले क्यूँ रोशनी के झुनझुने हैं
रखो श्रद्धा न देखो कुछ न पूछो
अँधेरे के ये सारे पैंतरे हैं
अँधेरा दूर होगा तब दिखेगा
सभी बदनाम सच इसमें छुपे हैं
उजाला शुद्ध हो तो श्वेत होगा
वगरना रंग हम पहचानते हैं
करेंगे एक दिन वो भी उजाला
अभी केवल धुआँ जो दे रहे हैं
न अब तमशूल श्री को चुभ सकेगा
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं
शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016
नवगीत : मन का ज्योति पर्व
अंधकार भारी पड़ता जब
दीप अकेला चलता है
विश्व प्रकाशित हो जाता जब
लाखों के सँग जलता है
हैं प्रकाश कण छुपे हुये
हर मानव मन के ईंधन में
चिंगारी मिल जाये तो
भर दें उजियारा जीवन में
इसीलिए तो ज्योति पर्व से
हर अँधियारा जलता है
ज्योति बुझाने की कोशिश जब
कीट पतंगे करते हैं
जितना जोर लगाते
उतनी तेज़ी से जल मरते हैं
अंधकार के प्रेमी को
मिलती केवल असफलता है
मन का ज्योति पर्व मिलजुल कर
हम निशि दिवस मनायेंगे
कई प्रकाश वर्ष तक जग से
तम को दूर भगायेंगे
सब देखेंगे दूर खड़ा हो
हाथ अँधेरा मलता है
दीप अकेला चलता है
विश्व प्रकाशित हो जाता जब
लाखों के सँग जलता है
हैं प्रकाश कण छुपे हुये
हर मानव मन के ईंधन में
चिंगारी मिल जाये तो
भर दें उजियारा जीवन में
इसीलिए तो ज्योति पर्व से
हर अँधियारा जलता है
ज्योति बुझाने की कोशिश जब
कीट पतंगे करते हैं
जितना जोर लगाते
उतनी तेज़ी से जल मरते हैं
अंधकार के प्रेमी को
मिलती केवल असफलता है
मन का ज्योति पर्व मिलजुल कर
हम निशि दिवस मनायेंगे
कई प्रकाश वर्ष तक जग से
तम को दूर भगायेंगे
सब देखेंगे दूर खड़ा हो
हाथ अँधेरा मलता है
रविवार, 23 अक्तूबर 2016
लघुकथा : जनकवि
झील ने कवि से पूछा, “तुम भी मेरी तरह अपना स्तर क्यूँ बनाये रखना चाहते हो? मेरी तो मज़बूरी है, मुझे ऊँचाइयों ने कैद कर रखा है इसलिए मैं बह नहीं सकती। तुम्हारी क्या मज़बूरी है?”
कवि को झटका लगा। उसे ऊँचाइयों ने कैद तो नहीं कर रखा था पर उसे ऊँचाइयों की आदत हो गई थी। तभी तो आजकल उसे अपनी कविताओं में ठहरे पानी जैसी बदबू आने लगी थी। कुछ क्षण बाद कवि ने झील से पूछा, “पर अपना स्तर गिराकर नीचे बहने में क्या लाभ है। इससे तो अच्छा है कि यही स्तर बनाये रखा जाय।”
झील बोली, “मेरा निजी लाभ तो कुछ नहीं है। पर मैं नीचे की तरफ बहती तो स्तर भले ही गिर जाता लेकिन मेरा पानी साफ हो जाता और ये इंसानों और जानवरों के बहुत काम आता। इससे धरती के नीचे का जलस्तर भी बढ़ जाता तथा मैं जिस ज़मीन से होकर मैं बहती उसे भी उपजाऊ बना देती।”
कवि बोला, “फिर भी स्तर तो तुम्हारा गिरता ही, बढ़ता तो नहीं न।”
झील मुस्कुराकर बोली, “गिरते गिरते एक दिन सागर तक पहुँचती। सूरज से युद्ध करती और इस युद्ध के कारण उत्पन्न ऊर्जा से भाप बनकर ऊपर उठती तथा बादल बनकर हवाओं की मदद से आसमान को छू लेती । पर मैं तो कैद हूँ, ऐसा नहीं कर सकती। लेकिन सुनो, तुम तो आज़ाद हो न।”
कवि को झटका लगा। उसे ऊँचाइयों ने कैद तो नहीं कर रखा था पर उसे ऊँचाइयों की आदत हो गई थी। तभी तो आजकल उसे अपनी कविताओं में ठहरे पानी जैसी बदबू आने लगी थी। कुछ क्षण बाद कवि ने झील से पूछा, “पर अपना स्तर गिराकर नीचे बहने में क्या लाभ है। इससे तो अच्छा है कि यही स्तर बनाये रखा जाय।”
झील बोली, “मेरा निजी लाभ तो कुछ नहीं है। पर मैं नीचे की तरफ बहती तो स्तर भले ही गिर जाता लेकिन मेरा पानी साफ हो जाता और ये इंसानों और जानवरों के बहुत काम आता। इससे धरती के नीचे का जलस्तर भी बढ़ जाता तथा मैं जिस ज़मीन से होकर मैं बहती उसे भी उपजाऊ बना देती।”
कवि बोला, “फिर भी स्तर तो तुम्हारा गिरता ही, बढ़ता तो नहीं न।”
झील मुस्कुराकर बोली, “गिरते गिरते एक दिन सागर तक पहुँचती। सूरज से युद्ध करती और इस युद्ध के कारण उत्पन्न ऊर्जा से भाप बनकर ऊपर उठती तथा बादल बनकर हवाओं की मदद से आसमान को छू लेती । पर मैं तो कैद हूँ, ऐसा नहीं कर सकती। लेकिन सुनो, तुम तो आज़ाद हो न।”
मंगलवार, 18 अक्तूबर 2016
ग़ज़ल : दर्द-ए-मज़्लूम जिसने समझा है
बह्र : २१२२ १२१२ २२
दर्द-ए-मज़्लूम जिसने समझा है
वो यक़ीनन कोई फ़रिश्ता है
दूर गुणगान से मैं रहता हूँ
एक तो जह्र तिस पे मीठा है
मेरे मुँह में हज़ारों छाले हैं
सच बड़ा गर्म और तीखा है
देखिए बैल बन गये हैं हम
जाति रस्सी है धर्म खूँटा है
सब को उल्लू बना दे जो पल में
ये ज़माना मियाँ उसी का है
अब छुपाने से छुप न पायेगा
जख़्म दिल तक गया है, गहरा है
आज नेता भी बन गया ‘सज्जन’
कुछ न करने का ये नतीज़ा है
दर्द-ए-मज़्लूम जिसने समझा है
वो यक़ीनन कोई फ़रिश्ता है
दूर गुणगान से मैं रहता हूँ
एक तो जह्र तिस पे मीठा है
मेरे मुँह में हज़ारों छाले हैं
सच बड़ा गर्म और तीखा है
देखिए बैल बन गये हैं हम
जाति रस्सी है धर्म खूँटा है
सब को उल्लू बना दे जो पल में
ये ज़माना मियाँ उसी का है
अब छुपाने से छुप न पायेगा
जख़्म दिल तक गया है, गहरा है
आज नेता भी बन गया ‘सज्जन’
कुछ न करने का ये नतीज़ा है
बुधवार, 12 अक्तूबर 2016
ग़ज़ल : क्या क्या न करे देखिए पूँजी मेरे आगे
बह्र : २२११ २२११ २२११ २२
क्या क्या न करे देखिए पूँजी मेरे आगे
नाचे है मुई रोज़ ही नंगी मेरे आगे
डरती है कहीं वक़्त ज़ियादा न हो मेरा
भागे है सुई और भी ज़ल्दी मेरे आगे
सब रंग दिखाने लगा जो साफ था पहले
जैसे ही छुआ तेल ने पानी मेरे आगे
ख़ुद को भी बचाना है और उसको भी बचाना
हाथी मेरे पीछे है तो चींटी मेरे आगे
सदियों मैं चला तब ये परम सत्य मिला है
मिट्टी मेरे पीछे थी, है मिट्टी मेरे आगे
क्या क्या न करे देखिए पूँजी मेरे आगे
नाचे है मुई रोज़ ही नंगी मेरे आगे
डरती है कहीं वक़्त ज़ियादा न हो मेरा
भागे है सुई और भी ज़ल्दी मेरे आगे
सब रंग दिखाने लगा जो साफ था पहले
जैसे ही छुआ तेल ने पानी मेरे आगे
ख़ुद को भी बचाना है और उसको भी बचाना
हाथी मेरे पीछे है तो चींटी मेरे आगे
सदियों मैं चला तब ये परम सत्य मिला है
मिट्टी मेरे पीछे थी, है मिट्टी मेरे आगे
सोमवार, 3 अक्तूबर 2016
ग़ज़ल : मेरे चेहरे पे कितने चेहरे हैं
बह्र : २१२२ १२१२ २२
अंधे बहरे हैं चंद गूँगे हैं
मेरे चेहरे पे कितने चेहरे हैं
मैं कहीं ख़ुद से ही न मिल जाऊँ
ये मुखौटे नहीं हैं पहरे हैं
आइने से मिला तो ये पाया
मेरे मुँह पर कई मुँहासे हैं
फ़ेसबुक पर मुझे लगा ऐसा
आप दुनिया में सबसे अच्छे हैं
अब जमाना इन्हीं का है ‘सज्जन’
क्या हुआ गर ये सिर्फ़ जुमले हैं
अंधे बहरे हैं चंद गूँगे हैं
मेरे चेहरे पे कितने चेहरे हैं
मैं कहीं ख़ुद से ही न मिल जाऊँ
ये मुखौटे नहीं हैं पहरे हैं
आइने से मिला तो ये पाया
मेरे मुँह पर कई मुँहासे हैं
फ़ेसबुक पर मुझे लगा ऐसा
आप दुनिया में सबसे अच्छे हैं
अब जमाना इन्हीं का है ‘सज्जन’
क्या हुआ गर ये सिर्फ़ जुमले हैं
शनिवार, 17 सितंबर 2016
ग़ज़ल : रंग सारे हैं जहाँ हैं तितलियाँ
बह्र : २१२२ २१२२ २१२
रंग सारे हैं जहाँ हैं तितलियाँ
पर न रंगों की दुकाँ हैं तितलियाँ
गुनगुनाता है चमन इनके किये
फूल पत्तों की जुबाँ हैं तितलियाँ
पंख देखे, रंग देखे, और? बस!
आपने देखी कहाँ हैं तितलियाँ
दिल के बच्चे को ज़रा समझाइए
आने वाले कल की माँ हैं तितलियाँ
बंद कर आँखों को क्षण भर देखिए
रोशनी का कारवाँ हैं तितलियाँ
रंग सारे हैं जहाँ हैं तितलियाँ
पर न रंगों की दुकाँ हैं तितलियाँ
गुनगुनाता है चमन इनके किये
फूल पत्तों की जुबाँ हैं तितलियाँ
पंख देखे, रंग देखे, और? बस!
आपने देखी कहाँ हैं तितलियाँ
दिल के बच्चे को ज़रा समझाइए
आने वाले कल की माँ हैं तितलियाँ
बंद कर आँखों को क्षण भर देखिए
रोशनी का कारवाँ हैं तितलियाँ
मंगलवार, 13 सितंबर 2016
ग़ज़ल : कुछ पलों में नष्ट हो जाती युगों की सूचना
बह्र : 2122 2122 2122 212
कुछ पलों में नष्ट हो जाती युगों की सूचना
चन्द पल में सैकड़ों युग दूर जाती कल्पना
स्वप्न है फिर सत्य है फिर है निरर्थकता यहाँ
और ये जीवन उसी में अर्थ कोई ढूँढ़ना
हुस्न क्या है एक बारिश जो कभी होती नहीं
इश्क़ उस बरसात में तन और मन का भीगना
ग़म ज़ुदाई का है क्या सुलगी हुई सिगरेट है
याद के कड़वे धुँएँ में दिल स्वयं का फूँकना
प्रेम और कर्तव्य की दो खूँटियों के बीच में
जिन्दगी की अलगनी पर शाइरी को साधना
कुछ पलों में नष्ट हो जाती युगों की सूचना
चन्द पल में सैकड़ों युग दूर जाती कल्पना
स्वप्न है फिर सत्य है फिर है निरर्थकता यहाँ
और ये जीवन उसी में अर्थ कोई ढूँढ़ना
हुस्न क्या है एक बारिश जो कभी होती नहीं
इश्क़ उस बरसात में तन और मन का भीगना
ग़म ज़ुदाई का है क्या सुलगी हुई सिगरेट है
याद के कड़वे धुँएँ में दिल स्वयं का फूँकना
प्रेम और कर्तव्य की दो खूँटियों के बीच में
जिन्दगी की अलगनी पर शाइरी को साधना
शनिवार, 10 सितंबर 2016
ग़ज़ल : धूप से लड़ते हुए यदि मर कभी जाता है वो
बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २१२
धूप से लड़ते हुए यदि मर कभी जाता है वो
रात रो देते हैं बच्चे और जी जाता है वो
आपको जो नर्क लगता, स्वर्ग के मालिक, सुनें
बस वहीं पाने को थोड़ी सी खुशी जाता है वो
जिन की रग रग में बहे उसके पसीने का नमक
आज कल देने उन्हीं को खून भी जाता है वो
वो मरे दिनभर दिहाड़ी के लिए, तू ऐश कर
पास रख अपना ख़ुदा ऐ मौलवी, जाता है वो
खौलते कीड़ों की चीखें कर रहीं पागल उसे
बालने सब आज धागे रेशमी, जाता है वो
धूप से लड़ते हुए यदि मर कभी जाता है वो
रात रो देते हैं बच्चे और जी जाता है वो
आपको जो नर्क लगता, स्वर्ग के मालिक, सुनें
बस वहीं पाने को थोड़ी सी खुशी जाता है वो
जिन की रग रग में बहे उसके पसीने का नमक
आज कल देने उन्हीं को खून भी जाता है वो
वो मरे दिनभर दिहाड़ी के लिए, तू ऐश कर
पास रख अपना ख़ुदा ऐ मौलवी, जाता है वो
खौलते कीड़ों की चीखें कर रहीं पागल उसे
बालने सब आज धागे रेशमी, जाता है वो
मंगलवार, 30 अगस्त 2016
ग़ज़ल : ऐसा फल अच्छा होता है
बह्र : २२ २२ २२ २२ सब खाते हैं इक बोता है ऐसा फल अच्छा होता है पूँजीपतियों के पापों को कोई तो छुपकर धोता है इक दुनिया अलग दिखी उसको जिसने भी मारा गोता है हर खेत सुनहरे सपनों का झूठे वादों ने जोता है महसूस करे जो जितना, वो, उतना ही ज़्यादा रोता है मेरे दिल का बच्चा जाकर यादों की छत पर सोता है भक्तों के तर्कों से ‘सज्जन’ सच्चा तो केवल तोता है |
गुरुवार, 25 अगस्त 2016
ग़ज़ल : आ मेरे ख़यालों में हाज़िरी लगा दीजै
बह्र : 212 1222 212 1222
आ मेरे ख़यालों में हाज़िरी लगा दीजै
मन की पाठशाला में मेरा जी लगा दीजै
फिर रही हैं आवारा ये इधर उधर सब पर
आ मेरे ख़यालों में हाज़िरी लगा दीजै
मन की पाठशाला में मेरा जी लगा दीजै
फिर रही हैं आवारा ये इधर उधर सब पर
आप इन निगाहों की नौकरी लगा दीजै
दिल की कोठरी में जब आप घुस ही आये हैं
द्वार बंद कर फौरन सिटकिनी लगा दीजै
स्वाद भी जरूरी है अन्न हज़्म करने को
प्यार की चपाती में कुछ तो घी लगा दीजै
आग प्यार की बुझने गर लगे कहीं ‘सज्जन’
फिर पुरानी यादों की धौंकनी लगा दीजै
दिल की कोठरी में जब आप घुस ही आये हैं
द्वार बंद कर फौरन सिटकिनी लगा दीजै
स्वाद भी जरूरी है अन्न हज़्म करने को
प्यार की चपाती में कुछ तो घी लगा दीजै
आग प्यार की बुझने गर लगे कहीं ‘सज्जन’
फिर पुरानी यादों की धौंकनी लगा दीजै
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