रविवार, 27 जून 2021

नवगीत : बूढ़ा ट्रैक्टर

गड़गड़ाकर
खाँसता है
एक बूढ़ा ट्रैक्टर
डगडगाता
जा रहा है
ईंट ओवरलोड कर

सरसराती कार निकली
घरघराती बस
धड़धड़ाती बाइकों ने
गालियाँ दीं दस

कह रही है
साइकिल तक
हो गया बुड्ढा अमर

न्यूनतम का भी तिहाई
पा रहा वेतन
पर चढ़ी चर्बी कहें सब
ख़ूब इसके तन

थरथराकर
कांपता है
रुख हवा का देखकर

ठीक होता सब अगर तो
इस कदर खटता?
छाँव घर की छोड़कर ये
धूप में मरता?

स्वाभिमानी
खा न पाया
आज तक ये माँगकर

गुरुवार, 27 मई 2021

घनाक्षरी : जाते-जाते सारा हिन्दुस्तान बेच डालूँगा

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रेल बेच डाली मैंने तेल बेच डाला मैंने,
न्याय बेच डालूँगा ईमान बेच डालूँगा।

धान बेच डाला खलिहान बेच डाला मैंने,
बोलेगा अदानी तो किसान बेच डालूँगा।

बनिया हूँ भाई सही कीमत मिली जो मुझे,
राष्ट्रगान क्या है संविधान बेच डालूँगा।

बहुमत न मिला तो झोला ले के चल दूँगा,
जाते-जाते सारा हिन्दुस्तान बेच डालूँगा।

सोमवार, 17 मई 2021

ग़ज़ल: किसी रात आ मेरे पास आ मेरे साथ रह मेरे हमसफ़र

बह्र : ११२१२ ११२१२ ११२१२ ११२१२

किसी रात आ मेरे पास आ मेरे साथ रह मेरे हमसफ़र
तुझे दिल के रथ पे बिठा के मैं कभी ले चलूँ कहीं चाँद पर

तुझे छू सकूँ तो मिले सुकूँ तुझे चूम लूँ तो ख़ुदा मिले
तू जो साथ दे जग जीत लूँ तूझे पी सकूँ तो बनूँ अमर

मेरे हमनशीं मेरे हमनवा मेरे हमक़दम मेरे हमजबाँ
तुझे तुझ से लूँगा उधार, फिर, भरूँ किस्त चाहे मैं उम्र भर

कहीं धूप है कहीं छाँव है कहीं शहर है कहीं गाँव है
है कहाँ चली मेरी रहगुज़र तू जो साथ है तो किसे ख़बर

मेरी भूख तू मेरी प्यास तू मेरा जिस्म तू मेरी जान तू
तेरा नाम ख़ुद का बता रहा तू बसी है मुझमें कुछ इस क़दर

रविवार, 18 अप्रैल 2021

ग़ज़ल: चेहरे पर मुस्कान बनाकर बैठे हैं

बह्र : 22 22 22 22 22 2
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चेहरे पर मुस्कान बनाकर बैठे हैं
जो नकली सामान बनाकर बैठे हैं

दिल अपना चट्टान बनाकर बैठे हैं
पत्थर को भगवान बनाकर बैठे हैं

जो करते बातें तलवार बनाने की
उनके पुरखे म्यान बनाकर बैठे हैं

आर्य, द्रविड़, मुस्लिम, ईसाई हैं जिसमें
उसको हिन्दुस्तान बनाकर बैठे हैं

ब्राह्मण-हरिजन, हिन्दू-मुस्लिम सिखलाकर
बच्चों को हैवान बनाकर बैठे हैं

बेच-बाच देगा सब, जाने से पहले
बनिये को सुल्तान बनाकर बैठे हैं

हुआ अदब का हाल न पूछो कुछ ऐसा
पॉण्डी को गोदान बनाकर बैठे हैं

जाने कैसा ये विकास कर बैठे हम
वन को रेगिस्तान बनाकर बैठे हैं

जो कहते थे हर बेघर को घर देंगे
घर को कब्रिस्तान बनाकर बैठे हैं

बुधवार, 14 अप्रैल 2021

ग़ज़ल: अगर हक़ माँगते अपना कृषक, मजदूर खट्टे हैं

बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
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अगर हक़ माँगते अपना कृषक, मजदूर खट्टे हैं
तो ख़ुश्बू में सने सब आँकड़े भरपूर खट्टे हैं

मधुर हम भी हुये तो देश को मधुमेह जकड़ेगा
वतन के वासिते होकर बड़े मज़बूर, खट्टे हैं

लगे हैं आसमाँ पर देवताओं को चढ़ेंगे सब
तुम्हारे सब्ज़-बागों के सभी अंगूर खट्टे हैं

लड़ाकर राज करना तो विलायत की रवायत है
हमारे वासिते सब आपके दस्तूर खट्टे हैं

हमेशा बस वही कहना जो सुनना चाहते हैं सब
भले ही हो गये हों आप यूँ मशहूर, खट्टे हैं

हमारे स्वाद से मत भागिये हैं स्वास्थ्यवर्द्धक हम
विटामिन सी बहुत है इसलिये भरपूर खट्टे हैं

बुधवार, 27 नवंबर 2019

नवगीत : फुलवारी बन रहना

जब तक रहना जीवन में
फुलवारी बन रहना
पूजा बनकर मत रहना
तुम यारी बन रहना

दो दिन हो या चार दिनों का
जब तक साथ रहे
इक दूजे से सबकुछ कह दें
ऐसी बात रहे

सदा चहकती गौरैया सी
प्यारी बन रहना

फटे-पुराने रीति-रिवाजों को
न ओढ़ लेना
गली मुहल्ले का कचरा
घर में न जोड़ लेना

देवी बनकर मत रहना
तुम नारी बन रहना

गुस्सा आये तो जो चाहो
तोड़-फोड़ लेना
प्यार बहुत आये तो
ये तन-मन निचोड़ लेना

आँसू बनकर मत रहना
सिसकारी बन रहना

रविवार, 3 नवंबर 2019

नवगीत : तेरा हाथ हिलाना

ट्रेन समय की
छुकछुक दौड़ी
मज़बूरी थी जाना
भूल गया सब
याद रहा बस
तेरा हाथ हिलाना

तेरे हाथों की मेंहदी में
मेरा नाम नहीं था
केवल तन छूकर मिट जाना
मेरा काम नहीं था

याद रहेगा तुझको
दिल पर
मेरा नाम गुदाना

तेरा तन था भूलभुलैया
तेरी आँखें रहबर
तेरे दिल तक मैं पहुँचा
पर तेरे पीछे चलकर

दिल का ताला
दिल की चाबी
दिल से दिल खुल जाना

इक दूजे के सुख-दुख बाँटे
हमने साँझ-सबेरे
अब तेरे आँसू तेरे हैं
मेरे आँसू मेरे

अब मुश्किल है
और किसी के
सुख-दुख को अपनाना

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2019

नवगीत : जाते हो बाजार पिया तो दलिया ले आना

जाते हो बाजार पिया तो
दलिया ले आना
आलू, प्याज, टमाटर
थोड़ी धनिया ले आना

आग लगी है सब्जी में
फिर भी किसान भूखा
बेच दलालों को सब
खुद खाता रूखा-सूखा

यूँं तो नहीं ज़रूरत हमको
लेकिन फिर भी तुम
बेच रही हो बथुआ कोई बुढ़िया
ले आना

जैसे-जैसे जीवन कठिन हुआ
मजलूमों का
वैसे-वैसे जन्नत का सपना भी
खूब बिका

मन का दर्द न मिट पायेगा
पर तन की ख़ातिर
थोड़ा हरा पुदीना
थोड़ी अँबिया ले आना

धर्म जीतता रहा सदा से
फिर से जीत गया
हारा है इंसान हमेशा
फिर से हार गया

दफ़्तर से थककर आते हो
छोड़ो यह सब तुम
याद रहे तो
इक साबुन की टिकिया ले आना

रविवार, 16 जून 2019

कविता : रक्षा करो

मैंने कहा जानवरों की रक्षा करो
उन्होंने मुझे महात्मा बता दिया
अनेकानेक पुरस्कारों से मुझे लाद दिया

मैंने कहा पूँजीपतियों से जानवरों की रक्षा करो
मेरी बात किसी ने नहीं सुनी
कुछ ने तो मुझे पागल तक कह दिया

मैंने कहा इंसानों की रक्षा करो
उन्होंने कहा तुम हरामखोरी का समर्थन करते हो
इंसान अपनी रक्षा स्वयं कर सकता है
अपना पेट स्वयं भर सकता है

मैंने कहा बच्चों की रक्षा करो
उन्होंने कहा बच्चों की रक्षा तो स्वयं भगवान करते हैं
हम भगवान से बड़े थोड़े हैं

मैंने कहा समलैंगिकों की रक्षा करो
उन्होंने मुझे समलैंगिक कह कर भगा दिया

मैंने कहा स्त्रियों की रक्षा करो
उन्होंने मुझे स्त्रैण कहकर दुत्कार दिया

मैंने कहा किसानों की रक्षा करो
उन्होंने कहा ज्यादा मत बोलो वरना टाँग तोड़ देंगे

मैंने कहा किसानों की पूँजीपतियों से रक्षा करो
उन्होंने डंडा लेकर मुझे खदेड़ लिया

मैंने कहा दलितों की रक्षा करो
उन्होंने कहा तुम अम्बेडकरवादी हो
वामपंथी हो, नास्तिक हो, अधर्मी हो

मैंने कहा आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन की रक्षा करो
उन्होंने कहा तुम नक्सली हो
तुम्हें तो गोली मार देनी चाहिये