गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

दीवारें

सब देखती और सुनती रहती हैं दीवारें
सारे कुकर्म दीवारों की आड़ में ही किए जाते हैं
और एक दिन इन्हीं कुकर्मों के बोझ से
टूटकर गिर जाती हैं दीवारें
और फिर बनाई जाती हैं नई दीवारें
नए कुकर्मों के लिए;

पता नहीं कब बोलना सीखेंगी ये दीवारें
मगर जिस भी दिन दीवारें बोल उठेंगी
वो दिन दीवारों की आड़ में
सदियों से फलती फूलती
इस सभ्यता
इस व्यवस्था
का आखिरी दिन होगा।

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी प्रस्तुति। नवरात्रा की हार्दिक शुभकामनाएं!

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  2. सच कहता हूँ...भाई,
    आपकी यह रचना ऊपर की अन्य रचनाओं से ज़्यादा पसंद आयी। इसमें आपने समाज की एक गंदगी (कु-कर्म) की ओर सफलतापूर्वक ध्यान खींचा है। यदि कवि ध्यान नहीं खींचेगा, तो समाज के सो जाने का ख़तरा है।

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  3. इस कविता में अनुस्यूत विरोध का स्वर प्रभावित करता है।
    बधाई...!

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  4. दिनांक 10/03/2013 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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    मैं प्रतीक्षा में खड़ा हूँ....हलचल का रविवारीय विशेषांक.....रचनाकार निहार रंजन जी

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जो मन में आ रहा है कह डालिए।