सोमवार, 4 अप्रैल 2022

नवगीत : जिन्दगी जलेबी सी

जिन्दगी जलेबी सी
उलझी है
मीठी है

दुनिया की चक्की में
मैदे सा पिसना है
प्यार की नमी से
मन का खमीर उठना है

गोल-गोल घुमा रही
सूरज की
मुट्ठी है

तेल खौलता दुख का
तैर कर निकलना है
वक़्त की कड़ाही में
लाल-लाल पकना है

चाशनी सुखों की
पलकें बिछाये
बैठी है

कुरकुरा बने रहना
ज़्यादा मत डूबना
उलझन है अर्थहीन
इससे मत ऊबना

मानव के हाथ लगी
ईश्वर की
चिट्ठी है

शनिवार, 1 जनवरी 2022

ग़ज़ल: हुये जिस्म उरियाँ तो ठंडक हुई कम

बड़ा जादुई है तेरा साथ हमदम
हुये जिस्म उरियाँ तो ठंडक हुई कम

समंदर कभी भर सका है न जैसे
मिले प्यार कितना भी लगता सदा कम

ये सूरत, ये मेधा, ये बातें, अदाएँ
कहीं बुद्ध से बन न जाऊँ मैं गौतम

कुहासे को क्या छू दिया तूने लब से
यहाँ सर्दियों का गुलाबी है मौसम

मुबाइल मुहब्बत का इसको थमा दे
मेरे दिल का बच्चा मचाता है ऊधम

गुरुवार, 23 दिसंबर 2021

नवगीत : पानी और पारा


पूछा मैंने पानी से
क्यूँ सबको गीला कर देता है

पानी बोला
प्यार किया है
ख़ुद से भी ज़्यादा औरों से
इसीलिये चिपका रह जाता हूँ
मैं अपनों से
गैरों से

हो जाता है गीला-गीला
जो भी मुझको छू लेता है

अगर ठान लेता
मैं दिल में
पारे जैसा बन सकता था
ख़ुद में ही खोया रहता तो
किसको गीला कर सकता था?

पारा बाहर से चमचम पर
विष अन्दर-अन्दर सेता है

वो तो अच्छा है
धरती पर
नाममात्र को ही पारा है
बंद पड़ा है बोतल में वो
अपना तो ये जग सारा है

मेरा गीलापन ही है जो
जीवन की नैय्या खेता है

सोमवार, 20 दिसंबर 2021

नवगीत : रजनीगंधा

रजनीगंधा
तुम्हें विदेशी
कहे सियासत

माना पितर तुम्हारे जन्मे
सात समंदर पार
पर तुम जन्मे इस मिट्टी में
यहीं मिला घर-बार

देख रही सब
फिर क्यों करती
हवा शरारत

रंग तुम्हारा रूप तुम्हारा
लगे मोगरे सा
फिर भी तुम्हें स्वदेशी कहती
नहीं कभी पुरवा

साफ हवा में
किसने घोली
इतनी नफ़रत

बन किसान का साथी यूँ ही
खेतों में उगना
गाँव, गली, घर, नगर, डगर सब
महकाते रहना

मिट जाएगी
कर्म इत्र से
बू-ए-तोहमत

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2021

नवगीत : रखें सावधानी कुहरे में


सूरज दूर गया धरती से
तापमान लुढ़का
बड़ा पारदर्शी था पानी
बना सघन कुहरा

लोभ हवा में उड़ने का
कुछ ऐसा उसे लगा
पानी जैसा परमसंत भी
संयम खो बैठा

फँसा हवा के अलख जाल में
हो त्रिशंकु लटका

आता है सबके जीवन में
एक समय ऐसा
आदर्शों से समझौता
करवा देता पैसा

किन्तु कुहासा कुछ दिन का
स्थायी साफ हवा

जैसे-जैसे सूरज ऊपर
चढ़ता जायेगा
बूँद-बूँद कर कुहरे का मन
गलता जायेगा

रखें सावधानी कुहरे में
घटे न दुर्घटना

शनिवार, 6 नवंबर 2021

ग़ज़ल: उजाला पढ़ रहे थे देर तक अब थक गये दीपक

1222 1222 1222 1222

उजाला पढ़ रहे थे देर तक अब थक गये दीपक
दुबारा स्नेह भर दें हम बस इतना चाहते दीपक

हैं जिनके कर्म काले, वो अँधेरे के मुहाफ़िज़ हैं
सब उजले कर्म वाले जल रहे बन शाम से दीपक

दिये का कर्म है जलना दिये का धर्म है जलना
तुफानी रात में ये सोचकर हैं जागते दीपक

अगर बढ़ता रहा यूँ ही अँधेरा जीत जाएगा
उजाले के मुहाफिज हैं, तिमिर से लड़ रहे दीपक

इन्हें समझाइये इनसे बनी सरहद उजाले की
बुझे कल दीप इतने हो गये हैं अनमने दीपक

अँधेरे से तो लड़ लेंगे मगर प्रभु जी सदा हमको
बचाना ब्लैक होलों से यही वर माँगते दीपक

जलाने में पराये दीप तुम तो बुझ गये ‘सज्जन’
तुम्हारी लौ लिये दिल में जले सौ-सौ नये दीपक

गुरुवार, 4 नवंबर 2021

नवगीत : चमक रही कंदील

नन्हा दीपक
तम से लड़ता
चमक रही कंदील

तेज हवा से
रक्षा करतीं
ममता की दीवारें
रंग बिरंगे
इस मंजर पर
लक्ष्मी खुद को वारें

श्वेत रश्मि को
सौ रंगों में
करती है तब्दील

धीरे-धीरे
नभ तक जाकर
तारा बन जायेगा
भूली भटकी
दुनिया को ये
रस्ता दिखलायेगा

टँगा हुआ है
सुंदर सपना
पकड़े सच की कील

अखिल सृष्टि यदि
राम कृष्ण से
ले लें सीता राधा
कभी न कोई
युद्ध कहीं हो
कभी न रोए ममता

अहंकार में
मतवाला जग
फौरन बने सुशील

शुक्रवार, 17 सितंबर 2021

नवगीत : ऐसी ही रहना तुम

जैसी हो
अच्छी हो
ऐसी ही रहना तुम

कांटो की बगिया में
तितली सी उड़ जाना
रस्ते में पत्थर हो
नदिया सी मुड़ जाना

भँवरों की मनमानी
गुप-चुप मत सहना तुम

सांपों का डर हो तो
चिड़िया सी चिल्लाना
बाजों के पंजों में
मत आना, मत आना

जो दिल को भा जाए
उससे सब कहना तुम

सूरज की किरणों से
मत खुद को चमकाना
जुगनू ही रहना पर
अपनी किरणें पाना

बन कर मत रह जाना
सोने का गहना तुम

रविवार, 27 जून 2021

नवगीत : बूढ़ा ट्रैक्टर

गड़गड़ाकर
खाँसता है
एक बूढ़ा ट्रैक्टर
डगडगाता
जा रहा है
ईंट ओवरलोड कर

सरसराती कार निकली
घरघराती बस
धड़धड़ाती बाइकों ने
गालियाँ दीं दस

कह रही है
साइकिल तक
हो गया बुड्ढा अमर

न्यूनतम का भी तिहाई
पा रहा वेतन
पर चढ़ी चर्बी कहें सब
ख़ूब इसके तन

थरथराकर
कांपता है
रुख हवा का देखकर

ठीक होता सब अगर तो
इस कदर खटता?
छाँव घर की छोड़कर ये
धूप में मरता?

स्वाभिमानी
खा न पाया
आज तक ये माँगकर

गुरुवार, 27 मई 2021

घनाक्षरी : जाते-जाते सारा हिन्दुस्तान बेच डालूँगा

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रेल बेच डाली मैंने तेल बेच डाला मैंने,
न्याय बेच डालूँगा ईमान बेच डालूँगा।

धान बेच डाला खलिहान बेच डाला मैंने,
बोलेगा अदानी तो किसान बेच डालूँगा।

बनिया हूँ भाई सही कीमत मिली जो मुझे,
राष्ट्रगान क्या है संविधान बेच डालूँगा।

बहुमत न मिला तो झोला ले के चल दूँगा,
जाते-जाते सारा हिन्दुस्तान बेच डालूँगा।

सोमवार, 17 मई 2021

ग़ज़ल: किसी रात आ मेरे पास आ मेरे साथ रह मेरे हमसफ़र

बह्र : ११२१२ ११२१२ ११२१२ ११२१२

किसी रात आ मेरे पास आ मेरे साथ रह मेरे हमसफ़र
तुझे दिल के रथ पे बिठा के मैं कभी ले चलूँ कहीं चाँद पर

तुझे छू सकूँ तो मिले सुकूँ तुझे चूम लूँ तो ख़ुदा मिले
तू जो साथ दे जग जीत लूँ तूझे पी सकूँ तो बनूँ अमर

मेरे हमनशीं मेरे हमनवा मेरे हमक़दम मेरे हमजबाँ
तुझे तुझ से लूँगा उधार, फिर, भरूँ किस्त चाहे मैं उम्र भर

कहीं धूप है कहीं छाँव है कहीं शहर है कहीं गाँव है
है कहाँ चली मेरी रहगुज़र तू जो साथ है तो किसे ख़बर

मेरी भूख तू मेरी प्यास तू मेरा जिस्म तू मेरी जान तू
तेरा नाम ख़ुद का बता रहा तू बसी है मुझमें कुछ इस क़दर

रविवार, 18 अप्रैल 2021

ग़ज़ल: चेहरे पर मुस्कान बनाकर बैठे हैं

बह्र : 22 22 22 22 22 2
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चेहरे पर मुस्कान बनाकर बैठे हैं
जो नकली सामान बनाकर बैठे हैं

दिल अपना चट्टान बनाकर बैठे हैं
पत्थर को भगवान बनाकर बैठे हैं

जो करते बातें तलवार बनाने की
उनके पुरखे म्यान बनाकर बैठे हैं

आर्य, द्रविड़, मुस्लिम, ईसाई हैं जिसमें
उसको हिन्दुस्तान बनाकर बैठे हैं

ब्राह्मण-हरिजन, हिन्दू-मुस्लिम सिखलाकर
बच्चों को हैवान बनाकर बैठे हैं

बेच-बाच देगा सब, जाने से पहले
बनिये को सुल्तान बनाकर बैठे हैं

हुआ अदब का हाल न पूछो कुछ ऐसा
पॉण्डी को गोदान बनाकर बैठे हैं

जाने कैसा ये विकास कर बैठे हम
वन को रेगिस्तान बनाकर बैठे हैं

जो कहते थे हर बेघर को घर देंगे
घर को कब्रिस्तान बनाकर बैठे हैं

बुधवार, 14 अप्रैल 2021

ग़ज़ल: अगर हक़ माँगते अपना कृषक, मजदूर खट्टे हैं

बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
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अगर हक़ माँगते अपना कृषक, मजदूर खट्टे हैं
तो ख़ुश्बू में सने सब आँकड़े भरपूर खट्टे हैं

मधुर हम भी हुये तो देश को मधुमेह जकड़ेगा
वतन के वासिते होकर बड़े मज़बूर, खट्टे हैं

लगे हैं आसमाँ पर देवताओं को चढ़ेंगे सब
तुम्हारे सब्ज़-बागों के सभी अंगूर खट्टे हैं

लड़ाकर राज करना तो विलायत की रवायत है
हमारे वासिते सब आपके दस्तूर खट्टे हैं

हमेशा बस वही कहना जो सुनना चाहते हैं सब
भले ही हो गये हों आप यूँ मशहूर, खट्टे हैं

हमारे स्वाद से मत भागिये हैं स्वास्थ्यवर्द्धक हम
विटामिन सी बहुत है इसलिये भरपूर खट्टे हैं

बुधवार, 27 नवंबर 2019

नवगीत : फुलवारी बन रहना

जब तक रहना जीवन में
फुलवारी बन रहना
पूजा बनकर मत रहना
तुम यारी बन रहना

दो दिन हो या चार दिनों का
जब तक साथ रहे
इक दूजे से सबकुछ कह दें
ऐसी बात रहे

सदा चहकती गौरैया सी
प्यारी बन रहना

फटे-पुराने रीति-रिवाजों को
न ओढ़ लेना
गली मुहल्ले का कचरा
घर में न जोड़ लेना

देवी बनकर मत रहना
तुम नारी बन रहना

गुस्सा आये तो जो चाहो
तोड़-फोड़ लेना
प्यार बहुत आये तो
ये तन-मन निचोड़ लेना

आँसू बनकर मत रहना
सिसकारी बन रहना

रविवार, 3 नवंबर 2019

नवगीत : तेरा हाथ हिलाना

ट्रेन समय की
छुकछुक दौड़ी
मज़बूरी थी जाना
भूल गया सब
याद रहा बस
तेरा हाथ हिलाना

तेरे हाथों की मेंहदी में
मेरा नाम नहीं था
केवल तन छूकर मिट जाना
मेरा काम नहीं था

याद रहेगा तुझको
दिल पर
मेरा नाम गुदाना

तेरा तन था भूलभुलैया
तेरी आँखें रहबर
तेरे दिल तक मैं पहुँचा
पर तेरे पीछे चलकर

दिल का ताला
दिल की चाबी
दिल से दिल खुल जाना

इक दूजे के सुख-दुख बाँटे
हमने साँझ-सबेरे
अब तेरे आँसू तेरे हैं
मेरे आँसू मेरे

अब मुश्किल है
और किसी के
सुख-दुख को अपनाना

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2019

नवगीत : जाते हो बाजार पिया तो दलिया ले आना

जाते हो बाजार पिया तो
दलिया ले आना
आलू, प्याज, टमाटर
थोड़ी धनिया ले आना

आग लगी है सब्जी में
फिर भी किसान भूखा
बेच दलालों को सब
खुद खाता रूखा-सूखा

यूँं तो नहीं ज़रूरत हमको
लेकिन फिर भी तुम
बेच रही हो बथुआ कोई बुढ़िया
ले आना

जैसे-जैसे जीवन कठिन हुआ
मजलूमों का
वैसे-वैसे जन्नत का सपना भी
खूब बिका

मन का दर्द न मिट पायेगा
पर तन की ख़ातिर
थोड़ा हरा पुदीना
थोड़ी अँबिया ले आना

धर्म जीतता रहा सदा से
फिर से जीत गया
हारा है इंसान हमेशा
फिर से हार गया

दफ़्तर से थककर आते हो
छोड़ो यह सब तुम
याद रहे तो
इक साबुन की टिकिया ले आना

रविवार, 16 जून 2019

कविता : रक्षा करो

मैंने कहा जानवरों की रक्षा करो
उन्होंने मुझे महात्मा बता दिया
अनेकानेक पुरस्कारों से मुझे लाद दिया

मैंने कहा पूँजीपतियों से जानवरों की रक्षा करो
मेरी बात किसी ने नहीं सुनी
कुछ ने तो मुझे पागल तक कह दिया

मैंने कहा इंसानों की रक्षा करो
उन्होंने कहा तुम हरामखोरी का समर्थन करते हो
इंसान अपनी रक्षा स्वयं कर सकता है
अपना पेट स्वयं भर सकता है

मैंने कहा बच्चों की रक्षा करो
उन्होंने कहा बच्चों की रक्षा तो स्वयं भगवान करते हैं
हम भगवान से बड़े थोड़े हैं

मैंने कहा समलैंगिकों की रक्षा करो
उन्होंने मुझे समलैंगिक कह कर भगा दिया

मैंने कहा स्त्रियों की रक्षा करो
उन्होंने मुझे स्त्रैण कहकर दुत्कार दिया

मैंने कहा किसानों की रक्षा करो
उन्होंने कहा ज्यादा मत बोलो वरना टाँग तोड़ देंगे

मैंने कहा किसानों की पूँजीपतियों से रक्षा करो
उन्होंने डंडा लेकर मुझे खदेड़ लिया

मैंने कहा दलितों की रक्षा करो
उन्होंने कहा तुम अम्बेडकरवादी हो
वामपंथी हो, नास्तिक हो, अधर्मी हो

मैंने कहा आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन की रक्षा करो
उन्होंने कहा तुम नक्सली हो
तुम्हें तो गोली मार देनी चाहिये

रविवार, 7 अप्रैल 2019

ग़ज़ल: अख़बारों की बातें छोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २
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अख़बारों की बातें छोड़ो कोई ग़ज़ल कहो
ख़ुद को थोड़ा और निचोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

वक़्त चुनावों का है, उमड़ा नफ़रत का दर्या
बाँध प्रेम का फौरन जोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

हम सबके भीतर सोई जो मानवता उसको
कस कर पकड़ो और झिंझोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

खर पतवार जहाँ है दिल के उन सब कोनों को
अपने तर्कों से तुम गोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

आग उगलने लगी सियासत जलते हैं मासूम
मिल जुलकर इसका मुँह तोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

सच लेकर तुम पूँजी, सत्ता से टकराओगे?
‘सज्जन’ जी अपना रुख मोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2019

मेरा पहला नवगीत संग्रह : नीम तले


मेरा पहला नवगीत संग्रह लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित हो गया है। नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करके आप इसे अमेजन (www.amazon.in) से मँगा सकते हैं। इस संग्रह को लोकोदय नवलेखन सम्मान से सम्मानित किया गया है।

गुरुवार, 5 अप्रैल 2018

लघुकथा : लोकतंत्र

एक गाँव में कुछ लोग ऐसे थे जो देख नहीं पाते थे, कुछ ऐसे थे जो सुन नहीं पाते थे, कुछ ऐसे थे जो बोल नहीं पाते थे और कुछ ऐसे भी थे जो चल नहीं पाते थे। उस गाँव में केवल एक ऐसा आदमी था जो देखने, सुनने, बोलने के अलावा दौड़ भी लेता था। एक दिन ग्रामवासियों ने अपना नेता चुनने का निर्णय लिया। ऐसा नेता जो उनकी समस्याओं को जिलाधिकारी तक सही ढंग से पहुँचा कर उनका समाधान करवा सके।

जब चुनाव हुआ तो अंधों ने अंधे को, बहरों ने बहरे को, गूँगों ने गूँगे को और लँगड़ों ने एक लँगड़े को वोट दिया। जो आदमी देख, सुन, बोल और दौड़ सकता था उसे केवल अपना ही वोट मिल सका। गाँव में अंधों की संख्या ज्यादा थी इसलिये एक ऐसा आदमी नेता बन गया जिसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था।

अंधा गाँव के इकलौते देख, सुन, बोल और दौड़ सकने वाले आदमी को लेकर जिलाधिकारी के पास गया और बोला, “हुजूर, माईबाप गाँव के सभी आदमियों एवं जानवरों के गले में घंटी बँधवा दीजिये और सभी वृक्षों और दीवारों में ऐसा सायरन लगवा दीजिये जो किसी के नजदीक आते ही बज उठे। इससे सारे ग्रामवासी बेधड़क सारे गाँव में घूम सकेंगे और अपना-अपना काम आराम से कर सकेंगे।”

जिलाधिकारी का दिमाग भन्ना गया। वह इकलौते देख, सुन, बोल और दौड़ सकने वाले आदमी से बोला, “यह क्या पागलपन है।”

आदमी बोला, “हुजूर यह लोकतंत्र है।”

शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018

कविता : शून्य बटा शून्य

उसने कहा 2=3 होता है

मैंने कहा आप बिल्कुल गलत कह रहे हैं

उसने लिखा 20-20=30-30
फिर लिखा 2(10-10)=3(10-10)
फिर लिखा 2=3(10-10)/(10-10)
फिर लिखा 2=3

मैंने कहा शून्य बटा शून्य अपरिभाषित है
आपने शून्य बटा शून्य को एक मान लिया है

उसने कहा ईश्वर भी अपरिभाषित है
मगर उसे भी एक माना जाता है

मैंने कहा इस तरह तो आप हर वह बात सिद्ध कर देंगे
जो आपके फायदे की है

उसने कहा यह बात मैं जानता हूँ
तुम जानते हो
मगर जनता यह बात नहीं जानती
और तुम जनता को यह बात समझा नहीं पाओगे

इतना कहकर वह मुस्कुराया
मैं निरुत्तर हो गया।

सोमवार, 1 जनवरी 2018

ग़ज़ल: कब तक ऐसे राज करेगा तेरी ऐसी की तैसी

कब तक ऐसे राज करेगा तेरी ऐसी की तैसी
तू केवल पूँजी का चमचा तेरी ऐसी की तैसी

पाँच साल होने को हैं अब घर घर जाकर देखेगा
करती है कैसे ये जनता तेरी ऐसी की तैसी

खाता भर भर देने का वादा करने वाले तूने
खा डाला जो खाते में था तेरी ऐसी की तैसी

बापू का नाखून नहीं तू गप्पू भी सबसे घटिया
बनता है बापू के जैसा तेरी ऐसी की तैसी

कई पीढ़ियों तक ये सबको नफ़रत के फल बाँटेगा
तूने रोपा है जो पौधा तेरी ऐसी की तैसी

सोमवार, 16 अक्तूबर 2017

मेरा पहला कहानी संग्रह : द हिप्नोटिस्ट

मेरा पहला कहानी संग्रह अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित हो गया है। नीचे दिये गये पुस्तक के कवर पर  क्लिक करके आप इसे 30% छूट के साथ अमेजन (www.amazon.in) से मँगा सकते हैं।

रविवार, 18 जून 2017

ग़ज़ल : जिस घड़ी बाज़ू मेरे चप्पू नज़र आने लगे

बह्र : फायलातुन फायलातुन फायलातुन फायलुन
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जिस घड़ी बाज़ू मेरे चप्पू नज़र आने लगे।
झील सागर ताल सब चुल्लू नज़र आने लगे।

ज़िंदगी के बोझ से हम झुक गये थे क्या ज़रा,
लाट साहब को निरे टट्टू नज़र आने लगे।

हर पुलिस वाला अहिंसक हो गया अब देश में,
पाँच सौ के नोट पे बापू नज़र आने लगे।

कल तलक तो ये नदी थी आज ऐसा क्या हुआ,
स्वर्ग जाने को यहाँ तंबू नज़र आने लगे।

शीघ्र ही करवाइये उपचार अपना यदि कभी,
सोन मछली आपको रोहू नज़र आने लगे।

शनिवार, 10 जून 2017

ग़ज़ल : मिल नगर से न फिर वो नदी रह गई।

मिल नगर से न फिर वो नदी रह गई।
लुट गया शुद्ध जल, गंदगी रह गई।

लाल जोड़ा पहन साँझ बिछड़ी जहाँ,
साँस दिन की वहीं पर थमी रह गई।

कुछ पलों में मिटी बिजलियों की तपिश,
हो के घायल हवा चीखती रह गई।

रात ने दर्द-ए-दिल को छुपाया मगर,
दूब की शाख़ पर कुछ नमी रह गई।

करके जूठा फलों को पखेरू उड़ा,
रूह तक शाख़ की काँपती रह गई।

सोमवार, 13 फ़रवरी 2017

प्रेमगीत : बिना तुम्हारे, हे मेरी तुम, सब आधा है

बिना तुम्हारे
हे मेरी तुम
सब आधा है

सूरज आधा, चाँद अधूरा
आधे हैं ग्रह सारे
दिन हैं आधे, रातें आधी
आधे हैं सब तारे

धरती आधी
सृष्टि अधूरी
रब आधा है

आधा नगर, डगर है आधी
आधे हैं घर, आँगन
कलम अधूरी, आधा काग़ज़
आधा मेरा तन-मन

भाव अधूरे
कविता का
मतलब आधा है

फागुन आधा, मधुऋतु आधी
आया आधा सावन
आधी साँसें, आधा है दिल
आधी है घर धड़कन

जीवन आधा
पर मेरा दुख
कब आधा है?

गुरुवार, 9 फ़रवरी 2017

लघुकथा : कथा लिखो

महाबुद्ध से शिष्य ने पूछा, “भगवन! समाज में असत्य का रोग फैलता ही जा रहा है। अब तो इसने बच्चों को भी अपनी गिरफ्त में लेना शुरू कर दिया है। आप सत्य की दवा से इसे ठीक क्यों नहीं कर देते?”

महाबुद्ध ने शिष्य को एक गोली दी और कहा, “शीघ्र एवं सम्पूर्ण असर के लिये इसे चबा-चबाकर खाओ, महाबुद्धि।”

महाबुद्धि ने गोली अपने मुँह में रखी और चबाने लगा। कुछ ही क्षण बाद उसे जोर की उबकाई आई और वो उल्टी करने लगा। गोली के साथ साथ उसका खाया पिया भी बाहर आ गया। वो बोला, “प्रभो ये गोली तो नीम से भी लाख गुना कड़वी थी। ये कैसी ठिठोली थी प्रभो।”

महाबुद्ध बोले, “सच भी ऐसा ही है। यदि मैं समाज को सब कुछ सच सच बता दूँ तो भी वो उस पर कभी विश्वास नहीं करेगा और जो थोड़ा बहुत सच वो जानता और मानता है उस पर से भी उसका विश्वास उठ जायेगा।”

“तो असत्य का ये रोग समाज से कैसे मिटेगा प्रभो।”

“हमें झूठ के खोल में लपेटकर सच समाज तक पहुँचाना होगा। ताकि उसका कड़वापन खत्म हो जाय।”

“कैसे भगवन?”

“कथा लिखो महाबुद्धि। कथा लिखो।”

रविवार, 22 जनवरी 2017

ग़ज़ल : है अंग अंग तेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल

बह्र : मफऊलु फायलातुन मफऊलु फायलुन (221 2122 221 212)

है अंग अंग तेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल
पढ़ता हूँ कर अँधेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल

देखा है तुझको जबसे मेरे मन के आसपास,
डाले हुए हैं डेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल।

अलफ़ाज़ तेरा लब छू अश’आर बन रहे,
कर दे बदन ये मेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल।

नागिन समझ के जुल्फें लेकर गया, सो अब,
गाता फिरे सपेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल।

आया जो तेरे घर तो सब छोड़छाड़ कर,
लेकर गया लुटेरा सौ गीत सौ ग़ज़ल।

शनिवार, 14 जनवरी 2017

नवगीत : ये दुनिया है भूलभुलैया

ये दुनिया है भूलभुलैया
रची भेड़ियों ने
भेड़ों की खातिर

पढ़े लिखे चालाक भेड़िये
गाइड बने हुए हैं इसके
ओढ़ भेड़ की खाल
जिन भेड़ों की स्मृति अच्छी है
उन सबको बागी घोषित कर
रंग दिया है लाल

फिर भी कोई राह न पाये
इस डर के मारे
छोड़ रखे मुखबिर

भेड़ समझती अपने तन पर
खून पसीने से खेती कर
उगा रही जो ऊन
जब तक राह नहीं मिल जाती
उसे बेचकर अपना चारा
लायेगी दो जून

पर पकते ही फसल भेड़िये
दाम गिरा देते
हैं कितने शातिर

ऊन मांस की ये सप्लाई
ऐसे ही पीढ़ी दर पीढ़ी
सदा रहे कायम
भाँति भाँति का नशा बाँटकर
इसीलिए सारी भेड़ों को
किया हुआ बेदम

सब तो साथ भेड़ियों के हैं
तंत्र और संसद
मस्जिद और मंदिर

मंगलवार, 10 जनवरी 2017

ग़ज़ल : जो करा रहा है पूजा बस उसी का फ़ायदा है

बह्र : ११२१ २१२२ ११२१ २१२२

जो करा रहा है पूजा बस उसी का फ़ायदा है
न यहाँ तेरा भला है न वहाँ तेरा भला है

अभी तक तो आइना सब को दिखा रहा था सच ही
लगा अंडबंड बकने ये स्वयं से जब मिला है

न कोई पहुँच सका है किसी एक राह पर चल
वही सच तलक है पहुँचा जो सभी पे चल सका है

इसी भोर में परीक्षा मेरी ज़िंदगी की होगी
सो सनम ये जिस्म तेरा मैंने रात भर पढ़ा है

यदि ब्लैकहोल को हम न गिनें तो इस जगत में
वो लगा लुटाने फ़ौरन यहाँ जब भी जो भरा है

चलो अब तो हम भी चलकर उसे बेक़ुसूर कह दें
वो भरी सभा में रोकर सभी को दिखा रहा है